हमारे जीवन को सुखमय बनाने में रखने-खटने वाली हर औरत की हाथ है. कवि चंद्रकांत देवताले उसी मेहनती औरत के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं, पर उसने तो दूसरों की ज़िंदगी को आसान बनाने के चक्कर में अपने माथे पर सलवटें धारण कर रखी है.
सुख से पुलाकने से नहीं
रबने-खटने के थकने से
सोई हुई है स्त्री
मिलता जो सुख
वह जगती अभी तक भी
महकती अंधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती
तो होंठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हंसी-ख़ुशी का एक टुकड़ा बचाखुचा कोई
पढ़ते-लिखते बीच में जब भी
नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे ख़ुश जैसा बिन कुछ सोचे
हंसता बिन आवाज़ मैं भी
नींद में हंसते देखना उसे
मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सलवटें तक
नहीं मिटा पाती सोकर भी
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