तेज़ी से बदल रहे शहरी, ग्रामीण और क़स्बाई लैंडस्केप को शब्दों के कैनवास पर उतारती अरुण कमल की कविता ‘नए इलाक़े में’ बदलते देश और महादेश का प्रतिनिधित्व करती है.
इस नए बसते इलाक़े में
जहां रोज़ बन रहे हैं नए-नए मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूं
धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूं ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूं ढहा हुआ घर
और ज़मीन का ख़ाली टुकड़ा जहां से बाएं
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंज़िला
और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूं
या दो घर आगे ठकमकाता
यहां रोज़ कुछ बन रहा है
रोज़ कुछ घट रहा है
यहां स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया, पतझड़ को लौटा हूं
जैसे बैसाख का गया, भादों को लौटा हूं
अब यही है उपाय कि हर दरवाज़ा खटखटाओ
और पूछो-क्या यही है वो घर?
समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना, ऊपर से देखकर
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