गांधी जयंती पर महात्मा गांधी को याद करने की होड़-सी चल पड़ती है. नारे लगाए जाते हैं, बैनर बनाए जाते हैं, जुलूस निकाले जाते हैं और अब तो स्वच्छता को लेकर प्रयास भी किए जाते हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या हमने अपने जीवन में गांधी की नैतिकता को उतारा है या फिर बस एक दिन उन्हें याद करके हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं? उनके प्रति हमारे दोगलेपन को उजागर करती और कुछ सवालों के जवाब तलाशती है यह कविता
तुम अच्छे शिक्षक नहीं हो
शिक्षक तो
अभय देता है
किंतु
तुम्हारे डर से
हम लोग
पूरा देश साफ़ करने पर
पिल पड़े हैं
तुमने तो
आंतरिक स्वच्छता
पर ज़ोर दिया था
भीतर
हिंसा घृणा ईर्ष्या घमंड
की गंदगी तो
दिन दूनी बढ़ रही है
स्वच्छता अभियान
उसे छूकर भी नहीं गुज़रा
और हम
बेचारे तुम्हारे शिष्य(?)
झाड़ू लेकर कूद पड़े
घंटे भर के लिए
तुम अच्छे शिक्षक नहीं हो
इसीलिए हम लोग
अवसर पाते ही
गालियों और गोलियों से
नवाज़ते हैं तुम्हें
तुम अहिंसा अहिंसा
रटते रहे
हम नित नए हथियार
जुटाते रहे
आज हम अकेले
पूरी धरती का
नाश करने का
सामर्थ्य रखते हैं
फिर भी
तुमसे डरते हैं
डरता तो वह भी था
जिसके राज में
सूरज नहीं डूबता था
हमारा सूरज तो
तुम्हारे बाद
ठीक से उगा भी नहीं
दरअसल
तुम जीवन भर
सीखते ही रहे
सिखाना तो तुम्हें
आया ही नहीं
इसलिए
तुम अच्छे शिक्षक
नहीं बन पाए
अबकि बार
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में
जुड़ जाइएगा
हो सकता है
आपका भी
उद्धार हो जाए
पर अब
बराए मेहरबानी
हमें डराइए नहीं
अभय दीजिए
कि आपकी ही तरह
सर्वशक्तिमान सत्ता को
सिर तानकर
चुनौती दे सकें
ग़लत को ग़लत
सही को सही कह सकें
बाहर की सफ़ाई के साथ
भीतर की
सड़नभरी गंदगी पर भी
बिना फोटू ख़िंचवाए
झाड़ू फिरा सकें
और तुम्हारी तरह
पवित्र मुस्कान लिए
निश्छल होकर गा सकें
वैष्णव जन तो
तेने कहिए जे…
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट