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Home ज़रूर पढ़ें

निरात: ज्योति जैन की नई कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 15, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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निरात: ज्योति जैन की नई कहानी
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जीवन के छोटे-बड़े कामों को बच्चे ठीक से नहीं कर रहे हैं, तसल्ली से नहीं कर रहे, शांति से नहीं कर रहे हैं यह बात उनके अभिभावकों को हमेशा चिंता में डाले रहती है. और जब कभी ऐसा हो कि मौक़ा आने पर बच्चे अपने व्यवहार से उन्हें चौंका दें… तो? तो क्या…? समझ में आ जाता है कि बच्चे बड़े हो गए हैं और वो भी बिल्कुल उस तरह, जैसा कि अभिभावक चाहते थे. मां-बेटी के रिश्ते के तानेबाने पर बुनी यह कहानी आपको अपने जीवन की कहानी लगेगी.

 

“एक काम ढंग का नहीं है बेटा तेरा! थोड़ा व्यवस्थित करने की आदत डाल ले… तभी चीजें अपने मुक़ाम पर मिलेंगी,” अपनी युवा नौकरीपेशा बेटी भोर पर रागिनी नाराज़ हो रही थी.
‘‘सब व्यवस्थित है मां! आप भी खामखा… अभी मिल जाएंगे… यही कहीं होंगे….
आप ना टिफ़िन तैयार कर दो. मैं ढूंढ़ लूंगी…’’

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“टिफ़िन तो तैयार है… तू तो तैयार हो जा…” मां का बड़बड़ाना जारी था… ‘‘एक चीज़ संभालकर नहीं रखती. हर काम निरात से करें तो यह नौबत ही ना आए, लेकिन…”
और उसकी स्टडी पर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते अचानक बोलीं,” यह देख! यह है क्या?’’ यह कहते कहते रागिनी ने कुछ काग़ज़ हाथ में उठा लिए.
“येस… भोर ख़ुश हो गई. यही है मां! लव यू. मेरी अच्छी मां…’’ यह कहते-कहते उसने रागिनी को हग करते हुए पेपर्स उसके हाथ से लेकर फ़ाइल में रखें और फटाफट तैयार होने चली गई.
तब तक रागिनी नाश्ता लगा चुकी थी. गरम-गरम आलू के परांठे… भोर तैयार हो घड़ी पहनती हुई डाइनिंग टेबल तक आई. एक हाथ में लैपटॉप बैग, कंधे पर पर्स, बगल में कुछ फ़ाइलें. घड़ी पहनते ही एक हाथ से प्लेट में से दो परांठे गोल-गोल रोल बनाते हुए हाथ में उठा लिए. पहला कौर खाते हुए,‘‘बाय मां…’’ कहती हुई वह टेबल से चाबियां उठाने झुकी.
“अरे… नाश्ता तो आराम से कर ले भोर. यह क्या है बेटा. जी को ज़रा शांति नहीं.
ऐसी क्या नौकरी…!”
“अरे मां, आराम के काम तुम करो. मेरा बॉस कितना खड़ूस है, आप नहीं जानतीं…’’
और परांठे चबाते हुए बोली,”सुपर मां के सुपर टेस्टी परांठे,’’ यह कहते-कहते दरवाज़े से बाहर हो फुर्ती से गाड़ी में जा बैठी.
यह लगभग रोज़ की दिनचर्या थी. शाम को घर लौटने पर भी वही शुरू हो जाता. कई बार भोर बहुत परेशान हो जाती.
“मां आप क्या यह निरात-निरात करती रहती हो?”
“अरे बेटा निरात रखना यानी थोड़ा धैर्य, थोड़ी शांति रखना. हर काम में उतावलापन ठीक नहीं होता… समझीं! और यह जो तुम्हारी जनरेशन है ना, इसे तो निरात रखने की विशेष आवश्यकता है… हर बात में उतावलापन है तुम लोगों में.”
“ऐसा नहीं है मां!’’ भोर ने विरोध करना चाहा.
“ऐसा ही है बेटा. सच बात तो यह है कि तुम्हारी जनरेशन को हर चीज़ में इंस्टेंट की आदत पड़ चुकी है… इसलिए आराम से पकाना, खाना, लिखना आत ही नहीं तुम लोगों को. तुम लोगों के सारे कामों में सिर्फ और सिर्फ़ उतावलापन रहता है…”

“ओ मां!आप भी ना…’’ भोर ने लड़ियाते हुए रागिनी से कहा,”चलो ठीक है, मगर अभी जो आपके हाथ की कढ़ी की ख़ुशबू आ रही है ना, मेथीदाने,अदरक और मीठी नीम की…! तो अब धीरज रखना ही नहीं मुझे. अब तो फटाफट खाना दे दो. दे दे मां, दे दे मां… भूखे को खाना दे दे मां…’’ भोर किसी भिक्षुक की भांति हाथ फैला कर बोलने लगी और रागिनी हंसते हुए किचन की ओर बढ़ गई.

रागिनी और भोर… घर में बस दोनों मां बेटी ही थी. भोर इकलौती थी और पिता का निधन कोई सात बरस पहले हो चुका था. मां बेटी दोनों की ट्यूनिंग बढ़िया थी. बस… ऐसी नोक-झोंक चलती रहती थी. बाक़ी सब तो ठीक था, बस रागिनी भोर के भविष्य के लिए चिंतित रहती और शादी डॉट कॉम जैसी साइट्स पर उसके लिए मैच खोजने के पीछे पड़ी रहती.
आज भी रात में भोजन समाप्त कर जैसे ही भोर अपना ऑफ़िस का काम करने लैपटॉप लेकर बैठी कि रागिनी बर्तन समेटना छोड़ उसके पास आ बैठी.
“बेटा…!’’ वह मनुहर वाले स्वर में बोली,‘‘ढूंढ़ ना ज़रा…”
“क्या मां?” अच्छी तरह जानते हुए भी भोर ने पूछा.
“अरे लड़का और क्या!” रागिनी ने किंचित नाराज़गी से कहा,” कब से कह रही हूं. क्या ज़िदगीभर यूं ही बैठे रहना है? शादी नहीं करनी क्या?”
“नहीं मां. ज़रूर करूंगी. एक्चुअली… यह देखो…’’ और उसने लैपटॉप हल्का-सा घुमाकर स्क्रीन रागिनी के आगे कर दी. एक सुदर्शन युवक की तस्वीर थी स्क्रीन पर.
रागिनी चौंकी,”कौन है यह…? अरे… अरे…और समझते ही अगले ही पल उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी की लहर दौड़ गई.
” कौन? क्या? कब?’’ जैसे कई सवाल उन्होंने एक साथ दाग दिए.
“अरे रुको-रुको मां बताती हूं…’’ हंसते हुए भोर अब उन्हीं की स्टाइल में बोली,”ज़रा आप भी धीरज रखो मां!’’
“अच्छा…!’’ रागिनी ने बनावटी ग़ुस्से से कहा और फिर दोनों हंस पड़ीं.
कुछ देर में भोर ने दोनों के लिए कॉफ़ी बनाई और आराम से सोफ़े पर बैठ विस्तार से सब बताने लगी.
“ये देवेश है मां. मेरा कलीग है. गुजराती है. घर में मां के अलावा कोई नहीं. इतने दिनों तक इसलिए रुकी थी कि उसे समझना चाहती थी. मेरी यही शर्त थी कि आप हमारे साथ रहोगी. पता है मां देवेश ने क्या कहा? उसने कहा,‘भोर, प्यार में शर्त मत रखो. तुम्हारी मम्मा मेरी भी ज़िम्मेदारी रहेंगी, जैसे मेरी मां तुम्हारी ज़िम्मेदारी रहेंगी. मुझे यक़ीन है हम दोनों मिलकर उन दोनों को संभाल लेंगे इसलिए कोई शर्त मत कहो.”
“मैं उसे कई महीनों से जानती हूं मां. वह बहुत पहले प्रपोज़ कर चुका था. मेरे दिल में भी उसके लिए सॉफ़्ट कॉर्नर है मां , पर मैं जल्दबाज़ी नहीं करना चाहती थी… इसलिए इतना समय लिया. परखना या आज़माना नहीं, बस समझना चाहती थी उसे.”
