प्यार में हमेशा पाना ही सबकुछ नहीं होता. प्रेम में त्याग की भी अपनी जगह और ख़ूबसूरती है. यह कहानी है एक कुंवर और एक ऐक्ट्रेस के प्यार की अधूरी, पर पूरी-सी प्रेम कहानी.
1
रंगमंच का परदा गिर गया. तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था. जिस वक़्त वह शकुंतला के रूप में राजा दुष्यन्त के सम्मुख खड़ी ग्लानि, वेदना, और तिरस्कार से उत्तेजित भावों को आग्नेय शब्दों में प्रकट कर रही थी, दर्शक-वृन्द शिष्टता के नियमों की उपेक्षा करके मंच की ओर उन्मत्तों की भांति दौड़ पड़े थे और तारादेवी का यशोगान करने लगे थे. कितने ही तो स्टेज पर चढ़ गए और तारादेवी के चरणों पर गिर पड़े. सारा स्टेज फूलों से पट गया, आभूषणें की वर्षा होने लगी. यदि उसी क्षण मेनका का विमान नीचे आ कर उसे उड़ा न ले जाता, तो कदाचित उस धक्कम-धक्के में दस-पांच आदमियों की जान पर बन जाती. मैनेजर ने तुरन्त आकर दर्शकों को गुण-ग्राहकता का धन्यवाद दिया और वादा भी किया कि दूसरे दिन फिर वही तमाशा होगा. तब लोगों का मोहान्माद शांत हुआ. मगर एक युवक उस वक़्त भी मंच पर खड़ा रहा. लम्बे क़द का था, तेजस्वी मुद्रा, कुन्दन का-सा देवताओं का-सा स्वरूप, गठी हुई देह, मुख से एक ज्योति-सी प्रस्फुटित हो रही थी. कोई राजकुमार मालूम होता था.
जब सारे दर्शकगण बाहर निकल गए, उसने मैनेजर से पूछा-क्या तारादेवी से एक क्षण के लिए मिल सकता हूं?
मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से कहा-हमारे यहां ऐसा नियम नहीं है.
युवक ने फिर पूछा-क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते हैं?
मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से कहा-जी नहीं. क्षमा कीजिएगा. यह हमारे नियमों के विरुद्ध है.
युवक ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने पूछा-ज़रा ठहर जाइए, आपका कार्ड?
युवक ने जेब से कागज़ का एक टुकड़ा निकल कर कुछ लिखा और दे दिया. मैनेजर ने पुर्जे को उड़ती हुई निगाह से देखा-कुंवर निर्मलकान्त चौधरी ओ. बी. ई.. मैनेजर की कठोर मुद्रा कोमल हो गई. कुंवर निर्मलकान्त-शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकेदार, साहित्य के उज्जवल रत्न, संगीत के सिद्धहस्त आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस लाख सालाना के नफेदार, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाएं चलती थीं-इस समय एक क्षुद्र प्रार्थी के रूप में खड़े थे. मैनेजर अपने उपेक्षा-भाव पर लज्जित हो गया. विनम्र शब्दों में बोला-क्षमा कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ. मैं अभी तारादेवी के पास हुजूर का कार्ड लिए जाता हूं.
कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा-नहीं, अब रहने ही दीजिए, मैं कल पांच बजे आऊंगा. इस वक़्त तारादेवी को कष्ट होगा. यह उनके विश्राम का समय है.
मैनेजर-मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतना कष्ट सहर्ष सह लेंगी, मैं एक मिनट में आता हूं.
किन्तु कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपनी आतुरता पर संयम का परदा डालने के लिए विवश थे. मैनेजर को सज्जनता का धन्यवाद दिया. और कल आने का वादा करके चले गए.
