भारत ही क्या दुनिया के हर समृद्ध कोने के पीछे विस्थापित मज़दूरों की मेहनत है. कवि अरुण चन्द्र रॉय अपनी कविता ‘पर्स में रखी तुम्हारी तस्वीर’ में एक विस्थापित मज़दूर की कहानी कहते हैं.
जब
थक जाती हैं
बांहें
ख़ुद से दुगुना वज़न
उठाते-उठाते
और कंधे
मना कर देते हैं
देने को संबल
लेकिन फिर भी
जलते सूरज के नीचे
पूरी करनी होती है
दिहाड़ी,
देख लेता हूं
पर्स में रखी तुम्हारी
तस्वीर तुम्हारी
जब
भरी दुपहरी में
कंक्रीट के अजनबी शहर में
थक जाते हैं क़दम
ढूंढ़ते ढूंढ़ते
नया पता
लेकिन
पहुंचना होता है ज़रूरी
उस अधूरे पते पर,
देख लेता हूं
पर्स में रखी
तस्वीर तुम्हारी
जब
थका-हारा
तन सोना चाहता है
लेकिन
मन
रहना चाहता है
स्मृतियों में
जगे रहना
तुम्हारे साथ,
देख लेता हूं
पर्स में रखी
तस्वीर तुम्हारी
तुम्हारी तस्वीर
के साथ होती है
तुम्हारी हंसी,
साथ देखे सपने,
और ज़री वाली साड़ी
जो तुमने लाने को कहा था
छोड़ते समय गांव
पर्स में रखी
तुम्हारी तस्वीर
है मेरी ऊर्जा
और इस अजनबी शहर में
अंतिम ठौर
बस
तस्वीर तुम्हारी
समझती है
अपनों के बीच दूरी
और
दर्द विस्थापन का
Illustration: Pinterest