शब्द ज़ख्म हैं, शब्द मरहम भी. शब्द सुकून हैं, शब्द नश्तर भी. शब्द मजबूरी हैं और शब्द ग़ैरज़रूरी भी. शब्दों की इसी भूलभुलैया पर ले चलती है स्वप्ना मित्तल की यह कविता.
ये शब्दों की कोई चाल है
या शब्दों का जाल है
कोई नश्तर है शायद
जो चीर जाता है अंतरमन को
पड़ा रहता है लहूलुहान होकर
देखता है सब ओर
कि कुछ मरहम के शब्द पड़ें उन पर
और कुछ क्षण का विश्राम दे
कैसा ब्रह्म जाल है ये शब्दों का
क्यूं भागते हैं हम मृगतृष्णा से इधर-उधर
तिलिस्मी शब्द माया का
या भूल भुलैया है ये शब्दों की
जो हम जितना उतरते हैं
उतना फंसते चले जाते हैं
एक ज़रा प्रेम का स्पर्श मिला तो उसके हो गए
अपमान के दो बोल
सदियों तक फिर उस और ना देखने का प्रण बन जाते हैं
क्यूं ना इन शब्दों से विद्रोह करके
उस मौन की ओर चला जाए
उस परब्रह्म, उस प्रेम के सागर की ओर चलें
उस नाद की और बढ़ें
उस परम ध्वनि, परम ऊर्जा की और चलें
जो आतुर है हमें अपने में सामने के लिए
भगवान शिव की नगरी उज्जैन की स्वप्ना मित्तल एक योग टीचर हैं. इंग्लिश लिटरेचर में एमए हैं और मन की भावनाओं को हिंदी कविता के माध्यम से व्यक्त करती हैं. स्वप्ना को रीडिंग और कुकिंग का शौक़ है.
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