इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी दूसरी कड़ी में आप मिलिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आज़ाद से.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एक विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी, और दूरदर्शी नेता थे. उन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, बल्कि देश की एकता की पुरज़ोर वकालत भी की. आज़ाद, स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने. शिक्षा के प्रति दिए गए उनके अमूल्य योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) जैसे संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के पक्षधर थे।
जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का (वर्तमान सऊदी अरब) में हुआ था. उनका मूल नाम अबुल कलाम मोहिउद्दीन अहमद था, लेकिन बाद में वे मौलाना आज़ाद के नाम से प्रसिद्ध हुए. उनके पिता, मौलाना ख़ैरुद्दीन, एक प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान थे, जो मूल रूप से दिल्ली के रहने वाले थे और वर्ष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद मक्का चले गए थे. उनकी माता, आलिया, एक विद्वान परिवार से थीं. वर्ष 1890 में, जब आज़ाद केवल दो वर्ष के थे, उनका परिवार कोलकाता (तब कलकत्ता) लौट आया. आज़ाद की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, जहां उन्होंने उर्दू, फ़ारसी, अरबी और इस्लामी दर्शन का गहन अध्ययन किया. वे बचपन से ही बेहद कुशाग्र बुद्धि थे।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
मौलाना आज़ाद बहुत कम उम्र में ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए थे. वर्ष 1912 में, उन्होंने उर्दू साप्ताहिक पत्रिका अल-हिलाल शुरू की, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ जनता को जागरूक करने का एक प्रभावी माध्यम बनी. इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने का प्रयास किया. अल-हिलाल ने न केवल राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा दिया, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता पर भी ज़ोर दिया, जिसके मौलाना आज़ाद बड़े पैरोकार थे. ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1914 में इस पत्रिका पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसके बाद आज़ाद ने अल-बलाग़ नामक एक नई पत्रिका शुरू की.
आज़ाद का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान केवल लेखन तक सीमित नहीं था. वे अनेक आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल रहे. वर्ष 1920 में, वे ख़िलाफ़त आंदोलन से जुड़े, जिसका उद्देश्य तुर्की के ख़लीफ़ा के पद को बहाल करना था. हालांकि, यह आंदोलन धार्मिक आधार पर शुरू हुआ, लेकिन आज़ाद ने इसका राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए एक मंच के रूप में उपयोग किया. इसके बाद, वे असहयोग आंदोलन (1920-22) और नमक सत्याग्रह (1930) में भी सक्रिय रहे. उनकी बौद्धिक क्षमता और भाषण देने की कला ने उन्हें जनता के बीच बहुत लोकप्रिय बनाया.
कॉन्ग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष
मौलाना आज़ाद का भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस से गहरा जुड़ाव रहा. वर्ष 1923 में, वे मात्र 35 वर्ष की आयु में कॉन्ग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष चुने गए, जो उनकी नेतृत्व क्षमता का प्रमाण था. वर्ष 1940 से 1946 तक, उन्होंने कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया, जो स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण दौर था. इस दौरान, उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज़ाद, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीतियों का कड़ा विरोध किया. उनका मानना था कि भारत की विविधता ही उसकी ताक़त है और उन्होंने अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से इस विचार को प्रचारित किया.
देश को दिए शिक्षा के मंदिर
भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद, मौलाना आज़ाद को स्वतंत्र भारत का पहला शिक्षा मंत्री नियुक्त किया गया. उन्होंने वर्ष 1947 से वर्ष 1958 तक यानी लगभग 11 वर्ष इस पद पर कार्य किया. शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अभूतपूर्व था, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) जैसे संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके अलावा, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) और साहित्य अकादमी जैसे सांस्कृतिक संस्थानों की स्थापना भी उनके ही दृष्टिकोण का परिणाम थी.
आज़ाद का मानना था कि शिक्षा ही राष्ट्र निर्माण का आधार है. उन्होंने प्राथमिक और उच्च शिक्षा के प्रसार पर ज़ोर दिया और साथ ही देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए. उनकी नीतियों ने स्वतंत्र भारत की शिक्षा प्रणाली को एक मज़बूत आधार प्रदान किया.
यदि आप उनके बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो उनकी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम को पढ़ें, जो उनके विचारों और अनुभवों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. 22 फ़रवरी 1958 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी भारत के लोगों को प्रेरित करती है. मौलाना आज़ाद का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची देशभक्ति और बौद्धिक निष्ठा से हर लक्ष्य को पाया जा सकता है.