नीट की परीक्षा, हमारे समूचे शिक्षण तंत्र की, हमारे समाज की और कुल-मिलाकर हमारे देश की बहुत बड़ी परीक्षा ले रही है. एक तरफ़ खाई है, दूसरी तरफ़ कुआं है. नदी के एक तट पर खड़े हैं हम और हमें दूसरे तट पर पहुंचना है, मगर कोई पुल नज़र नहीं आ रहा. पुल अगर हैं भी तो इतने जर्जर हो चुके हैं कि उनके सहारे उस पार पहुंचना एक बड़े जोख़िम से दो-चार होना है. हमनें इन पुलों का अगर रखरखाव किया होता तो ऐसी विपद में नहीं पड़ते. इस पुल अर्थात हमारे शिक्षण तंत्र को हमने जर्जर होते रहने दिया और नए पुल जो बनाए वे इतने कमज़ोर बनाए कि हर परीक्षा में फेल होते दिखाई दे रहे हैं. ऐसे में हम केवल उम्मीद ही कर सकते हैं कि होनहार बच्चों को दंड न मिले, न्याय मिले. पढ़े नीट की परीक्षा पर उपेन्द्र पुरुषोत्तम कालुस्कर का यह नज़रिया.
Body Text (Main Story): आज मैं एक ऐसी बच्ची से मिला जो नीट की उलझनों में उलझकर रह गई है. दरअसल उसके दादाजी की तबियत देखने के वास्ते हम उनके यहां गए थे. उसके दादाजी मतलब हमारी बुआ के बेटे. श्रीमती जी ने पहले ही आगाह कर दिया था कि नीट के नतीजे के बारे में कुछ दरयाफ़्त मत करने लगना. पत्नी समझदार हैं, मैं मज़ाक नहीं कर रहा, वाक़ई समझदार हैं. दुनियादारी की तमाम बातें मुझसे बेहतर जानती हैं. मैं ही कभी-कभी उनको समझने में भूल कर जाता हूं. ख़ैर छोड़िए, पत्नियां सभी की समझदार होती हैं, वरना पति तो अपनी समझदारी के चलते एक काम ढंग का न कर पाए.
बहरहाल मुझे भी यह बात अच्छी लगी कि बच्चों से ख़ुद आगे होकर इम्तहान के नतीजों के बारे में दरयाफ़्त करना ठीक नहीं है. अच्छे नतीजे का ज़िक्र वह ख़ुद ही प्रसन्नता के साथ करेंगे ही. हम उनके यहां पहुंचे और दरवाजे की घंटी बजाई तो बहू ने अर्थात बच्ची की मां ने दरवाजा खोला. या…या… मतलब आइए आइए कहकर उसने हमें भीतर बुला लिया. हमने पहले ही फ़ोन कर के हमारे आने की सूचना देकर यह कन्फ़र्म कर लिया था कि वह लोग घर पर हैं कि नहीं.
पिछले डेढ़-दो साल से बच्ची के दादा जी, मतलब हमारे भैया की तबियत गड़बड़ चल रही है. तक़रीबन तक़रीबन घर में ही क़ैद होकर रह गए हैं. दो-तीन बार भोपाल के अस्पताल में भी भरती रहे. हम और हमारे ये भैया एक बरस के अंतर से ही विदिशा वासी हुए. उन्होंने जुलाई 74 में और हमने जुलाई 75 में इस शहर में पदार्पण किया.
हम चार-एक महीने पहले उन्हें देखकर, उनसे मिलकर आए थे, तभी मालूम पड़ा था कि बच्ची नीट की तैयारी कर रही है. उसकी बड़ी बहन वीआईटी सीहोर से बीई कंप्यूटर साइंस से कर रही है. तो हमें मालूम था कि बिटिया नीट का एक्जाम दे रही है, लेकिन उनके घर जाते समय मुझे यह बिल्कुल याद नहीं था, मगर श्रीमती को याद रहा और इसीलिए उन्होंने बहले ही बरज दिया कि नीट के नतीजे के बारे में कोई बात न करना.
वैसे भी इस बार नीट, नीट न हुई बर्र का छत्ता हो गई है. उलझी लटें सुलझाना आसान है, मगर नीट की उलझन में आला अदालत खुद भी नीट में ऐसी उलझकर रह गई है कि क्या ही कहें. हर कोई अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहा है.सब अपनी-अपनी कंघी लेकर इन उलझी लटों, सॉरी उलझ गए नीट के नेट मतलब जाल को सुलझाने में लगे हैं, मगर किसी आम सहमति पर पहुंचना हाल-फ़िलहाल तक मुमकिन नहीं हो पा रहा.
तक़रीबन चौबीस लाख बच्चों को फ़िक्र है कि, आगे क्या होगा. बात वैसे देखा जाए तो फ़िक्रमंद बच्चे चौबीस लाख नहीं है, केवल वही हैं, जिन्होंने कड़ी मेहनत की है और 600 अंकों से ऊपर का स्कोर बनाया है. और इसीलिए हमारी यह बिटिया चेहरे पर प्रसन्नता लिए हुए भी चिंतित है. उसने 720 में 650 अंक हासिल किए हैं और उम्मीद लगा रखी है कि उसे सरकारी कॉलेज मिल सकता है.
वाक़ई में यह नीट की परीक्षा, हमारे समूचे शिक्षण तंत्र की, हमारे समाज की और कुल-मिलाकर हमारे देश की बहुत बड़ी परीक्षा ले रही है. एक तरफ़ खाई है, दूसरी तरफ़ कुआं है. नदी के एक तट पर खड़े हैं हम और हमें दूसरे तट पर पहुंचना है, मगर कोई पुल नज़र नहीं आ रहा. पुल अगर हैं भी तो इतने जर्जर हो चुके हैं कि उनके सहारे उस पार पहुंचना एक बड़े जोख़िम से दो-चार होना है. हमनें इन पुलों का अगर रखरखाव किया होता तो ऐसी विपद में नहीं पड़ते. इस पुल अर्थात हमारे शिक्षण तंत्र को हमने जर्जर होते रहने दिया और नए पुल जो बनाए वे इतने कमज़ोर बनाए कि हर परीक्षा में फेल होते दिखाई दे रहे हैं.
उस बिटिया और उसकी मां के चेहरे का दर्द समझना कोई राकेट साइंस समझने जैसा मुश्किल नहीं है. जिन्होंने बेलपत्र चढ़ाए और फिर परीक्षा दी उन पर तो भोलेनाथ ने कृपा की ही होगी, मगर जिन्होंने यह सब न कर के दिन-रात मेहनत की, जिन्हें अभ्यास करने की धुन में खाने-पीने की सुध तक नहीं रही, जिन्होंने लगातार पढ़-पढ़ कर अपनी आंखों पर चश्मा चढ़ा लिया या लगे हुए चश्में का नंबर बढ़वा लिया ऐसे होनहार बच्चों पर भी कोई कृपा कर सकता है तो कर दे.
ऐसे होनहार बच्चों को दंड न मिले, न्याय मिले. वैसे भी हमारे देश की मौजूदा सरकार ने एक जुलाई से भारतीय दंड संहिता को दफ़न कर के भारतीय न्याय संहिता लागू कर दी है तो हम उम्मीद करते हैं कि सबके साथ केवल न्याय होगा.
हमारी इस बिटिया और उस जैसे तमाम होनहार बच्चों के साथ न्याय होगा, हम सब यही चाहें. कल आठ जुलाई है, आला अदालत जो भी फ़ैसला लेगी वह सर्व जन हिताय होगा तो कितना सुकून मिलेगा उन सब को जो मेहनत पर भरोसा रखते हैं और न्याय में विश्वास. उस बिटिया और बिटिया की मां को हम यही कह पाए कि जो भी होगा, अच्छा ही होगा, चिंता मत करो.
फ़ोटो साभार: फ्रीपिक