लोकतंत्र में जनता को ख़ुश करने का एक ज़रिया है. जिस लोकतंत्र को जनता अपनी जीत समझती है, उस लोकतंत्र के कर्ताधर्ता उसे अपने काम आनेवाले सामान की तरह मानते हैं. लोगों की यह ग़लतफ़हमी बनी रहती है कि वे चुनावी मौसम का इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए कर रहे हैं.
वह ट्रेन में चढ़ गया था
उसे उतार लिया गया
उसका सामान दूसरे डिब्बे में था
वह डिब्बा किसी अनजाने स्टेशन पर
कट गया
वह शख़्स कहीं और था
उसका सामान कहीं और
उससे कहा गया
घर बैठे
उतनी ही मज़दूरी देंगे
और पीने को दारू
बस, मतदान के दिन पहुंच कर
वोट पंजे पर देना है
लौटे नहीं
बालाघाट के मज़दूर
दीवाली पहले जो गए थे
हर बरस इसी तरह
होने चाहिए चुनाव
सामान क्या था?
ओढ़ने-बिछाने की एक सदरी
कुछ टाट-टप्पड़
और दो धोतियां, दो-तीन कमीज़ें
पायज़ामा और एक पतीली
जिसमें ठूंस-ठूंस कर भर दिए
सत्तू, चावल, प्याज
चलो, भाई, चलो
तुम्हें ही देते हैं वोट
ठेकेदार को, तो देख लेंगे बाद में
जाना तो पड़ेगा, लेकिन जितनी गरज हमारी है, उसकी भी तो उतनी ही है
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