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गर्मियों के दिन: एक वैद्य की कहानी (लेखक: कमलेश्वर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 7, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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गर्मियों के दिन: एक वैद्य की कहानी (लेखक: कमलेश्वर)
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गर्मी का एक दिन है. मरीज़ के इंतज़ार में एक देहाती वैद्य किस तरह बेचैनी से दोपहर की तपाती गर्मी को झेलता है. उसकी रोचक दास्तां बयां करती है कमलेश्वर की कहानी ‘गर्मियों के दिन’.

चुंगी-दफ्तर ख़ूब रंगा-चुंगा है. उसके फाटक पर इंद्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं. सैयदअली पेंटर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्डों को बनाया है. देखते-देखते शहर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हो गई हैं, जिन पर साइनबोर्ड लटक गए हैं. साइनबोर्ड लगना यानी औकात का बढ़ना. बहुत दिन पहले जब दीनानाथ हलवाई की दुकान पर पहला साइनबोर्ड लगा था तो वहां दूध पीने वालों की संख्या एकाएक बढ़ गई थी. फिर बाढ़ आ गई, और नए-नए तरीक़े और बैलबूटे ईजाद किए गए. ‘ऊँ’ या ‘जयहिन्द’ से शुरू करके ‘एक बार अवश्य परीक्षा कीजिए’ या ‘मिलावट साबित करने वाले को सौ रुपया नगद इनाम’ की मनुहारों या ललकारों पर लिखावट समाप्त होने लगी.
चुंगी-दफ़्तर का नाम तीन भाषाओं में लिखा है. चेयरमैन साहब बड़े अक्किल के आदमी हैं, उनकी सूझ-बूझ का डंका बजता है, इसलिए हर साइनबोर्ड हिंदी, उर्दू और अंगरेज़ी में लिखा जाता है. दूर-दूर के नेता लोग भाषण देने आते हैं, देश-विदेश के लोग आगरे का ताजमहल देखकर पूरब की ओर जाते हुए यहां से गुज़रते हैं…उन पर असर पड़ता है, भाई. और फिर मौसम की बात- मेले-तमाशे के दिनों में हलवाइयों, जुलाई-अगस्त में किताब-कागज़ वालों, सहालग में कपड़े वालों और ख़राब मौसम में वैद्य-हकीमों के साइनबोर्डों पर नया रोगन चढ़ता है. शुद्ध देसी घी वाले सबसे अच्छे, जो छप्परों के भीतर दीवार पर गेरू या हिरमिजी से लिखकर काम चला लेते हैं. इसके बग़ैर काम नहीं चलता. अहमियत बताते हुए वैद्यजी ने कहा,“बगैर पोस्टर चिपकाए सिनेमा वालों का भी काम नहीं चलता. बड़े-बड़े शहरों में जाइए, मिट्टी का तेल बेचने वाले की दुकान पर साइनबोट मिल जाएगा. बड़ी जरूरी चीज है. बाल-बच्चों के नाम तक साइनबोट हैं, नहीं तो नाम रखने की जरूरत क्या है? साइनबोट लगाके सुखदेव बाबू कंपौंडर से डॉक्टर हो गए, बेग लेके चलने लगे.”
पास बैठे रामचरन ने एक और नए चमत्कार की ख़बर दी,‘‘ल उन्होंने बुधईवाला इक्का-घोड़ा खरीद लिया…’’
‘‘हांकेगा कौन?’’ टीन की कुर्सी पर प्राणायाम की मुद्रा में बैठे पंडित ने पूछा.
‘‘ये सब जेब कतरने का तरीका है,’’ वैद्यजी का ध्यान इक्के की तरफ़ अधिक था. ‘‘मरीज़ से किराया वसूल करेंगे. सईस को बख्शीश दिलाएंगे, बड़े शहरों के डॉक्टरों की तरह. इसी से पेशे की बदनामी होती है. पूछो, मरीज़ का इलाज करना है कि रोब-दाब दिखाना है. अंगरेजी आले लगातार मरीज़ की आधी जान पहले सुखा डालते हैं. आयुर्वेदी नब्ज़ देखना तो दूर, चेहरा देख के रोग बता दे! इक्का-घोड़ा इसमें क्या करेगा? थोड़े दिन बाद देखना, उनका सईस कंपौंडर हो जाएगा,’’ कहते-कहते वैद्यजी बड़ी घिसी हुई हंसी में हंस पड़े. फिर बोले,‘‘कौन क्या कहे भाई? डॉक्टरी तो तमाशा बन गई है. वक़ील मुख़्तार के लड़के डॉक्टर होने लगे! ख़ून और संस्कार से बात बनती है हाथ में जस आता है, वैद्य का बेटा वैद्य होता है. आधी विद्या लड़कपन में जड़ी-बुटियां कूटते-पीसते आ जाती है. तोला, माशा, रत्ती का ऐसा अंदाज़ हो जाता है कि औषधि अशुद्ध हो ही नहीं सकती है. औषधि का चमत्कार उसके बनाने की विधि में है. धन्वंतरि…’’ वैद्यजी आगे कहने जा ही रहे थे कि एक आदमी को दुकान की ओर आते देख चुप हो गए, और बैठे हुए लोगों की ओर कुछ इस तरह देखने-गुनने लगे कि यह गप्प लड़ाने वाले फालतू आदमी न होकर उनके रोगी हों.

आदमी के दुकान पर चढ़ते ही वैद्यजी ने भांप लिया. कुंठित होकर उन्होंने उसे देखा और उदासीन हो गए. लेकिन दुनिया-दिखावा भी कुछ होता है. हो सकता है, कल यही आदमी बीमार पड़ जाए या इसके घर में किसी को रोग घेर ले. इसलिए अपना व्यवहार और पेशे की गरिमा चौकस रहना चाहिए. अपने को बटोरते हुए उन्होंने कहा,‘‘कहो भाई, राज़ी-ख़ुशी.’’ उस आदमी ने जवाब देते हुए सीरे की एक कनस्टरिया सामने कर दी,‘‘यह ठाकुर साहब ने रखवाई है. मंडी से लौटते हुए लेते जाएंगे. एक-डेढ़ बजे के क़रीब.’’
‘‘उस वक़्त दुकान बंद रहेगी,’’ वैद्यजी ने व्यर्थ के काम से ऊबते हुए कह,‘‘हकीम-वैद्यों की दुकानें दिनभर नहीं खुली रहतीं. व्यापारी थोड़े ही हैं, भाई!’’ पर फिर किसी अन्य दिन और अवसर की आशा ने जैसे ज़बरदस्ती कहलावाया,‘‘ख़ैर, उन्हें दिक़्क़त नहीं होगी, हम नहीं होंगे तो बगल वाली दुकान से उठा लें. मैं रखता जाऊंगा.’’
आदमी के जाते ही वैद्य जी बोले,‘‘शराब-बंदी से क्या होता है? जब से हुई तब से कच्ची शराब की भट्टियां घर-घर चालू हो गईं. सीरा घी के भाव बिकने लगा. और इन डॉक्टरों को क्या कहिए…इनकी दुकानें हौली बन गई हैं. लैसंस मिलता है दवा की तरह इस्तेमाल करने का, पर खुले आम जिंजर बिकता है. कहीं कुछ नहीं होता. हम भंग-अफीम की एक पुड़िया चाहें तो तफ़सील देनी पड़ती है.’’
‘‘ज़िम्मेदारी की बात है,’’पंडित जी ने कहा.
‘‘अब ज़िम्मेदार वैद्य ही रह गए हैं. सबकी रजिस्टरी हो चुकी, भाई. ऐसे गैर-पंचकल्यानी जितने घुस आए थे, उनकी सफ़ाई हो गई. अब जिसके पास रजिस्टरी होगी वही वैद्यक कर सकता है. चूरन वाले वैद्य बन बैठे थे…सब ख़तम हो गए. लखनऊ में सरकारी जांच-पड़ताल के बाद सही मिली है…’’
वैद्य जी की बात में रस न लेते हुए पंडित उठ गए. वैद्यजी ने भीतर की तरफ़ क़दम बढ़ाए, और औषधालय का बोर्ड लिखते हुए चंदर से बोले,‘‘सफ़ेदा गाढ़ा है बाबू, तारपीन मिला लो.’’ वे एक बोतल उठा लाए जिस पर अशोकारिष्ट का लेबल लगा था.
इसी तरह न जाने किन-किन औषधियों की शरीर रूपी बोतलों में किस-किस पदार्थ की आत्मा भरी है. सामने की अकेली अलमारी में बड़ी-बड़ी बोतलें रखी है; जिन पर तरह-तरह के अरिष्टों और आसवों के नाम चिपके हैं. सिर्फ़ पहली कतार में ये शीशियां खड़ी हैं…उनके पीछे ज़रूरत का और सामान है. सामने की मेज़ पर सफ़ेद शीशियों की एक पंक्ति है, जिसमें कुछ स्वादिष्ट चूरन… लवण-भास्कर आदि है, बाकी में जो कुछ भरा है उसे केवल वैद्यजी जानते हैं.
तारपीन का तेल मिलाकर चंदर आगे लिखने लगा,‘प्रो. कविराज नित्यानंद तिवारी’ ऊपर की पंक्ति ‘श्री धन्वंतरि औषधालय’ स्वयं वैद्यजी लिख चुके थे. सफ़ेदे के वे अच्छर ऐसे लग रहे थे जैसे रुई के फाहे चिपका दिए हों. ऊपर जगह ख़ाली देखकर वैद्यजी बोले,‘‘बाबू, ऊपर जयहिंद लिख देना और यह जो जगह बच रही है, इसमें एक ओर द्राक्षासव की बोतल, दूसरी ओर खरल की तसवीर…आर्ट हमारे पास मिडिल तक था लेकिन यह तो हाथ सधने की बात है.’’
चंदर कुछ ऊंघ रहा था. खामखा पकड़ गया. लिखावट अच्छी हो का यह पुरस्कार उसकी समझ नहीं आ रहा था. बोला,‘‘किसी पेंटर से बनवाते…अच्छा-खासा लिख देता, वो बात नहीं आएगी…’’ अपना पसीना पोंछते हुए उसने कूची नीचे रख दी.
‘‘पांच रुपए मांगता था बाबू…दो लाइनों के पांच रुपए! अब अपनी मेहनत के साथ यह साइनबोर्ड दस-बारह आने का पड़ा. ये रंग एक मरीज़ दे गया. बिजली कंपनी का पेंटर बदहज़मी से परेशान था. दो खुराकें बनाकर दे दीं, पैसे नहीं लिए. सो वह दो-तीन रंग और थोड़ी-सी वार्निश दे गया. दो बक्से रंग गए ..यह बोट बन गया और अकाध कुर्सी रंग जाएगी…तुम बस इतना लिख दो, लाल रंग का शेड हम देते रहेंगे…हाशिया तिरंगा खिलेगा?’’ वैद्यजी ने पूछा और स्वयं स्वीकृति भी दे दी.
चंदर गर्मी से परेशान था. जैसे-जैसे दोपहरी नज़दीक आती जा रही थी, सड़क पर धूल और लू का ज़ोर बढ़ता जा रहा था, मुलाहिज़े में चंदर मना नहीं कर पाया. पंखे से अपनी पीठ खुजलाते हुए बैद्यजी ने उजरत के काम वाले, पटवारियों के बड़े-बड़े रजिस्टर निकालकर फैलाना शुरू किए.
सूरज की तपिश से बचने के लिए दुकान का एक किवाड़ा भेड़कर बैद्यजी ख़ाली रजिस्टरों पर खसरा-खतौनियों से नकल करने लगे. चंदर ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए पूछा,‘‘ये सब क्या है वैद्यजी?’’
वैद्य जी का चेहरा उतर गया, बोले,‘‘ख़ाली बैठने से अच्छा है कुछ काम किया जाए, नए लेखपालों को काम-धाम आता नहीं, रोज़ कानूनगो या नायब साहब से झाड़ें पड़ती हैं… झक मारके उन लोगों को यह काम उजरत पर कराना पड़ता है. उब पुराने घाघ पटवारी कहां रहे, जिनके पेट में गंवई क़ानून बसता था. रोटियां छिन गईं बेचारों की; लेकिन सही पूछो तो अब भी सारा काम पुराने पटवारी ही ढो रहे हैं. नए लेखपालों की तनख्वाह का सारा रुपया इसी उजरत में निकल जाता है. पेट उनका भी है…तिया-पांचा करके किसानों से निकाल लाते हैं. लाएं न तो खाएं क्या. दो-तीन लेखपाल अपने हैं, उन्हीं से कभी-कभार हलका-भारी काम मिल जाता है. नकल का काम, रजिस्टर भरते हैं.’’
बाहर सड़क वीरान होती जा रही थी. दफ़्तर के बाबू लोग जा चुके थे. सामने चुंगी में खस की टट्टियों पर छिड़काव शुरू हो गया. दूर हरहराते पीपल का शोर लू के साथ आ रहा था. तभी एक आदमी ने किवाड़ से भीतर झांका. वैद्यजी की बात, जो शायद क्षण-दो क्षण बाद दर्द से बोझिल हो जाती, रुक गई. उनकी निगाह ने आदमी को पहचाना और वे सतर्क हो गए. फौरन बोले,‘‘एक बोट आगरा से बनवाया है, जब तक नहीं आता, इसी से काम चलेगा; फ़ुर्सत कहां मिलती है जो इस सब में सिर खपाएं…’’ और एकदम व्यस्त होते हुए उन्होंने उस आदमी से प्रश्न किया,‘‘कहो भाई, क्या बात है?’’
‘‘डाकदरी सरटीफिकेट चाहिए…. कोसमा टेसन पर खलासी हैंगे साब.’’ रेलवे की नीली वर्दी पहने वह खलासी बोला .
उसकी ज़रूरत का पूरा अंदाज़ करते हुए वैद्यजी बोले,‘‘हां, किस तारीख़ से कब तक का चाहिए.’’
‘‘पंद्रह दिन पहले आए थे साब, सात दिन को और चाहिए.’’
कुछ हिसाब जोड़कर वैद्यजी बोले,‘‘देखो भाई, सर्टीफिकेट पक्का करके देंगे, सरकार का रजिस्टर नंबर देंगे, रुपैया चार लगेंगे.’’ वैद्यजी ने जैसे ख़ुद चार रुपए पर उसके भड़क जाने का अहसास करते हुए कहा,‘‘अगर पिछला न लो तो दो रुपए में काम चल जाएगा.’’
खलासी निराश हो गया. लेकिन उसकी निराशा से अधिक गहन हताशा वैद्यजी के पसीने से नम मुख पर व्याप गई. बड़े निरपेक्ष भाव से खलासी बोला,‘‘सोबरन सिंह ने आपके पास भेजा था.’’ उसके कहने से कुछ ऐसा लगा जैसे यह उसका काम न होकर सोबरन सिंह का काम हो. पर वैद्यजी के हाथ नब्ज़ आ गई, बोले,‘‘वो हम पहले ही समझ रहे थे. बग़ैर जान-पहचान के हम देते भी नहीं, इज़्ज़त का सवाल है. हमें क्या मालूम तुम कहां रहे, क्या करते रहे? अब सोचने की बात है… विश्वास पर जोखिम उठा लेंगे… पंद्रह दिन पहले से तुम्हारा नाम रजिस्टर में चढ़ाएंगे, रोग लिखेंगे… हर तारीख़ पर नाम चढ़ाएंगे तब कहीं काम बनेगा. ऐसे घर की खेती नहीं है…’’ कहते-कहते उन्होंने चंदर की ओर मदद के लिए ताका. चंदर ने साथ दिया,‘‘अब उन्हें क्या पता कि तुम बीमार रहे कि डाका डालते रहे… सरकारी मामला है…’’
‘‘पांच से कम में दुनिया-छोर का डॉक्टर नहीं दे सकता…’’ कहते-कहते वैद्यजी ने सामने रखा लेखपाल वाला रजिस्टर खिसकाते हुए जोश से कहा,‘‘अरे, दम मारने को फ़ुर्सत नहीं है. ये देखो, देखते हो नाम… एक-एक रोगी का नाम, मर्ज़, आमदनी…. उन्हीं में तुम्हारा नाम चढ़ाना पड़ेगा. अब बताओ कि मरीज़ों को देखना ज़्यादा ज़रूरी है कि दो-चार रुपए के लिए सर्टीफ़िकेट देकर इस सरकारी पचड़े में फंसना.’’ कहते हुए उन्होंने तहसील वाला रजिस्टर एकदम बंद करके सामने से हटा दिया और केवल उपकार कर सकने के लिए तैयार होने जैसी मुद्रा बनाकर कलम से कान करोदने लगे.
