जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तब मौन का रास्ता खुला हुआ मिलता है. दुनिया की सबसे सशक्त भाषा को मजबूरी का रास्ता भी कहा जाता है. इस रास्ते पर आख़िर कोई क्यों चल पड़ता है, बता रही है स्वप्ना मित्तल की कविता.
अगर मेरी उपस्थिति से कुछ नहीं समझे तुम
तो मेरे शब्दों को क्या समझोगे?
कहना उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना समझना है
में याचक तो नहीं, जो भिक्षा मांगू मुझे समझने की
किसी के मौन को समझना, हर किसी का साहस नहीं हो सकता
सोचना होगा तुम्हें ही कि जो मौन हो गया, किस दर्द से गुज़रा होगा
हर किसी की तरफ़ जब उम्मीद भरी आंखों से देखा होगा
और आंखों की प्रतिक्रिया से ही अपमान महसूस कर लिया होगा
तब मौन ही बेहतर लगता है…
शब्दों से सब शोर मचाते हैं
आज कुछ अपनेपन के शब्द बोलकर सर पर बैठा लिया
फिर शब्दों से ही खींच ली उसके पैरों के नीचे की ज़मीन
हैरान हो उसे कुछ कहने से मौन ही बेहतर लगता है
हर दिन व्यंग्य के बाणों से छलनी होते उस अंतरमन को
तब मौन ही बेहतर लगता है…
कितना किसको समझाएं, किसको कितनी पीड़ा बताएं
किसको कितने क़िस्से सुनाएं
हर दिन की घुटन में, अब मौन ही बेहतर लगता है
जीवन की इस प्रतियोगिता में सब जीतना ही चाहते हैं
पर मुझे हारना ही बेहतर लगता है
जीतकर पा लेंगे फिर वही शोर ही
हां, वही अपनेपन का शोर
इस झूठे शोर से मुझे
अब मौन ही बेहतर लगता है…
कितनी पीड़ा अंदर लिए फिरते हैं सब
एक इंसान ढूंढ़ते हैं कहने को सब
चारों तरफ़ आंखें घुमा लेने के बाद
अंदर बैठा मौन ही ईश्वर लगता है
यूं मायूस होकर बैठने से
अब इस मौन को लिखना ही बेहतर लगता है
भगवान शिव की नगरी उज्जैन की स्वप्ना मित्तल एक योग टीचर हैं. इंग्लिश लिटरेचर में एमए हैं और मन की भावनाओं को हिंदी कविता के माध्यम से व्यक्त करती हैं. स्वप्ना को रीडिंग और कुकिंग का शौक़ है.
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