सियासत में जब भेड़ चाल में आवाम को चलाए जाने की बात होती है या फिर रिश्तों में सही-गलत या अच्छे-बुरे को बताने की बात होती है, तब केवल कुछ ही लोग सच के साथ खड़े हो पाते हैं. सच के साथ खड़ा होना हर बार, हर दौर में मुश्क़िल तो होता ही है, लेकिन उसका हमारी रीढ़ की हड्डी से भी सीधा संबंध है, जो इस कविता में दर्शाया गया है.
आसान होता है
सुनहरे झूठ का लिबास ओढ़कर
उसे अच्छाई बताना
और
बरगला देना दुनिया को
अपनी चकाचौंध से,
बने रहना
सबकी आंखों का तारा…
अक्सर
जब कई बातों को लेकर
अधिकतर लोगों ने
झाड़ लिया अपना पल्ला
कुछ लोग
काटों की तरह चुभने वाले
सच के कीड़े को
साथ लिए
तनकर खड़े रहे
भले ही होते रहे
उसके कांटों से लहूलुहान…
जब काट लेता है
सच का कीड़ा और
रिसता रहता है
उसकी चुभन से लहू
तब राह दुष्कर हो जाती है
जीना दूभर हो जाता है,
पर
मस्तक ऊंचा उठ जाता है
रीढ़ की हड्डी
बनी रहती है जगह पर
और
इतना काफ़ी होता है
इंसान की तरह जीने को.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट