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सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है: रामधारी सिंह दिनकर की कविता

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 29, 2022
in कविताएं, बुक क्लब
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आपातकाल के विरोध में लिखी रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’ बेहद चर्चित रही थी. आज भी तानाशाही पर उतर आनेवाले शासकों को जनता की यह चेतावनी गाहे-बगाहे दी जाती रही है.

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है

जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली

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जनता? हां, लम्बी-बड़ी जीभ की वही कसम
जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है
सो ठीक, मगर, आख़िर, इस पर जनमत क्या है?
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में

लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं

सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुंचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो

आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है

Illustration: Pinterest

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