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इज़्ज़त: मीनाक्षी विजयवर्गीय की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 31, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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इज़्ज़त: मीनाक्षी विजयवर्गीय की कहानी
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कई बार हम अपने अधिकारों और दूसरों की अच्छाई का ग़लत फ़ायदा उठा जाते हैं. मीनाक्षी विजयवर्गीय की यह छोटी-सी लेकिन सोचने को मजबूर करनेवाली कहानी इसी तरह की एक घटना के इर्द-गिर्द बुनी हुई है.

मैंने झट से दरवाजा खोला, फट से बैठ गई. और बोला जल्दी चलो. टैक्सी में बैठते ही पर्स, मोबाइल चेक करने लगी कि कुछ रह तो नहीं गया. मैं अभी इत्मीनान से सांस लेने भी नहीं लगी थी, कि वह बोला,‘‘एक बात बताइए, क्या इज़्ज़त, मान-सम्मान सब स्त्री का ही होता है? हमारा नहीं!’’
‘‘यह क्या? आज तुम क्या कह रहे हो?’’ मैंने बड़े आश्चर्य से पूछा. दरअसल हर बार में आने-जाने के लिए रघु की टैक्सी का इस्तेमाल करती हूं. रघु इतना हंसमुख स्वभाव का लड़का है कि उसके साथ कभी सफ़र पता ही नहीं चलता. पर आज यह क्या हुआ? वह चुप रहा तो मैंने दोबारा कहा,‘‘सब ठीक है ना? आज अचानक यह बड़ी-बड़ी बातें!’’
वह एकदम चुप रहा. मैंने कहा,‘‘अब बोलो भी हुआ क्या है?’’
वह बताने लगा. ‘‘कल शाम को एक महिला ने टैक्सी बुक कराई. तय किराया 80 रुपया हुआ. पर उसे जहां जाना था, वह उस जगह से दो किलोमीटर और आगे थी. जिस जगह की बात हुई थी, मैंने उस जगह पर उसे उतरने के लिए कहा, तो बोली,‘भैया घर थोड़ी सी दूर है, मेरे घर तक मुझे छोड़ दो.’ मैंने सोचा ठीक है. पर भाई ऐसा कह कर तो वह मुझे दो किलोमीटर आगे ले गई. फिर जब वह उतरी तो मैंने कहा कि यहां तक का किराया 120 होता है. उसने तुरंत कहा,’80 रुपए मिलेंगे.’ मैंने फिर कहा,‘आप मुझे दो किलोमीटर आगे तक ले कर आ गई हैं तो इस हिसाब से किराया ज़्यादा बनता है.’ वह मुझसे बहस करने लगी. मैंने बार-बार उसको समझाने की कोशिश की, पर उसने एक न सुनी. मैं भी अपनी बात पर अड़ा रहा. मुझे झुकता न देख वह बोली,‘चुपचाप 80 रुपए रखो और निकलो यहां से, नहीं तो शोर मचा दूंगी. यह मेरा मोहल्ला है, थोड़ा चिल्लाते ही तुम्हारी गाड़ी और तुम्हारी इज़्ज़त दोनों की बारह बजा देंगे यहां के लोग.’ बहुत आश्चर्य हुआ इतनी सभ्य दिखने वाली महिला और यह हरकत! लगा अपनी कोई इज़्ज़त ही नहीं है. भगवान ने तो सबको इंसान के रूप में भेजा है, समान ही बनाया है फिर उसकी इज़्ज़त, इज़्ज़त है और मेरी कुछ भी नहीं!’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैंने पूछा
‘‘फिर क्या था, मैं भी उसको 80 रुपए वापस कर आया. बोला मेरी इज़्ज़त ना करो कोई बात नहीं, इतनी बेईमानी अच्छी बात नहीं. जैसी तुम्हारी इज़्ज़त, वैसी ही मेरी. रखो ये 80 रुपए, कोई अच्छी किताब ख़रीदना. मेरे नज़रों में तुम अपनी इज़्ज़त खो चुकी, वह तो नहीं ख़रीद सकती, पर अच्छी किताब पढ़ना और आगे से अपनी इज़्ज़त के बराबर ही दूसरों की इज़्ज़त समझना.’’
‘‘वाह रघु, क्या बात कही! शाबाश. बहुत ही अच्छा किया तुमने.’’
मैं उसकी पीठ थपथपा रही थी, पर मन में उस महिला के द्बारा किए व्यवहार के लिए शर्मिंदा भी हो रही थी. भगवान ने शरीर की रचना में स्त्री का हृदय, पुरुषों के हृदय की तुलना में आकार में छोटा बनाया है, पर उस महिला की इस हरकत ने यह साबित भी कर दिया. घटना सुनकर कम वज़न का होते हुए भी मेरा दिल बहुत भारी हो गया था आज.

Illustration: Pinterest

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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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