‘‘ओह, मेरी बच्ची… और बताओ, इतनी समझदार और धैर्य वाली और मैं सच्ची खामखा ही डांटती रहती हूं,” रागिनी ने उसे गले लगा लिया और बोली,‘‘कल घर ले आ उसे.’’
“कल नहीं मां, परसों. परसों सैटरडे है, छुट्टी है… तब.”
और दोनों कॉफ़ी समाप्त कर सोने चली गईं. दोनों के पास अपने-अपने सपने थे, जो पूरे होनेवाले थे.
सुबह जब भोर की नींद खुली तो चिड़ियों के चहचहाने की आवाज़ें आ रही थीं.
‘यह क्या? आज नींद ही नहीं खुली. ओह..शि.. ऑफ़िस के लिए लेट ना हो जाऊं… यह मां को क्या हुआ? अब तक तो कब का उठा देती हैं मुझे…” घड़ी पर नज़र डालते हुए यह सब सोचते-सोचते वह पलंग से उतर, पैरों में स्लीपर डालकर मां के कमरे की ओर चल दी.
“अरे मां! उसने बाहर से ही आवाज़ दी. आज क्या उठना नहीं है?’’ यह कहते हुए उसने हल्का-सा दरवाज़ा धकेला भीतर पहुंच उसने हैरानी से देखा.
‘मां इस वक़्त तक बिस्तर में…?’ पास पहुंचकर उसने मां को हिलाया.
वे अचेत थीं. एक पल की देरी किए बिना भोर ने एम्बुलेंस के लिए कॉल किया और देवेश को फ़ोन लगाया. और जितना समय एंबुलेंस आने में लगा बस इतने ही समय में भोर ने कुछ ज़रूरी सामान लिया, अलमारी में से रुपए निकालकर पर्स में डालें और तैयार हो गई. तब तक देवेश भी पहुंच गया. हॉस्पिटल पहुंचने पर पता चला कि अटैक था. डॉक्टरों ने उससे कहा,’बहुत सही समय पर पेशेंट अस्पताल पहुंच गया था… थोड़ी और देर हो जाती तो…’ भोर सिहर रही थी इस बात की कल्पना से भी.
अगले तीन दिन कुछ तनाव वाले थे. लेकिन सही समय पर, सही हाथों में पहुंचने से तनाव काफ़ी हद तक कम था. इन दिनों देवेश ने पूरी तरह अपना पुत्र सम दामाद वाला धर्म निभाया.
आज रागिनी डिस्चार्ज होकर घर जानेवाली थी.उसे लेने होनेवाले दामाद के साथ समधन भी आई थीं. रागिनी निहाल हो जानेवाली नजरों से भोर और देवेश को देख रही थी. फिर उसने अपनी समधन की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़ लिए,”बहुत आभारी हूं बहन जी! जिस तरह देवेश तुरंत आ गया, मेरी देखभाल की… बस, अब तो मैं चाहती हूं जल्दी से बेटी के हाथ पीले कर दूं. ज़िंदगी की शाम है. पता नहीं कब ठाकुर जी का बुलावा…’’
“ऐसा नहीं है मां!’’ देवेश ने उनकी बात काटकर,आगे बढ़कर उनके कांपते हाथों को थाम लिया,”आप पूरी तरह स्वस्थ हो जाएं फिर बाक़ी सब बातें बाद में…”
“और क्या मां!’’ भोर ने लाड़ से कहा,”आप हमेशा मुझे कहती हो न कि निरात रख…!
अब आपको निरात रखनी है. न शादी की जल्दी… न ठाकुर जी के पास जाने की…’’
और तीनो की हंसी मे रागिनी भी शामिल हो गई.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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