मनुष्य द्वारा स्वयं को इस दुनिया का नियंता समझने की ग़लतफ़हमी को दूर करती यह कविता बताती है कि इस संपूर्ण विश्व में हम कितने छोटे से हैं. हमें उन नियमों का पालन करना ही चाहिए, जिनके बल पर यह दुनिया चल रही है. कविता का भावार्थ यह है कि हम अपनी शक्तियों की तलाश करने के बजाय अपनी दुर्बलता को पहचान लें तो कहीं ज़्यादा ख़ुश रह पाएंगे.
साथी, सब कुछ सहना होगा!
मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
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