स्त्री मुक्ति, संवेदना और स्त्री शक्ति की कविताएं लिखनेवाली जया जदवानी की यह मशहूर कविता, नए ज़माने की आत्मनिर्भर महिला की आवाज़ है.
नहीं, मैं तुम्हारे प्याले से नहीं पियूंगी
चाहे प्यास घोंट दे मेरा गला
और मैं बिखर जाऊं जर्रा जर्रा
मैं नहीं उगूंगी तुम्हारी ज़मीन पर
मुझे नहीं चाहिए
तुमसे छन कर आती
हवा और धूप
मैंने सुना है उनकी नींदों का रोना
जिन्होंने अपने सपने
गिरवी रख दिए हैं
और अब
उनकी सांसों से
मरे हुए सपनों की गंध आती है
मुझे चाहिए अपनी नींद
भूख और प्यास
मुझे चाहिए अपने आटे की
गुंथी हुई रोटी
मैं अपने जिस्म पर
अपनी इच्छाओं की रोटी
सेंकना चाहती हूं
अपनी मर्जी से
अपने लिए उगना
अपने लिए झरना चाहती हूं
मुझे नहीं करनी वफ़ादारी
तुम्हारी रोटियों की
रखवाली तुम्हारे घरों की
तुम्हारी मिट्टी की, तुम्हारी जड़ों की
जिनसे आती है मेरे
पसीने और लहू की बू
मैं नकारती हूं वह वृक्ष
जिसके फूलों पर कोई इख्तियार नहीं मेरा
मैं छोड़ती हूं तुम्हें
तुम्हारे फैलाए समस्त जाल के साथ
मैं होना चाहती हूं
अपनी गंध से परिपूर्ण अपने लिए
मैं अपना आकाश
अपनी धरती चाहती हूं
मैं अपनी होना चाहती हूं
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