बचपन अपने रास्ते तलाश लेता है. हर हाल में ख़ुशियों के लम्हे जुगाड़ लेता है. आलोक धन्वा की यह छोटी-सी कविता बीते हुए समय के ख़ूबसूरत लम्हों को याद करती है.
घरों के भीतर से जाते थे हमारे रास्ते
इतने बड़े आंगन
हर ओर बरामदे ही बरामदे
जिनके दरवाज़े खुलते थे गली में
उधर से धूप आती थी दिन के अंत तक
और वे पेड़
जो छतों से घिरे हुए थे इस तरह कि
उन पेड़ों पर चढ़कर
किसी भी छत पर उतर जाते
थे जब हम बंदर से भी ज़्यादा बंदर
बिल्ली से भी ज़्यादा बिल्ली
हम थे कल गलियों में
बिजली के पोल को
पत्थर से बजाते हुए
Illustration: Pinterest