बहुत ही कम उम्र में, एक दुर्घटना में उनके पति गुज़र गए. बच्चों के साथ जीवन को अकेले गुज़ारना आसान तो बिल्कुल नहीं है. पति के न होने का ग़म शुरुआत में बहुत हावी होता रहा. फिर अपने ही मन को मथकर प्रसून भार्गव ने सोचा कि क्या ज़रूरी है कि जानेवाले को याद करके सिर्फ़ रोया ही जाए? उनकी हंसीं यादों को संबल बनाकर मुस्कुराते हुए जिया भी तो जा सकता है! कैसे ग्रैजुअली उन्होंने ख़ुद को समझाया यह बात आप उनकी डायरी के इन पन्नों से गुज़रते हुए जानिए, जिन्हें उन्होंने हमारे साथ साझा किया है.
‘‘पहला फ़ोन इनके दुर्घटनाग्रस्त होने की ख़बर लाया था. आधे घंटे बाद दोबारा फ़ोन घनघनाया तो मृत्यु की सूचना दे गया. हाथ में फ़ोन पकड़े, वहीं की वहीं जैसे जम गई. सारी चेतना जैसे एक ही बार में लुप्त हो गई. बार-बार लगता कि कोई इतनाभर कह दे कि यह झूठ है.
‘‘दुर्घटना कलकत्ता में हुई थी. तुरंत सुबह की फ़्लाइट पकड़ कलकत्ता गए थे. तेरह दिन कैसे गुज़रे, किस दुनिया में रही कुछ याद नहीं. सोचने पर एक चलचित्र का नज़ारा-सा आता है. पंद्रह दिन बाद हम वापस बंबई आ गए थे. मैं और दोनों बेटे साथ रहकर भी जैसे एक-दूसरे की आवाज़ को तरस जाते. साथ रहकर भी एकांत और नीरवता का एहसास मन को जकड़े था. कभी कोई बोलता तो अपनी ही आवाज़ कोसों दूर से आती-सी लगती. रह-रहकर एक ही भाव मन में उभरता था-अब क्या होगा? आर्थिक संकट नहीं था, फिर भी मन को संवेदनात्मक कुंठाओं का जाला बना गुत्थियां-सी उलझने लगी थीं. न कहीं जाने को इच्छा होती, न किसी का आना अच्छा लगता था. कोई आता तो लगता जैसे मुझे देखने आया है. कहीं जाती तो लगता कि सबकी नज़रें मेरे ऊपर हैं. एक अनचाहा अपराधबोध सालने लगा था.
‘‘धीरे-धीरे देखा कि मेरे इस तरह के व्यवहार से बच्चों का आत्मविश्वास डगमगाने लगा है. मेरे उदास चेहरे से बचने के लिए वे घर से बाहर रहना ज़्यादा पसंद करने लगे हैं. बच्चों को मां से पूरी हमदर्दी होती है, लेकिन मां का कमज़ोर होना बच्चों को, विशेषकर लड़कों को अच्छा नहीं लगता. मां की सुदृढ़ता बच्चों को सुरक्षात्मक भाव प्रदान करती है. अब एक तरफ़ बच्चों का भविष्य था तो दूसरी ओर क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए की दुविधा थी. आंखों से बहते आंसुओं के बीच भी मन तर्क-वितर्क में डूबता-उतराता रहता था. अतीत की यादें और भविष्य के ताने-बाने मन पर छाए रहते थे. अचानक एक दिन मन में प्रश्न उठा- क्या वाक़ई हम जानेवाले के लिए रोते हैं? किसी प्रिय के चले जाने का ख़ालीपन तो आजीवन रहता है तो क्यों कोई भी आजीवन नहीं रोता? संभवत: पिता या पति की मृत्यु के कारण पत्नी व बच्चों को अनेक मानसिक, भौतिक तथा आर्थिक अभावों का सामना करना पड़ता है, जो एक विवशता है और आंसू विवशता की स्थिति में सहज ही निकल पड़ते हैं. तब मुझे लगा यह तो स्वार्थ है. जानेवाले के लिए सदा रोना ही क्यों? उन यादों को उसकी बातों को याद कर के मुस्कुराया भी तो जा सकता है.
‘‘चिंतन, विवेचना से मन हल्का हो गया. स्वार्थ को समेटा, व्यस्त हो जाने की योजना बनाई. मुंबई शहर में काम की कमी नहीं है. इच्छाशक्ति होनी चाहिए, बस. विज्ञापन कंपनी में एक नौकरी के लिए आवेदन दिया. साक्षात्कार के लिए जाते समय अचानक आंखें डबडबा आईं. बिना बिंदी और काजल के अपना ही चेहरा अजनबी-सा लगा. सारा मनोबल फिर टूटने लगा. लेकिन दो मिनट बाद ही आत्मविश्वास के साथ एक निर्णय लिया. बिंदी लगाई, मंगलसूत्र पहना और अपना चेहरा ठीक किया. सोचा- जो छोटी-छोटी बातें मेरे मन को संबल और शक्ति प्रदान कर रही हैं, उन्हें छोड़ देने की क्या कोई ज़रूरत भी है? किसी की आलोचना का डर या समाज की नज़रों का भय आख़िर क्यों? दूसरों के कहने-सुनने के साथ मेरी व्यक्तिगत बातों का क्या ताल्लुक़?
‘‘मुझे अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीनी थी. सामान्य व सही तरीक़े से जीनी थी. अपने इर्द-गिर्द के लोगों के साथ मिलकर रहना था. अन्यथा कुंठित मन अथवा अभावों का मारा मन दूसरों के सुख से ईर्ष्या कर उठेगा. जो चला गया, वो मेरा अपना अभाव है, उस एक अभाव के कारण अनेक अभावों को सहते जाना था. ख़ुशियों से अलग रहना नारी की नकारात्मक सोच है. मनुष्य वर्तमान में जीता है. भविष्य कोई जानता नहीं. अतीत हर पल याद नहीं रहता इसलिए वर्तमान के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाना मन की गहरी से गहरी गांठें भी खोल देता है. आज मैं जिस परिस्थिति में भी हूं, आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ सर्वाधिक आनंद इस बात से मिलता है कि मेरे प्रियजन मेरी ख़ुशियों से ख़ुश हैं, मेरी सफलता से संतुष्ट हैं. उनके ये भाव मेरी मुस्कान को और भी गहरा कर देते हैं.’’
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट