क्या होता है, जब अपने-अपने आदर्श के पक्के दो व्यक्तियों का मिलन होता है? पढ़ें, बांग्ला लेखक बनफूल की कहानी का हिंदी अनुवाद.
दोपहर की चिलचिलाती हुई धूप की उत्कट उपेक्षा करते हुए राघव सरकार शान से माथा ऊंचा किए हुए जल्दी-जल्दी पांव बढ़ाते हुए सड़क पर चले जा रहे थे. खद्दर की पोशाक, पैर में चप्पलें अवश्य थीं, पर हाथ में छाता नहीं; हालांकि वे चप्पलें भी ऐसी थीं और उनमें निकली हुई अनगिनत कीलों से उनके दो पांव इस तरह छिल गए थे कि उनकी उपमा शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से करना भी राघव सरकार के पांवों का अपमान होता, किन्तु शान से माथा ऊंचा किए हुए राघव सरकार को इसकी परवाह नहीं थी. वे पांव बढ़ाते हुए चले जा रहे थे. उन्होंने अपने चरित्र को बहुत दृढ़ बनाया था, सिद्धांतों पर आधारित मर्यादाशील उनका जीवन था, और इसीलिए हमेशा से राघव सरकार का माथा ऊंचा रहा, कभी झुका नहीं. उन्होंने कभी किसी की कृपा की आकांक्षा नहीं की, कभी किसी दूसरे के कन्धे के सहारे नहीं खड़े हुए, जहां तक हो सका दूसरों की भलाई की, और कभी अपनी कोई प्रार्थना लेकर किसी के दरवाजे नहीं गए. अपना माथा कभी झुकने ने पाए, यही उनकी जीवनव्यापी साधना रही है.
ठुन-चुन करता हुआ, रिक्शे के हत्थे पर घंटी पटकता हुआ एक पैदल रिक्शेवाला उनके पीछे लग गया.
‘रिक्शा चाहिए बाबू, रिक्शा!’
राघव सरकार ने मुंह घुमाकर उसकी ओर देखा. एक कंकाल-शेष आदमी उनकी ओर आशाभरी निगाह से देख रहा था. जिसमें बिल्कुल इन्सानियत नहीं होती वही दूसरे इन्सान के कन्धे पर चढ़कर चल सकता है यह राघव सरकार की निश्चित धारणा थी. वे कभी अपनी जिन्दगी में किसी भी पालकी या रिक्शा पर नहीं चढ़े थे. इसको वे भयानक अन्याय मानते थे. खद्दर की आस्तीन से माथे का पसीना पोंछते हुए बोले,‘नहीं भाई, रिक्शा नहीं चाहिए.’ और तेज़ी से फिर चल दिए.
ठुन-ठुन करता हुआ, घंटी बजाता हुआ रिक्शावाला पीछे-पीछे आने लगा. सहसा राघव सरकार ने मन में सोचा, बेचारे की रोजी कमाने का तो यही एक उपाय है. राघव सरकार पढ़े-लिखे, अध्ययनशील व्यक्ति थे, अतः पूंजीवाद, दरिद्रनारायण, बोल्शेबिज्म, श्रम-विभाजन, गांवों की दुर्दशा, फैक्ट्री सिस्टम, जमींदारी, सभी एक क्षण में उनके मस्तिष्क में कौंध गए. उन्होंने फिर एक बार पीछे घूमकर देखा. ओहो! सचमुच यह आदमी भूखा है, उदास है, ग़रीब है. बेहद तरस आया उन्हें!
घंटी बजाते हुए रिक्शेवाले ने कहा,‘चलिए न बाबू! पहुंचा देंगे. कहां जाइयेगा?’
अच्छा, शिवतल्ला तक चलने का कै पैसा लोगे?’
‘छः पैसा!’
‘अच्छा आओ!’ और फिर राघव सरकार चलने लगे!
‘आइए बैठिए न बाबू!’
‘तुम चले आओ.’ राघव सरकार और तेज़ चलने लगे. रिक्शेवाला पीछे दौड़ने लगा. और बीच-बीच में दोनों में केवल यही वाक्य विनिमय होता रहा:
‘आइए बैठिए न बाबू!’
‘तुम चले आओ!’ शिवतल्ला पहुंचकर राघव सरकार जेब से छ: पैसा निकालकर बोले,‘ये लो!’
‘लेकिन आप चढ़े कहां?’
‘मैं रिक्शा पर चढ़ता नहीं हूं!’
‘क्यों?’ रिक्शा पर चढ़ना पाप है.’
‘ओह! तो आप पहले बता देते!’
रिक्शेवाले के मुंह पर एक बेरुखी, एक अवज्ञा छलकने लगी. वह पसीना पोंछकर फिर आगे चलने लगा.
‘पैसे तो लेते जाओ.’
‘मैं ग़रीब आदमी हूं, रिक्शा चलाता है, किसी से भीख नहीं मांगता!’
ठुन-ठुन घंटी बजाते-बजाते वह पथ की भीड़-भाड़ में अदृश्य हो गया.
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