महिला वेदना और मुद्दों को आवाज़ देनेवाली कवयित्री निर्मला पुतुल उस पुरुषवादी समाज से सवाल कर रही हैं, जिसका मानना है कि उसकी छत्रछाया में महिलाओं की स्थिति दिन-ब-दिन बेहतर होती जा रही है.
मिटा पाओगे सब कुछ?
तो मिटा दो न
भयानक काली रात को
जो बरबस उमड़ती-घुमड़ती
चुभती है मेरी आत्मा को
कैसे मिटा पाओगे
मेरी यातनामय गूंगी चीत्कार
क्या करोगे क्रूर नज़रों और नज़रानों का
निपट अकेले जूझ रही हूं जिनसे
मेरी नाभी में उठते शूल को?
मन सिंहासन पर विराजमान
इंसाफ़ मांगती स्त्री के उठते
बलात्कारित सवालों को
कैसे मिटा पाओगे?
क्या पांव में चुभे
कांटों की तरह
कुरेद निकाल फेंकोगे
आत्मा में फंसी हुई पिन
गर्भ में गड़ी हुई ज़हर बुझी तीर
अन्दर ही अन्दर
नासूर बन टीसती टीस को
मिटा पाओगे किसी जन्म में?
हज़ारों स्त्रियों के
बचाव में लड़ती
जो ख़ुद को बचा नहीं सकीं
तेरी हैवानियत से
हज़ारों स्त्रियों की उफनती बेबसी को
मेरे बलात्कारित होने का जबाव दे
क्या मिटा पाओगे उन सबकी बेबसी?
अभी-अभी जब बता रही हूं
क्या सुन रहे हो मेरी आवाज़
क्या समझा सकोगे ख़ुद को ही
अपने जीवन और जन्म के रहस्य?
सीधे-सीधे पूछती हूं तुमसे
रात के सन्नाटे में
क्या कभी कांपती नहीं है तुम्हारी रूह
क्या कुछ भी तुम्हें याद नहीं आता
सुनाई नहीं देती औरतों की हिचकियां
और मेरी चुप्पी
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता
क्या तुम सो पाते हो
बेख़बर हो नींद में
ले पाते हो खुली सांस
क्या पलक ढंपी आंखों से
दिखता नहीं मेरा मासूम चेहरा
अपनी निरीहता का सबूत मांगते?
क्या तुम्हें नहीं लगता कि
तुमने किया है क़त्ल मेरे विश्वास का
मेरी आबरू को सहेजने के बजाय
चढ़ा दी बलि
ऐसे में तुम पर समर्पित हो
कैसे कर लूं यक़ीन
क्या करूं न करूं
बोलो न
कैसे मिटा पाओगे मेरा यह संशय
यह दुख यह दर्द
और अंधेरा
जो जून से जून तक फैला है
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