रेलवे का खलासी एक मिनट तक बैठा कुछ सोचता रहा. और वैद्यजी को सिर झुकाए अपने काम में मशगूल देख दुकान से नीचे उतर गया. एकदम वैद्यजी ने अपनी ग़लती महसूस की, लगा उन्होंने बात ग़लत जगह तोड़ दी और ऐसी तोड़ी कि टूट ही गई. एकाएक कुछ समझ में न आया, तो उसे पुकारकर बोले,‘‘अरे सुनो, ठाकुर सोबरन सिंह से हमारी जैरामजी की कह देना… उनके बाल-बच्चे तो राज़ी ख़ुशी हैं?’’
‘‘हां सब ठीक-ठाक हैं.’’ रुककर खलासी ने कहा. उसे सुनाते हुए वैद्यजी चंदर से बोले,‘‘दस गांव-शहर के ठाकुर सोबरन सिंह इलाज के लिए यहीं आते हैं. भई, उनके लिए हम भी हमेशा हाज़िर रहे.’’चंदर ने बोर्ड पर आख़िरी अक्षर समाप्त करते हुए पूछा,‘‘चला गया.’’
‘‘लौट-फिर के आएगा…’’ वैद्य जी ने जैसे अपने को समझाया, पर उसके वापस आने की अनिवार्यता पर विश्वास करते हुए बोले,‘‘गंवई गांव के वैद्य और वक़ील एक ही होते हैं. सोबरन सिंह ने अगर हमारा नाम उसे बताया है तो ज़रूर वापस आएगा… गांव वालों की मुर्री ज़रा मुश्क़िल से खुलती है. कहीं बैठके सोचे-समझेगा, तब आएगा…’’
‘‘…और कहीं से ले लिया, तो?,’’चंदर ने कहा तो वैद्य जी ने बात काट दी,‘‘नहीं, नहीं बाबू.’’कहते हुए उन्होंने बोर्ड की ओर देखा और प्रशंसा से भरकर बोले,‘‘वाह भाई चंदर बाबू! साइनबोट जंच गया… काम चलेगा. ये पांच रुपए पेंटर को देकर मरीज़ों से वसूल करना पड़ता. इक्का-घोड़ा और ये ख़र्चा! बात एक है. चाहे नाक सामने से पकड़ लो, चाहे घुमाकर. सैयदअली के हाथ का लिखा बोट रोगियों को चंगा तो कर नहीं देता. अपनी-अपनी समझ की बात है,’’कहते हुए वे धीरे से हंस पड़े. पता नहीं, अपनी बात समझकर अपने पर हंसे थे या दूसरों पर.
तभी एक आदमी ने प्रवेश किया. सहसा लगा कि खलासी आ गया. पर वह पांडु रोगी था. देखते ही वैद्यजी के मुख पर संतोष चमक आया. वे भीतर गए. एक तावीज़ लाते हुए बोले,‘‘अब इसका असर देखो. बीस-पच्चीस रोज़ में इसका चमत्कार दिखाई पड़ेगा.’’ पांडु-रोगी की बांह में तावीज़ बांधकर और उसके कुछ आने पैसे जेब में डालकर वे गंभीर होकर बैठ गए. रोगी चला गया तो बोले,‘‘यह विद्या भी हमारे पिताजी के पास थी. उनकी लिखी पुस्तकें पड़ी हैं… बहुत सोचता हूं, उन्हें फिर से नकल कर लूं… बड़े अनुभव की बातें हैं. विश्वास की बात है, बाबू! एक चुटकी धूल से आदमी चंगा हो सकता है. होम्योपैथिक और भला क्या है? एक चुटकी शक्कर. जिस पर विश्वास जम जाए, बस.’’
चंदर ने चलते हुए कहा,‘‘एब तो औसधालय बंद करने का समय हो गया, खाना खाने नहीं जाइएगा?’’
‘‘तुम चलो, हम दम-पांच मिनट बाद आएंगे.’’ वैद्यजी ने तहसील वाला काम अपने आगे सरका लिया. दुकान का दरवाज़ा भटखुला करके बैठ गए. बाहर धूप की ओर देखकर दृष्टि चौंधिया जाती थी.
बगल वाले दुकानदार बच्चनलाल ने दुकान बंद करके, घर जाते हुए वैद्यजी की दुकान खुली देखकर पूछा,‘‘आप खाना खाने नहीं गए?’’
‘‘हां, ऐसे ही एक ज़रूरी काम है. अभी थोड़ी देर में चले जाएंगे.’’ वैद्य जी ने कहा और ज़मीन पर चटाई बिछाई; रजिस्टर मेज़ से उठाकर नीचे फैला लिए. लेकिन गर्मी तो गर्मी… पसीना थमता ही न था. रह-रहकर पंखा झलते, फिर नकल करने लगते. कुछ देर मन मारकर काम किया पर हिम्मत छूट गई. उठकर पुरानी धूल पड़ी शीशियां झाड़ने लगे. उन्हें लाइन से लगाया. लेकिन गर्मी की दोपहर…. समय स्थिर लगता था. एक बार उन्होंने किवाड़ों के बीच से मुंह निकालकर सड़क की ओर निहारा. एकाध लोग नज़र आए. उन आते-जाते लोगों की उपस्थिति से बड़ा सहारा मिल गया. भीतर आए, बोर्ड का तार सीधा किया और दुकान ने सामने लटका दिया. धन्वंतरि औषधालय का बोर्ड दुकान की गरदन में तावीज़ की तरह लटक गया.
कुछ समय और बीता. आख़िर उन्होंने हिम्मत की. एक लोटा पानी पिया और जांघों तक धोती सरका कर मुस्तैदी से काम में जुट गए. बाहर कुछ आहट हुई. चिंता से उन्होंने देखा.
‘‘आज आराम करने नहीं गए वैद्य जी?’’ घर जाते हुए जान-पहचान के दुकानदार ने पूछा.
‘‘बस जाने की सोच रहा हूं… कुछ काम पसर गया था, सोचा, करता चलूं…’’ कहकर वैद्य जी दीवार से पीठ टिका कर बैठ गए. कुरता उतारकर एक ओर रख दिया. इकहरी छत की दुकान आंवे-सी तप रही थी. वैद्यजी की आंखें बुरी तरह नींद से बोझिल हो रही थीं. एक झपकी आ गई… कुछ समय ज़रूर बीत गया था. नहीं रहा गया तो रजिस्टरों का तकिया बनाकर उन्होंने पीठ सीधी की. पर नींद….आती और चली जाती, न जाने क्या हो गया था.
सहसा एक आहट ने उन्हें चौंका दिया. आंखें खोलते हुए वे उठकर बैठ गए. बच्चनलाल दोपहर बिताकर वापस आ गया था.
‘‘अरे, आज आप अभी तक गए ही नहीं…’’ उसने कहा.
वैद्य जी ज़ोर-ज़ोर से पंखा झलने लगे. बच्चनलाल ने दुकान से उतरते हुए पूछा,‘‘किसी का इंतज़ार है क्या?’’
‘‘हां, एक मरीज़ आने को कह गया था… अभी तक आया नहीं…’’ वैद्य जी ने बच्चनलाल को जाते देखा तो बात बीच में ही तोड़कर चुप हो गए और अपना पसीना पोंछने लगे.

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