2
तारा एक साफ़-सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी. रात का वह दृश्य उसकी आंखों के सामने नाच रहा था. ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं? कितने मनुष्य उसके दर्शनों के लिए विकल हो रहे हैं? बस, एक-दूसरे पर फाट पड़ते थे. कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था-हां, ठुकरा दिया था. मगर उस समूह में केवल एक दिव्यमूर्ति अविचलित रूप से खड़ी थी. उसकी आंखों में कितना गम्भीर अनुराग था, कितना दृढ़ संकल्प! ऐसा जान पड़ता था मानों दोनों नेत्र उसके हृदय में चुभे जा रहे हों. आज फिर उस पुरुष के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है. लेकिन यदि आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किए बिना न जाने देगी.
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नव-विकसित पुष्प तैंतीस बसंतों की बहार देख चुका है. वह कांति, वह कोमलता, वह चपलता, वह माधुर्य किसी नवयौवना को लज्जित कर सकता था. तारा एक बार फिर हृदय में प्रेम दीपक जला बैठी. आज से बीस साल पहले एक बार उसको प्रेम का कटु अनुभव हुआ था. तब से वह एक प्रकार का वैधव्य-जीवन व्यतीत करती रही. कितने प्रेमियों ने अपना हृदय उसको भेंट करना चाहा था; पर उसने किसी की ओर आंख उठाकर भी न देखा था. उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी. मगर आह! आज उसका संयम उसके हाथ से निकल गया. एक बार फिर आज उसे हृदय में उसी मधुर वेदना का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था. एक पुरुष का सौम्य स्वरूप उसकी आंखों में बस गया, हृदय पट पर खिंच गया. उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी. उसी पुरुष को उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो कदाचित उधर ध्यान भी न करती. पर उसे अपने सम्मुख प्रेम का उपहार हाथ में लिए देखकर वह स्थिर न रह सकी.
सहसा दाई ने आकर कहा-बाई जी, रात की सब चीज़ें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊं?
तारा ने कहा-नहीं, मेरे पास चीज़ें लाने की ज़रूरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीज़ें हैं.
‘एक ढेर का ढेर तो लगा है बाई जी, कहां तक गिनाऊं-अशर्फियां हैं, ब्रूचेज बाल के पिन, बटन, लाकेट, अंगूठियां सभी तो हैं. एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है. मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा. सब संदूक में रख दिया है.’
‘अच्छा, वह संदूक मेरे पास ला.’ दाई ने सन्दूक लाकर मेज रख दिया. उधर एक लड़के ने एक पत्र लाकर तारा को दिया. तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से देखा-कुंवर निर्मलकान्त ओ. बी. ई.. लड़के से पूछा-यह पत्र किसने दिया. वह तो नहीं, जो रेशमी साफा बांधे हुए थे?
लड़के ने केवल इतना कहा-मैनेजर साहब ने दिया है. और लपका हुआ बाहर चला गया.
संदूक में सबसे पहले डिब्बा नज़र आया. तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था. डिब्बे में एक तरफ़ एक कार्ड भी था. तारा ने लपक कर उसे निकाल लिया और पढ़ा-कुंवर निर्मलकान्त…. कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा. वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़े वेग से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गई. मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला-मैं रात की सफलता पर आपको बधाई देता हूं.
तारा ने खड़े-खड़े पूछा-कुंवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का पत्र दे कर भाग गया. मैं उससे कुछ पूछ न सकी.
‘कुंवर साहब का रुक्का तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मिला था.’
‘तो आपने उसी वक़्त मेरे पास क्यों न भेज दिया?’
मैनेजर ने दबी जबान से कहा-मैंने समझा, तुम आराम कर रही होगी, कष्ट देना उचित न समझा. और भाई, साफ़ बात यह है कि मैं डर रहा था, कहीं कुंवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बैठूं. अगर मैं औरत होता, तो उसी वक़्त उनके पीछे हो लेता. ऐसा देवरूप पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा. वही जो रेशमी साफा बांधे खड़े थे तुम्हारे सामने. तुमने भी तो देखा था.
तारा ने मानो अर्धनिद्रा की दशा में कहा-हां, देखा तो था-क्या यह फिर आएंगे?
हां, आज पांच बजे शाम को. बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस.’
‘आज मैं रिहर्सल में न आऊंगी.’
3
कुंवर साहब आ रहे होंगे. तारा आईने के सामने बैठी है और दाई उसका श्रृंगार कर रही है. श्रृंगार भी इस ज़माने में एक विद्या है. पहले परिपाटी के अनुसार ही श्रृंगार किया जाता था. कवियों, चित्रकारों और रसिकों ने श्रृंगार की मर्यादा-सी बांध दी थी. आंखों के लिए काजल लाजमी था, हाथों के लिए मेंहदी, पांव के लिए महावर. एक-एक अंग एक-एक आभूषण के लिए निर्दिष्ट था. आज वह परिपाटी नहीं रही. आज प्रत्येक रमणी अपनी सुरुचि सुबुद्वि और तुलनात्मक भाव से श्रृंगार करती है. उसका सौंदर्य किस उपाय से आकर्षकता की सीमा पर पहुंच सकता है, यही उसका आदर्श होता हैं तारा इस कला में निपुण थी. वह पन्द्रह साल से इस कम्पनी में थी और यह समस्त जीवन उसने पुरुषों के हृदय से खेलने ही में व्यतीत किया था. किस चिवतन से, किस मुस्कान से, किस अंगड़ाई से, किस तरह केशों के बिखेर देने से दिलों का कत्लेआम हो जाता है; इस कला में कौन उससे बढ़ कर हो सकता था! आज उसने चुन-चुन कर आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने अस्त्रों से सज कर वह दीवानखाने में आई, तो जान पड़ा मानों संसार का सारा माधुर्य उसकी बलाएं ले रहा है. वह मेज के पास खड़ी होकर कुंवर साहब का कार्ड देख रही थी, उसके कान मोटर की आवाज़ की ओर लगे हुए थे. वह चाहती थी कि कुंवर साहब इसी वक़्त आ जाएं और उसे इसी अन्दाज से खड़े देखें. इसी अन्दाज़ से वह उसके अंग प्रत्यंगों की पूर्ण छवि देख सकते थे. उसने अपनी श्रृंगार कला से काल पर विजय पा ली थी. कौन कह सकता था कि यह चंचल नवयौवन उस अवस्था को पहुंच चुकी है, जब हृदय को शांति की इच्छा होती है, वह किसी आश्रम के लिए आतुर हो उठता है, और उसका अभिमान नम्रता के आगे सिर झुका देता है.
तारा देवी को बहुत इन्तजार न करना पड़ा. कुंवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी उत्सुक थे. दस ही मिनट के बाद उनकी मोटर की आवाज़ आई. तारा संभल गई. एक क्षण में कुंवर साहब ने कमरे में प्रवेश किया. तारा शिष्टाचार के लिए हाथ मिलाना भी भूल गई, प्रौढ़ावस्था में भी प्रेमी की उद्विग्नता और असावधानी कुछ कम नहीं होती. वह किसी सलज्जा युवती की भांति सिर झुकाए खड़ी रही.
कुंवर साहब की निगाह आते ही उसकी गर्दन पर पड़ी. वह मोतियों का हार, जो उन्होंने रात को भेंट किया था, चमक रहा था. कुंवर साहब को इतना आनन्द और कभी न हुआ. उन्हें एक क्षण के लिए ऐसा जान पड़ा मानों उसके जीवन की सारी अभिलाषा पूरी हो गई. बोले-मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट दिया, क्षमा कीजिएगा. यह तो आपके आराम का समय होगा? तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को संभाल कर कहा-इससे ज़्यादा आराम और क्या हो सकता कि आपके दर्शन हुए. मैं इस उपहार के लिए और क्या आपको मनों धन्यवाद देती हूं. अब तो कभी-कभी मुलाक़ात होती रहेगी?
निर्मलकान्त ने मुस्कराकर कहा-कभी-कभी नहीं, रोज. आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस डयोढ़ी पर सिर को झुका ही जाऊंगा.
तारा ने भी मुस्करा कर उत्तर दिया-उसी वक़्त तक जब तक कि मनोरंजन की कोई नई वस्तु नज़र न आ जाए! क्यों?
