हमारे देश का हर व्यक्ति श्री राम में आस्था रखता है, पर सियासत ने ऐसी चाल चली कि न जाने कब सबके राम अलग-अलग हो गए. अपने करुणा निधान राम के लोगों के मन मंदिर से निकल जाने, उनके सौम्य व्यवहार और मुख मंडल को रौद्र रूप में बदल दिए जाने का दुख इस कविता में झलकता है.
राम मेरे पूज्य हैं,
लेकिन तुम,
मेरे राम को नहीं पहचानते.
मेरे राम का चेहरा
इतना मानवीय है
कि उन्हें अपनाकर मैंने
अभिवादन के लिए
सीखा है बोलना
राम-राम!
अब के दौर में
परंपराएं बदल रही हैं
राम का नाम तो अब भी
सबकी ज़ुबान पर है
लेकिन साथ ही दबा रखा है उन्होंने
अपनी बगल में चाकू.
यह देखकर भी मेरे मुंह से निकला वही नाम
राम-राम!
लेकिन इस बार मेरे स्वर में अभिवादन नहीं था
बल्कि अजब सी घृणा थी.
सच कहूं
घृणा करना
मुझे मेरे राम ने नहीं सिखाया था.
यह तो बदलते वक़्त का असर है
कि राम हों या हनुमान
सबका चेहरा बदल रहा है
मेरे राम बलशाली और रक्षक थे
हनुमान सौम्य और रामभक्त थे
पर अब के राम सिर्फ़ शासक हैं
और हनुमान बल के पर्याय
अब जब जय श्रीराम या
जय हनुमान के नारे लगते हैं
तो आस्था नहीं पैदा होती
डर पैदा होता है.
मुझे माफ़ करना मेरे राम,
मैं तुम्हें बुत बनते नहीं देख सकता.
मैं तो तुम्हें अपने भीतर
ऊर्जा की तरह पाना चाहता हूं
मगर पाता हूं कि मेरे भीतर
एक डरे-सहमे राम हैं
मेरे भीतर ख़ुद को कैद समझकर
गुर्राते हुए हनुमान हैं.
ऐसे में मेरे मुंह से
फिर निकलता है तुम्हारा नाम
हे राम!
लेकिन महसूस करता हूं
कि इस स्वर में
आस्था नहीं अफ़सोस है
सचमुच राम,
हो सके तो मुझे माफ़ करना,
इन दिनों मैं शायद काफ़िर हो चला हूं
तुम्हें नहीं कर पाता अब याद
क्षीण हो रही है मेरी भक्ति
नहीं मिल पाती तुमसे
कोई शक्ति.
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कवि: अनुराग अन्वेषी
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट