‘निंदक नियरे राखिए’ हमारे देश में इस फ़िलॉसफ़ी को काफ़ी सम्मान दिया जाता रहा है. पर पिछले कई सालों से निंदा और आलोचना को द्रोह की तरह देखा जाने लगा है. दुष्यंत कुमार की कविता ‘मत कहो, आकाश में कुहरा घना है’ इस नए चलन की ख़बर लेती है.
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक़ से डूबे जिसे भी डूबना है
दोस्तों! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है
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