‘मेरे लिए यह मनोरंजन का विषय नहीं, ज़िंदगी और मौत का सवाल है. हां, तुम इसे विनोद समझ सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीं. तुम्हारे मनोरंजन के लिए मेरे प्राण भी निकल जाएं, तो मैं अपना जीवन सफल समझूंगा.
दोनों तरफ़ से इस प्रीति को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल भोज का न्योता दे कर कुंवर साहब विदा हुए.
4
एक महीना गुजर गया, कुंवर साहब दिन में कई-कई बार आते. उन्हें एक क्षण का वियोग भी असह्य था. कभी दोनों बजरे पर दरिया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पार्कों में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना होता, नित्य नये प्रोग्राम बनते थे. सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुंवर साहब को फांस लिया और दोनों हाथों से सम्पत्ति लूट रही है. पर तारा के लिए कुंवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पत्ति थी, जिसके सामने दुनिया-भर की दौलत देय थी. उन्हें अपने सामने देखकर उसे किसी वस्तु की इच्छा न होती थी.
मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाज़ार में घूमने पर भी तारा को वह वस्तु न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा लोलुप हो रही थी. वह कुंवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निष्कपट प्रेम की बातें रोज सुनती थी, पर उसमें ‘विवाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाज़ार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिलता हो. ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज से तृप्ति हो सकती है? प्यास बुझाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ़ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे मूल्यवान पदार्थ है. वह जानती थी कि कुंवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे देंगे, लेकिन विवाह की बात क्यों उनकी जबान से नहीं मिलती? क्या इस विष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह देना सम्भव था? फिर क्या वह उसको केवल विनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा जाएगा. कुंवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था. किसी शौक़ीन रईस के साथ वह इससे कुछ दिन पहले शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर अपनी राह लेती. किन्तु प्रेम का बदला प्रेम है, कुंवर साहब के साथ वह यह निर्लज्ज जीवन न व्यतीत कर सकती थी.
उधर कुंवर साहब के भाई बन्द भी गाफ़िल न थे, वे किसी भांति उन्हें ताराबाई के पंजे से छुड़ाना चाहते थे. कहीं कुंवर साहब का विवाह ठीक कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने की आशा थी और यही उन लोगों ने किया. उन्हें यह भय तो न था कि कुंवर साहब इस ऐक्ट्रेस से विवाह करेंगे. हां, यह भय अवश्य था कि कहीं रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दें, या उसके आने वाले बच्चों को रियासत का मालिक बना दें. कुंवर साहब पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे. यहां तक कि योरोपियन अधिकारियों ने भी उन्हें विवाह कर लेने की सलाह दी. उस दिन संध्या समय कुंवर साहब ने ताराबाई के पास जाकर कहा-तारा, देखो, तुमसे एक बात कहता हूं, इनकार न करना. तारा का हृदय उछलने लगा. बोली-कहिए, क्या बात है? ऐसी कौन वस्तु है, जिसे आपकी भेंट करके मैं अपने को धन्य समझूं?
बात मुंह से निकलने की देर थी. तारा ने स्वीकार कर लिया और हर्षोन्माद की दशा में रोती हुई कुंवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी.
5
एक क्षण के बाद तारा ने कहा-मैं तो निराश हो चली थी. आपने बढ़ी लम्बी परीक्षा ली.
कुंवर साहब ने जबान दांतों-तले दबाई, मानो कोई अनुचित बात सुन ली हो!
‘यह बात नहीं है तारा! अगर मुझे विश्वास होता कि तुम मेरी याचना स्वीकार कर लोगी, तो कदाचित पहले ही दिन मैंने भिक्षा के लिए हाथ फैलाया होता, पर मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीं पाता था. तुम सदगुणों की खान हो, और मैं…मैं जो कुछ हूं, वह तुम जानती ही हो. मैंने निश्चय कर लिया था कि उम्र भर तुम्हारी उपासना करता रहूंगा. शायद कभी प्रसन्न हो कर तुम मुझे बिना मांगे ही वरदान दे दो. बस, यही मेरी अभिलाषा थी! मुझमें अगर कोई गुण है, तो यही कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं. जब तुम साहित्य या संगीत या धर्म पर अपने विचार प्रकट करने लगती हो, तो मैं दंग रह जाता हूं और अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हो जाता हूं. तुम मेरे लिए सांसारिक नहीं, स्वर्गीय हो. मुझे आश्चर्य यही है कि इस समय मैं मारे ख़ुशी के पागल क्यों नहीं हो जाता.’
