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कहावतों का चक्कर: कहानी कहावतों के नफ़ा-नुक़सान की (लेखक: हरिशंकर परसाई)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 16, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Harishankar-parsai_Kahani
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हम सभी स्कूली दिनों में कहावतें, सुभाषित रटते हैं. क्या फ़ायदा होता है इन कहावतों और सुभाषितों का? व्यंग्य सम्राट हरिशंकर परसाई से बेहतर भला कौन बता सकता था.

जब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था, तब हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक को कहावतें और सुभाषित रटवाने की बड़ी धुन थी. सैकड़ों अंग्रेज़ी कहावतें उन्होंने हमें रटवाई और उनका विश्वास था की यदि हमने नीति वाक्य रट लिए, तो हमारी ज़िंदगी ज़रूर सुधर जाएगी. हमारी ज़िंदगी सुधरी या बिगड़ी, इसका निर्णय करने का समय अभी नहीं आया, पर हमारे कहावत प्रेमी शिक्षक ‘ऑनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी’ रटवाते-रटवाते एक बार लड़कों की फ़ीस खा गए और बर्खास्त कर दिए गए.
उनके रटाए उन सैकड़ों सुभाषितों, कहावतों और नीति वाक्यों में से कई के बारे में तब से अभी तक कई शंकाएं उठती रही हैं. एक कहावत है,‘लुक बिफ़ोर यू लीप’ यानी कूदने के पहले देख लो. मैं तभी सोचता था कि जो कूदने के पहले देख लेगा, वह क्या ख़ाक कूदेगा? उसकी हिम्मत भी होगी? जिसे कूदना है, उसे बिना देखे ही कूद जाना चाहिए,‘लीप बिफ़ोर यू लुक!’
एक और कहावत रटाई गई थी,‘ए मैन इज़ नोन बाई द कंपनी ही कीप्स’ कहावत ठीक है. पर पीछे हमने ऐसे कई आदमी देखे जिनकी पत्नियां अनेक उल्लेखनीय और गोपनीय कारणों से चर्चा का विषय बन जाती हैं. एक ऐसे जोड़े को नज़दीक से जानते थे.
पत्नी कितनी ही समितियों में जाती, भाषण देती और ख़ूब नाम कमाती. पति महाशय को पहले कोई नहीं जानता था, पर अब तो सभी जानने लगे,‘फलां देवी के पति यही हैं.’ तब हमें लगा ज़्यादा ठीक कहावत यों होगी,‘ए मैन इज़ नोन बाई द वाइफ़ ही कीप्स!’ एक और कहावत रटी थी,‘ब्लड इज़ थिकर दैन वॉटर.’ पिछले साल की बात है. एक सज्जन बड़े पूर्ण-कंठ (फुल थ्रोटेड) मार्क्सवादी थे. होटलों में बैठकर युवकों को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद समझाते थे. एक चुनाव में उनके बड़े भाई जनसंघ की ओर से चुनाव के लिए खड़े हुए. हमारे मार्क्सवादी भाई उम्मीदवार को छोड़कर प्रतिक्रियावादी भाई का प्रचार करने लगे. लोग हैरत में कहते,‘बड़ा आश्चर्य है! यह तो मार्क्सवादी था.’ हम समझ गए,‘ ब्लड इज़ थिकर दैन मार्क्सिस्म.’
एक सुभाषित जिसने अभी तक परेशान किया, वह है,‘लव द नेबर’ अपने पड़ोसी को प्यार करो. अच्छी बात है. करेंगे. पर क्यों? हर पड़ोसी को प्यार क्यों करें? यह हमारा पड़ोसी हमारे द्वार के सामने कचरा फेंकता है, उसे तो हम प्यार करें. और हमसे चौथे मकान में तहसीलदार का मुंशी रहता है. गौ आदमी है, उसे प्यार क्यों नहीं करें? ऐसे ही प्रश्न तब मेरे बाल मन में उठते थे. परेशान था कि आख़िर इस सुभाषित का प्रयोजन क्या है? मेरे पड़ोस में मेरा सहपाठी प्रकाशचंद्र रहता था. वह गणित में बहुत होशियार था और में गणित में बहुत बुध्दू, क्योंकि मुझे तो लेखक के व्यर्थत्व संस्कार डालने थे. प्रकाश मुझे गणित के पर्चे में नक़ल कराता था. मुझे यह समझ में आया कि सुभाषित में पड़ोसी को प्यार करने कि सलाह इसलिए दी गई है कि यदि पड़ोसी गणित में होशियार हुआ और तुम कमज़ोर हुए, तो वह तुम्हें नक़ल कराएगा.
फिर एक दिन अचानक यह सुभाषित मेरी नज़र से गिर गया. उस दिन सुना कि गणेश बाबू पिट गए. बड़ों कि बातों से जाना कि वे पड़ोस में रहने वाली एक स्त्री से प्यार करने लगे थे. आज दोपहरी में वे उसकी हथेली अपने हाथ में लेकर उसका भाग्य पढ़ रहे थे कि इतने में उनका ही भाग्य-निर्णय हो गया. उसके भाई ने देख लिया, बाप को पुकारा और बाप बेटे ने गणेश बाबू को पीटा.
बेचारे गणेश बाबू ने इस महान सुभाषित के अनुसार ही काम किया था. ‘नेबर’ का अर्थ पड़ोसी भी होता है और पड़ोसिन भी. गणेश बाबू ने ‘नेबर’ को प्यार किया. क्या गुनाह किया? फिर पिटे क्यों? सोचा, यह सुभाषित ही झूठा है. कहना यह चाहिए कि पड़ोसी को चाहे करो, पर ‘पड़ोसिन’ से प्यार मत करो, नहीं तो किसी दिन उसके बाप भाई तुम्हारी मरम्मत कर देंगे. पता नहीं किसने, पड़ोसी को प्यार करने का यह सुभाषित गणेश बाबू जैसे भोले आदमियों को मुसीबत में डालने के लिए बना दिया.
सुभाषित का सच्चा प्रयोजन तब भी मेरी समझ में नहीं आया था. सत्य देश-काल सापेक्ष तो होता ही है, अवस्था सापेक्ष भी होता है. मेरी अवस्था ज्यों ज्यों बढ़ने लगी, त्यों त्यों सत्य के नवीन-नवीन स्तर उभरने लगे. कॉलेज में पढ़ता था, तब पिताजी ने मकान बदला. बदलने कि क्रिया में एक कहावत और झूठी पड़ी. कहा है,‘टाइम इज़ मनी’, समय ही धन है. पिताजी के पास समय ही समय था. धंधा बंद हो गया था इसलिए समय ख़ूब था, काटे नहीं कटता था. पर ‘मनी’ धीरे-धीरे कम होता गया और आख़िर हमारा निजी मकान बिका और हम किराए के मकान में आए. पिताजी का टाइम ‘मनी’ बना ही नहीं, ‘मनी’ का दुश्मन ही बन गया. हमारे पड़ोस में एक तरुणी रहती थी-सुंदरी थी और ध्यान देनेवाली थी. स्त्रियां दो प्रकार कि होती हैं-ध्यान देने वाली और न ध्यान देने वाली. अगर आप किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो नतीजा इस बात पर निर्भर है कि आपके पड़ोस में ध्यान देने वाली रहती है या ध्यान न देने वाली. मेरा रिज़ल्ट तो उसी दिन खुल गया जिस दिन मैंने देखा कि पड़ोसिन ध्यान देनेवाली है. मैंने अंग्रेज़ी, दर्शन, अर्थशास्त्र सब उसे समर्पित कर दिए और जब फ़ेल हुआ, तब होश आया कि मैं कहावत के चक्कर में आ गया. पर कहावत का क्या दोष? अगर ‘नेबर’ सुन्दर है, तो बिना कहावत जाने भी उससे प्यार करना ही होगा. तो क्या यह सुभाषित कुरूपाओं के लिए प्रेमी की व्यवस्था करने के प्रयोजन से बनाया गया है?
मैंने कहा था कि अवस्था ज्यों ज्यों बढ़ी, त्यों त्यों सत्य के नए स्तर खुलने लगे और ‘पड़ोसी से प्यार करो’ में मुझे नए नए प्रयोजन दिखने लगे. लगभग दो साल पहले मैंने फिर मकान बदला. वहां आने के दूसरे ही दिन मैं बरामदे में बैठा सुबह का अख़बार पढ़ रहा था कि इतने में बड़ी चौड़ी मुस्कान धारण किए पड़ोसी आए. बोले,‘नमस्कार! आ गए! बड़ा भाग्य है हमारा, जो आपके पड़ोस का सौभाग्य प्राप्त हुआ. कहा है
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध
तुलसी संगत साधू की, हरै कोटि अपराध
मैं सोचने लगा साधू कौन है मैं या वे. मैंने एक-दो नम्रतासूचक वाक्य कहे. फिर मौन. फिर मैंने कहा की आज मौसम अच्छा है, कल ख़राब था, शायद कल और अच्छा रहे. फिर मौन. तब मैंने कहा यद्यपि मकान में कुछ असुविधाएं हैं, फिर भी सुविधाएं हैं. सामने मैदान नहीं है, पर मैदान भी किस काम का? खिड़कियां कम हैं, पर ज़्यादा खिड़कियां होना भी ठीक नहीं! वे ‘जी हां’ कहकर सहमति जतलाते गए. फिर हम मौन! इस बार मौन तोड़ा. बोले,‘और क्या समाचार है?’
