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अंगूर की बेल: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
August 29, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta-Jha_Kahaniyan
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ख़ूबसूरत लड़कियों को चिढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला एक जुमला ‘अंगूर की बेल’ कैसे एक परिवार की तीन पीढ़ियों को हैरान-परेशान कर जाता है. डॉ संगीता झा की यह कहानी भले ही हल्की-फुल्की हो, पर इसका संदेश वाक़ई एक समाज के तौर पर हमें सोचने पर मजबूर करता है.

अंगूर की बेल और हम सब दोस्तों का एक अजब सा रिश्ता था. बचपन से ही हम दोस्तों को जो भी लड़की अच्छी लगती हम उसे हम अंगूर की बेल का नाम दे देते. ये अंगूर की बेल साझा थी, सभी दोस्तों के लिए थी और वो सिर्फ़ देखने के लिए थी. जब किसी अंगूर की बेल से किसी का दिल लग जाता तो उसका निजीकरण यानी प्राइवेटाइज़ेशन कर दिया जाता मतलब,“ये मेरी है, तू दूर ही रहियो.” कभी-कभी अंगूर की बेल माशूक़ा बनी और फिर कईयों ने तो उस अंगूर की बेल का ख़ुद के घर रोपण भी कर दिया यानी शादी कर ली. ये हम दोस्तों के बीच का सीक्रेट था. जहां गणित की ट्यूशन पढ़ने जाते थे वहां भी सर की बेटी अंगूर की बेल थी. इस तरह कई अंगूर की बेलों को पाल रखा था. जब कभी किसी का भी मूड ऑफ़ होता सारे दोस्त साइकल में तीन सवारी यानी एक आगे, एक पीछे और एक ख़ुद साइकल सवार बैठ किसी भी बेल के ठिकाने झुंड में पहुंच जाते और ठहाके मार कर हंसते. इस तरह बड़े से बड़े दुःख का निदान हो जाता. एक बार एक दोस्त से बात करते करते मैंने पूछ लिया,“बोलो तुम्हारी अंगूर की बेल के क्या हाल हैं?”
मां पीछे खड़ी थी, तुरंत उत्साहित हो पूछने लगीं,“कौन शरद था क्या? वो लोग घर पर अंगूर लगाए हुए हैं क्या?”
मैं मरता ना क्या करता पीछा छुड़ाने के लिए यूं ही कह दिया,“अरे उसके यहां नहीं उसके चाचा का अंगूर का बगीचा है. वो कल वहां गया था, सो पूछ लिया.’’
काश मां वहां वहीं रुक जाती. वो अपने चाचा का बगीचा याद करने लगी और अपने बचपने में चली गई जहां उनके पड़ोसी और उनके चाचा ने एक अंगूर का बगीचा ख़रीदा था. मां लोग भी कभी-कभी वहां जाते थे, लेकिन वो बगीचा दिखने में ही अच्छा था. अंगूर को बड़े रख रखाव की ज़रूरत होती थी, इससे जल्दी ही बेच दिया.
मां अक्सर कहती,“शरद आए तो बात करवाना, मैं उसके चाचा का बगीचा देखना चाहती हूं. ले चलेगा ना तू मुझे वहां!”
मैं हर बार टाल जाता, कभी कहता,“अरे बार-बार क्यों पूछती हो? ऐसा क्या है अंगूर के बगीचे में?”
मां के उत्तर ने मुझे झनझना दिया. माथे पर आई सुनहरी लटों को पीछे फेरते हुए कहा,“अरे अब ना मैं ऐसे लगती हूं. जवानी में मोहल्ले के लड़के मुझे अंगूर की बेल कह कर पुकारते थे. पहले तो मुझे समझ ही नहीं आया. जब भाई जी को इसकी भनक हुई तो मेरा तो घर से निकलना ही बंद करा दिया गया. कॉलेज बंद तो सपने भी डब्बे में. फिर आनन फ़ानन में तेरे पापा से मेरी शादी यानी बर्बादी कर दी गई. आज तुम दोनों की चाकरी कर रही हूं. पढ़ने में मैं बहुत तेज़ थी. अंगूर की बेल मेरी दुश्मन बन गई. मन करता है किसी अंगूर के बगीचे में जाऊं और कम से कम एक बेल को जड़ से उखाड़ अपना बदला लूं. मेरा सब कुछ छीन लिया नहीं तो मैं भी भाई जी की तरह अफ़सर बन गई होती.’’
मन के अंतरतल में बरसों से कौंध रहे रहस्य का पर्दा तुरंत खुल गया. मैं हमेशा सोचता था कि मां जैसी सुंदर सर्वगुण सम्पन्ना को पापा जैसे काले खूसट क्लर्क से शादी क्यों करनी पड़ी? मामा भी इतने बड़े गजटेड ऑफ़िसर थे. शायद अपनी इस ग़लती का एहसास मेरे ननिहाल वालों को था और इसकी भरपाई वो मां को उपहार और समय-समय पर पैसे भेज कर करते थे. ससुराल वालों और पापा का लिहाज़ कर मां वो सब रख लेती थीं, लेकिन मां के चेहरे पर ख़ुशी कभी नहीं आती थी, उल्टे खीज ही जाती थी.
ईश्वर का क़हर मां पर दोबारा इस तरह बरसा कि मैं पापा की कार्बन कापी बन कर पैदा हुआ. बेचारी… मां लेकिन पापा को भले प्यार ना कर पाई पर संतान तो संतान है. मुझे दादी ने बातों ही बातों में कहा था,“ रंग रूप तो ऊपर वाले की देन है. पर तुम्हारी मां को कौन समझाए कि लड़के की सूरत नहीं सीरत मायने रखती है. बचपन में तुम्हें घंटों तुम्हें उबटन लगा लगा कर नहलाती थी. लल्ला तुम्हारा बाप तो हीरा है हीरा. अब तुम्हारी मां को कौन समझाए.’’
मैं सोचता मां भी ना…पापा दफ़्तर से समय पर घर आते हैं. चुपचाप मां का बनाया खाना खा लेते हैं. ना शराब ना सिगरेट, ना मां पर चिल्लाते हैं. मेरे साथ भी खेलते, मुझे पढ़ाते. मैं कई बार सोचता, मां क्यों दुखी रहती है? उनकी अपना कोई करार, कोई वजूद कोई इकाई नहीं है क्या? इतना अच्छा भाई, प्यार करने वाली भाभी, मां-बाप. पता नहीं किसी चीज़ का बदला ले रही थी वो ख़ुद से. इतनी विदुषी सुंदर महिला ने हार क्यों मान ली? कहां चली गई थी उनकी टक्कर लेने वाली अकड़! मूर्खों की तरह क्यों हथियार डाल दिए थे मां ने. चुपचाप सहने पीछे पीछे चलने में थोड़ी ना सार्थकता थी.
मां लोरी भी बहुत अच्छी गाती थी. मुझमें रंग रूप बाप का लेने के बाद भी दिमाग़ अपने ननिहाल का था. नानी ने मुझे बताया,“मां तुम्हारी बचपन में बड़ी लड़ाका थी. पढ़ने में, गाने, भाषण देने में स्कूल में अव्वल. तुम्हारे मामा उससे बड़ा जलते थे. हर जगह नीना-नीना की पुकार होती थी बेटा. उसका नाम ही सबने अपराजिता रखा था. मेरे हक़ के लिए अपने दादी से लड़ती थी. उन्होंने अपनी पोती को झांसी की रानी की उपाधि दे रखी थी. लेकिन मैं हार गई लल्ला, बचा नहीं पाई अपनी नीना को अपने दकियानूसी पति और स्वार्थी बेटे से. पढ़ाई बीच में छुड़ा कर शादी कर दी. पता नहीं क्यों! ये भी चुप रही. क्यों नहीं विरोध किया, लड़ती मैं तो साथ थी.’’
मैं उस समय नौवीं कक्षा में था. दुनियादारी तो नहीं समझता था, इससे मुझे प्यार करने वाले नाना और मामा पर ज़्यादा ग़ुस्सा नहीं आया. जैसे जैसे बड़ा होने लगा ये सारे सवाल मेरे दिल से टकराने लगे. मेरे अव्वल नम्बर आने की वजह से कई अंगूर की बेल यानी लड़कियां मेरे आगे पीछे आईं भी, लेकिन अपने रंग की वजह से मैं इतना ग्रसित था कि करोड़ों लड़कों की तरह दरवाज़े खोलने के बदले मैंने अपने दिल की चिटकनी चढ़ा ली थी. मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा शेर और दूसरा गीदड़ था, मेरी सूरत की वजह से वो निरा गीदड़ ही बना रहा. एक शब्द रिजेक्ट डर होने का कानों में भुनगे की तरह भुन भुन करता था. अंगूर की बेल बोलना और देखना ही मेरा पागलपन था. मेरे मनसूबों की रफ़्तार पर ये डर क्लच की तरह आ जाता था. दोस्तों ने समझाने की कोशिश भी कि मैं एक टॉल, डार्क, हैंडसम लड़का हूं. साथ में पढ़ाई में अव्वल, कोई भी अंगूर कि बेल मेरे आंगन में डेरा डालने आ जाएगी.
इच्छाएं ना काली होती हैं, ना गोरी, वो तो सिर्फ़ होती हैं. मां ही मेरी गर्लफ़्रेंड थी, जिससे मैं सिवाय अंगूर की बेल के सारे सपने डिस्कस करता था. मां का सपना मुझे आईएएस अफ़सर बनाना था, लेकिन उसके पहले वो चाहती थी, मैं इंजीनियरिंग की डिग्री भी ले लूं. मैं मां के सपने जीने लगा और वहां आने वाली सफलता ने मुझे पूरी तरह अपने में आत्मसात कर लिया. जब मां अपनी अंगूर की बेल का सच खोला, उस दिन मैं पूरी रात सो ही नहीं पाया. कुछ दिनों तक अंगूर की बेल नाम लेने में भी आत्मग्लानि महसूस होती थी. दोस्त भी परेशान, कहते,“वैसे भी सति सावित्रा ही हो, परायी नार से दूर ही रहते हो. ये तो हम सबका मेरे दिल की आई टॉनिक विटामिन ई है. थोड़ी यारों की यारी है. तू भी ना…आ तो एक बार.’’
समय बीतने पर मैं भी मां का दर्द भूल गया और फिर अंगूर की बेल वाला गेम शुरू. कभी बस या ट्रेन में कोई अंगूर की बेल पास खड़ी या बैठ जाती तो केवल उसकी ख़ुशबु ही पागल कर देती, अगर धोखे से बदन टकराता तो अल्टिमेट. पूरा शरीर झन्ना जाता और कई दिनों तक वही मंजर बार-बार दिल से टकराता. ऐसी कई अंगूर की बेलों से दिल लगा और एक तरफ़ा होने की वजह से दिल की शहीदी भी लाज़मी थी. पर अंगूर की बेल भी लूडो या सांपसीढ़ी के गेम की तरह थीं, लेकिन इसमें जीत कभी मेरी होती ही नहीं थी, क्योंकि मैंने जीतने की कोशिश भी नहीं की. शायद मन ही मन मैं जानता था कि देखने से नज़रों का प्यार होता है उसके लिए सीरत नहीं सूरत की ज़रूरत होती थी, जो मेरे पास थी ही नहीं. अलबत्ता खेलने का एक अलग ही मज़ा था. ये खेल सालों तक चलता रहा, फिर ये हम दोस्तों का मिलने का एक ज़रिया बन गया. कहीं भी कोई अंगूर की बेल दिखती और मोहल्ले के दोस्तों को इकट्ठा करने की मुहिम शुरू हो जाती. थोड़ा हा हा इधर उधर की बातें, फिर सब अपने रास्ते. मेरा सबकुछ मां और मां का ही दर्द ही था.
मैं मां की इच्छानुसार मामा की तरह आईएएस तो नहीं बन पाया, पर हां गजटेड अफ़सर ज़रूर बन गया. कई अंगूर की बेल के रिश्ते भी मेरे लिए आए, पर मैं नहीं चाहता था वो भी मेरे आंगन में मां की तरह सूख जाए. शायद मन में कहीं ना कहीं ये डर भी था मुझ काले कलूटे की बीवी कहीं दूसरों की अंगूर की बेल ना बन जाए. मैंने अपने लिए एक कठहल जैसी लड़की पसंद कर ली. मां चुप रहीं, शायद उन्हें अपना और पापा का मेल याद आ गया होगा, जिन्हें लोग कभी दिन रात, छ्छुंदर के सर पर चमेली का तेल, तो कभी लंगूर के हाथ अंगूर की उपाधि देते थे. मेरी बीबी मेरी पत्नी कम मां की सेविका ज़्यादा थी. मुझसे उसकी बातें केवल,“नाश्ते में क्या बनाऊं, खाना तैयार है, या मां की तबीयत ख़राब है!’’ तक ही थी. उसकी सीरत बड़ी ख़ूबसूरत थी, पूरा घर उसने बड़े अच्छे से सम्भाल रखा था. उसके चेहरे पर कांटे जैसे दाने, खुरदरे पैर और हाथों से आती लहसुन की गंध मुझे कभी उसकी ओर आकर्षित नहीं कर पाई.
मां जिन्होंने पिता के ज़िंदा रहते उनका कोई सम्मान नहीं किया. उनके जाने के बाद उनकी विधवा बन कर रहने का लुफ़्त उठा रही थीं. यानी सफ़ेद मलमल के कपड़े पहनना, बिना प्याज़ लहसुन का खाना, पूजा की थाली और ये सब मेरी पत्नी नीरा की ज़िम्मेदारी थी. बेचारी रात का सारा काम निपटा फिर मेरे लिए लहसुन छिल कर रखती थी. मुझे ये मां की हम दोनों को पास ना आने देने की साज़िश लगती थी. इससे मेरे अंगूर की बेल देखने की भटकन जारी थी. नीरा का सारा दिन मां के कपड़ों में सफ़ेदी लगाने, उनका खाना, उनकी पूजा की तैयारी करने में चला जाता. नीरा ने एक प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया, जो मां का प्रतिबिम्ब थी, जो मेरे और नीरा के नाक-नक़्श और रंग से कोसों दूर थी. मां भी बेटी ग्रीष्मा की मां बन गई और अपने अंदर की सारी ग्रंथियां उठा कर फ़ेक दी. मां और ग्रीष्मा का एक बॉन्ड बन जाने से मैं और नीरा काफ़ी क़रीब आ गए. उसके चेहरे के कांटों की चुभन ग़ायब हो गई. उसकी खुरदुरी हथेलियों पर मां ही क्रीम लगाती थीं, कि कहीं वो उनकी ग्रीष्मा को चुभ ना जाएं. समय आगे बढ़ रहा था, हमारा परिवार एक सुखी परिवार बन गया था. बिटिया भी मां की तरह मेधावी थी. पत्नी को इस बात का इल्म भी ना था, मैं किस अंगूर की बेल देखने जाता हूं, क्योंकि कभी किसी ने उसे अंगूर की बेल कह पुकारा ही ना था. वो बेचारी…तो समझती कि अंगूर मेरा प्यारा फल है और मैं किसी मित्र के अंगूर के बगीचे में जाता हूं. बिटिया बड़ी हो रही थी, एक दिन पैर पटकती घर आई और शिकायत करने लगी,“पापा मेरे क्लास के लड़के मुझे अंगूर की बेल कह चिढ़ाते हैं. आप चलिए मेरे क्लास टीचर से शिकायत करिए.’’
मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया, सारी ज़िंदगी अंगूर की बेल ताकने का रहस्य ख़ुद ब ख़ुद पत्नी के आगे खुल गया. पत्नी एक टक मेरी तरफ़ देख रही थी. मां पूजा छोड़ बाहर आ गई. मैं कुछ देर चुप रहा, शून्य में ताकता रहा. बेटी ने ज़ोर से हिलाया,“पापा क्या हुआ? आप को फ़र्क़ नहीं पड़ रहा.’’
मैंने अपने आप को कड़ा किया और बेटी को गले लगा कर कहा,“अंगूर की बेल सभी पेड़ों में श्रेष्ठ, सुंदर है. तुम भी अद्वितीय, अप्रतिम हो. इसे उपाधि की तरह लो! वो सारे तो कटहल के पेड़ हैं. जलते हैं जलने दो. तुम परवाह ना करो, भगवान ने दादी की तरह सूरत दी है. अब पढ़ लिख अपनी मम्मी की तरह सीरत बनाने की बारी तुम्हारी है. जो तुम करोगी, मुझे तुम पर पूरा विश्वास है.’’
मेरे जीवन की तीनों स्त्रियां मां, बीवी और बेटी एक साथ ख़ुशी से ताली बजाने लगीं और मुझे भी दिल में बरसों से पल रही मुई अंगूर की बेल से मुझे छुटकारा मिल गया.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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