कुंवर साहब देर तक अपने दिल की बातें कहते रहे. उनकी वाणी कभी इतनी प्रगल्भ न हुई थी!
तारा सिर झुकाए सुनती थी, पर आनंद की जगह उसके मुख पर एक प्रकार का क्षोभ-लज्जा से मिला हुआ-अंकित हो रहा था. यह पुरुष इतना सरल हृदय, इतना निष्कपट है? इतना विनीत, इतना उदार!
सहसा कुंवर साहब ने पूछा-तो मेरे भाग्य किस किस दिन उदय होंगे, तारा? दया करके बहुत दिनों के लिए न टालना.
तारा ने कुंवर साहब की सरलता से परास्त होकर चिंतित स्वर में कहा-क़ानून का क्या कीजिएगा? कुंवर साहब ने तत्परता से उत्तर दिया-इस विषय में तुम निश्चिंत रहो तारा, मैंने वक़ीलों से पूछ लिया है. एक क़ानून ऐसा है जिसके अनुसार हम और तुम एक प्रेम-सूत्र में बंध सकते हैं. उसे सिविल-मैरिज कहते हैं. बस, आज ही के दिन वह शुभ मुहूर्त आएगा, क्यों?
तारा सिर झुकाए रही. बोल न सकी.
‘मैं प्रात:काल आ जाऊंगा. तैयार रहना.’
तारा सिर झुकाये रही. मुंह से एक शब्द न निकला.
कुंवर साहब चले गए, पर तारा वहीं मूर्ति की भांति बैठी रही. पुरुषों के हृदय से क्रीड़ा करनेवाली चतुर नारी क्यों इतनी विमूढ़ हो गई है!
6
विवाह का एक दिन और बाक़ी है. तारा को चारों ओर से बधाइयां मिल रही हैं. थिएटर के सभी स्त्री-पुरुषों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे अच्छे-अच्छे उपहार दिए हैं, कुंवर साहब ने भी आभूषणों से सजा हुआ एक सिंगारदान भेंट किया हैं, उनके दो-चार अंतरंग मित्रों ने भांति-भांति के सौगात भेजे हैं; पर तारा के सुन्दर मुख पर हर्ष की रेखा भी नहीं नज़र आती. वह क्षुब्ध और उदास है. उसके मन में चार दिनों से निरंतर यही प्रश्न उठ रहा है-क्या कुंवर के साथ विश्वासघात करें? जिस प्रेम के देवता ने उसके लिए अपने कुल-मर्यादा को तिलांजलि दे दी, अपने बंधुजनों से नाता तोड़ा, जिसका हृदय हिमकण के समान निष्कलंक है, पर्वत के समान विशाल, उसी से कपट करे! नहीं, वह इतनी नीचता नहीं कर सकती, अपने जीवन में उसने कितने ही युवकों से प्रेम का अभिनय किया था, कितने ही प्रेम के मतवालों को वह सब्ज बाग दिखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दुविधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका तिरस्कार न किया था. क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और था कि ऐसा अनुराग उसे और कहीं न मिला था.
क्या वह कुंवर साहब का जीवन सुखी बना सकती है? हां, अवश्य. इस विषय में उसे लेशमात्र भी संदेह नहीं था. भक्ति के लिए ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो असाध्य हो; पर क्या वह प्रकृति को धोखा दे सकती है. ढलते हुए सूर्य में मध्याह्न का-सा प्रकाश हो सकता है? असम्भव. वह स्फूर्ति, वह चपलता, वह विनोद, वह सरल छवि, वह तल्लीनता, वह त्याग, वह आत्मविश्वास वह कहां से लायेगी, जिसके सम्मिश्रण को यौवन कहते हैं? नहीं, वह कितना ही चाहे, पर कुंवर साहब के जीवन को सुखी नहीं बना सकतीं बूढ़ा बैल कभी जवान बछड़ों के साथ नहीं चल सकता.
आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों कृत्रिम साधनों से, बनावटी सिंगार से कुंवर को धोखे में डाला? अब इतना सब कुछ हो जाने पर वह किस मुंह से कहेगी कि मैं रंगी हुई गुड़िया हूं, जबानी मुझसे कब की विदा हो चुकी, अब केवल उसका पद-चिह्न रह गया है.
रात के बारह बज गए थे. तारा मेज के सामने इन्हीं चिंताओं में मग्न बैठी हुई थी. मेज पर उपहारों के ढेर लगे हुए थे; पर वह किसी चीज़ की ओर आंख उठा कर भी न देखती थी. अभी चार दिन पहले वह इन्हीं चीजों पर प्राण देती थी, उसे हमेशा ऐसी चीज़ों की तलाश रहती थी, जो काल के चिह्नों को मिटा सकें, पर अब उन्हीं चीजों से उसे घृणा हो रही है. प्रेम सत्य है-और सत्य और मिथ्या, दोनों एक साथ नहीं रह सकते.
तारा ने सोचा-क्यों न यहां से कहीं भाग जाए? किसी ऐसी जगह चली जाए, जहां कोई उसे जानता भी न हो. कुछ दिनों के बाद जब कुंवर का विवाह हो जाए, तो वह फिर आकर उनसे मिले और यह सारा वृत्तांत उनसे कह सुनाए. इस समय कुंवर पर वज्रपात-सा होगा-हाय न-जाने उनकी दशा होगी; पर उसके लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है. अब उनके दिन रो-रोकर कटेंगे, लेकिन उसे कितना ही दु:ख क्यों न हो, वह अपने प्रियतम के साथ छल नहीं कर सकती. उसके लिए इस स्वर्गीय प्रेम की स्मृति, इसकी वेदना ही बहुत है. इससे अधिक उसका अधिकार नहीं.
दाई ने आकर कहा-बाई जी, चलिए कुछ थोड़ा-सा भोजन कर लीजिए अब तो बारह बज गए.
तारा ने कहा-नहीं, ज़रा भी भूख नहीं. तुम जाकर खा लो.
दाई-देखिए, मुझे भूल न जाइएगा. मैं भी आपके साथ चलूंगी.
तारा-अच्छे-अच्छे कपड़े बनवा रखे हैं न?
दाई-अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपड़े लेकर क्या करना है? आप अपना कोई उतारा दे दीजिएगा.
दाई चली गई. तारा ने घड़ी की ओर देखा. सचमुच बारह बज गए थे. केवल छह घंटे और हैं. प्रात:काल कुंवर साहब उसे विवाह-मंदिर में ले-जाने के लिए आ जाएंगे. हाय! भगवान, जिस पदार्थ से तुमने इतने दिनों तक उसे वंचित रखा, वह आज क्यों सामने लाये? यह भी तुम्हारी क्रीड़ा है.
तारा ने एक सफ़ेद साड़ी पहन ली. सारे आभूषण उतार कर रख दिए. गर्म पानी मौजूद था. साबुन और पानी से मुंह धोया और आईने के सम्मुख जा कर खड़ी हो गई-कहां थी वह छवि, वह ज्योति, जो आंखों को लुभा लेती थी! रूप वही था, पर क्रांति कहां? अब भी वह यौवन का स्वांग भर सकती है?
तारा को अब वहां एक क्षण भी और रहना कठिन हो गया. मेज पर फैले हुए आभूषण और विलास की सामग्रियां मानो उसे काटने लगी. यह कृत्रिम जीवन असह्य हो उठा, खस की टटिटयों और बिजली के पंखों से सजा हुआ शीतल भवन उसे भट्टी के समान तपाने लगा.
उसने सोचा-कहां भाग कर जाऊं. रेल से भागती हूं, तो भागने ना पाऊंगी. सबेरे ही कुंवर साहब के आदमी छूटेंगे और चारों तरफ़ मेरी तलाश होने लगेगी. वह ऐसे रास्ते से जाएगी, जिधर किसी का ख़्याल भी न जाए.
तारा का हृदय इस समय गर्व से छलका पड़ता था. वह दु:खी न थी, निराश न थी. फिर कुंवर साहब से मिलेगी, किंतु वह निस्वार्थ संयोग होगा. प्रेम के बनाये हुए कर्त्तव्य मार्ग पर चल रही है, फिर दु:ख क्यों हो और निराश क्यों हो?
सहसा उसे ख़्याल आया-ऐसा न हो, कुंवर साहब उसे वहां न पा कर शोक-विह्वलता की दशा में अनर्थ कर बैठें. इस कल्पना से उसके रोंगटे खड़े हो गए. एक क्षण के के लिए उसका मन कातर हो उठा. फिर वह मेज पर जा बैठी, और यह पत्र लिखने लगी:
प्रियतम, मुझे क्षमा करना. मैं अपने को तुम्हारी दासी बनने के योग्य नहीं पाती. तुमने मुझे प्रेम का वह स्वरूप दिखा दिया, जिसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी. मेरे लिए इतना ही बहुत है. मैं जब जीऊंगी, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूंगी. मुझे ऐसा जान पड़ रहा है कि प्रेम की स्मृति में प्रेम के भोग से कही अधिक माधुर्य और आनन्द है. मैं फिर आऊंगी, फिर तुम्हारे दर्शन करूंगी; लेकिन उसी दशा में जब तुम विवाह कर लोगे. यही मेरे लौटने की शर्त है. मेरे प्राणों के प्राण, मुझसे नाराज़ न होना. ये आभूषण जो तुमने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नववधू के लिए छोड़े जाती हूं. केवल वह मोतियों को हार, जो तुम्हारे प्रेम का पहला उपहार है, अपने साथ लिए जाती हूं. तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूं, मेरी तलाश न करना. मैं तुम्हरी हूं और सदा तुम्हारी रहूंगा…
तुम्हारी,
तारा
यह पत्र लिखकर तारा ने मेज पर रख दिया, मोतियों का हार गले में डाला और बाहर निकल आई. थिएटर हाल से संगीत की ध्वनि आ रही थी. एक क्षण के लिए उसके पैर बंध गए. पन्द्रह वर्षों का पुराना सम्बन्ध आज टूट रहा था. सहसा उसने मैनेजर को आते देखा. उसका कलेजा धक से हो गया. वह बड़ी तेज़ी से लपककर दीवार की आड़ में खड़ी हो गई. ज्यों ही मैनेजर निकल गया, वह हाते के बाहर आई और कुछ दूर गलियों में चलने के बाद उसने गंगा का रास्ता पकड़ा.
गंगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था. दस-पांच साधु-बैरागी धूनियों के सामने लेटे थे. दस-पांच यात्री कम्बल जमीन पर बिछाए सो रहे थे. गंगा किसी विशाल सर्प की भांति रेंगती चली जाती थी. एक छोटी-सी नौका किनारे पर लगी हुई थी. मल्लाहा नौका में बैठा हुआ था.
तारा ने मल्लाहा को पुकारा-ओ मांझी, उस पार नाव ले चलेगा?
मांझी ने जवाब दिया-इतनी रात गए नाव न जाई.
मगर दूनी मज़दूरी की बात सुनकर उसे डांड़ उठाया और नाव को खोलता हुआ बोला-सरकार, उस पार कहां जैहैं?
‘उस पार एक गांव में जाना है.’
‘मुदा इतनी रात गए कौनों सवारी-सिकारी न मिली.’
‘कोई हर्ज नहीं, तुम मुझे उस पर पहुंचा दो.’
मांझी ने नाव खोल दी. तारा उस पार जा बैठी और नौका मंद गति से चलने लगी, मानो जीव स्वप्न-साम्राज्य में विचर रहा हो.
इसी समय एकादशी का चांद, पृथ्वी से उस पार, अपनी उज्जवल नौका खेता हुआ निकला और व्योम-सागर को पार करने लगा.
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