‘सब ठीक है.’ मैंने कहा.
वे अख़बार की ओर देखते हुए बोले,‘वीटो तो हो गया.’
मैं मकान और मौसम की बात से एकदम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर कूद पड़ने को तैयार नहीं था. पूछा,‘कैसा वीटो?’
वे बोले,‘सुरक्षा परिषद में कश्मीर सम्बन्धी प्रस्ताव को रूस ने वीटो कर दिया न.’
मैंने कहा,‘हां-हां, कल के अख़बार में पढ़ा था.’
वे बोले,‘हां, डिटेल्स आज के अख़बार में होंगे. यह आज का ही अख़बार है न? देखूं ज़रा.’ मेरे हाथ से उन्होंने अख़बार ले लिया और बोले,‘अच्छा आप फ्री प्रेस लेते हैं? इट इज़ अ ग्रेट पेपर. मैं पहले इसी को लेता था.’ उन्होंने उसे ज़रा देर उल्टा पलटा और सहसा उठकर खड़े हो गए. बोले,‘अभी घंटे भर में लौटा दूंगा.’ और अख़बार लेकर चल दिए.
वे रोज़ सबेरे फ़रिश्ते की तरह मुस्कुराते हुए आते और नमस्कार करके पिछले दिन के समाचार का कोई प्रसंग उठा देते,‘और क्या समाचार है?’
‘सब ठीक है.’
‘मोहम्मद अली तो हटा दिए गए!’
‘हां कल पढ़ा तो था .’
‘अब क्या हो रहा है पाकिस्तान में? आज के अख़बार में होगा शायद. ये आज ही का है न! अभी घंटे भर में लौटता हूं.’
कभी कहते
‘टीटो तो आ गए.’
‘हां, परसों दिल्ली पहुंचे.’
‘पंडितजी से बातें हो रही होंगी. आज तो अख़बार में आया होगा. देखूं ज़रा. अभी घंटे भर में भेजता हूं.’
बीच में मैंने ‘फ्री प्रेस’ बंद करके ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ लेना शुरू कर दिया. उन्होंने देखा तो बोले,‘अरे आप पत्रिका लेने लगे. वाह! इट इज़ अ ग्रेट पेपर! मैं पहले इसी को लेता था.’
वे मुझे बेहद प्यार करते थे. सबेरे मुस्कुराते हुए आते, प्रेम से मेरा हाल-चाल पूछते, दो घड़ी बैठते! वे धीरे-धीरे मरी झंझटें कम करते गए. अब वे अख़बारवाले को रोकर पहले ही अख़बार ले लेते और फिर पढ़कर मेरे पास लाते और बतला देते क्या क्या ख़ास बात पढ़ने लायक है. इस तरह व्यर्थ का बहुत सा पढ़ने से मुझे बचा लेते. कभी-कभी उनके बच्चे भी अपने ढंग से अख़बार पढ़ डालते; तब वे मेरे पास आकर कहते,‘स्साले बच्चों ने अख़बार फाड़ डाला. मेरी तो नाक में दम है. खैर कोई ख़ास बात नहीं थी. मुख्य समाचार ये थे…’ वे समाचार सुना जाते. इस तरह मुझे पढ़ने का परिश्रम नहीं करना पड़ता. फिर वे शाम को अख़बार दुबारा बुलाने लगे. फिर यह सोचकर कि पुराने बेकार अख़बार को वापिस करके मेरे छोटे कमरे क्यों कचरा जमा करूं, वे अख़बार अपने ही घर रखते जाते. जब काफी अख़बार जमा हो जाते, तो वे बेचारे ख़ुद कबाड़ी को बेच देते और यह सोचकर कि मुझ साधू को माया में फ़साना ठीक नहीं, पैसा भी खुद ही रख लेते.
मैं दो साल उनका पड़ोसी रहा . इस अवधि में मेरे सामने उस सुभाषित ‘लव द नेबर’ का एक और नया प्रयोजन खुला, पड़ोसी को क्यों प्यार करें? इसलिए कि उसका अख़बार मांगकर पढ़ सके और उसकी रद्दी बेच सकें. जिस महापुरुष ने इस सुभाषित को बनाया वह महान भविष्यदृष्टा रहा होगा. वह जानता था, आगे चलकर अख़बार निकालेंगे और तब पड़ोसी का अख़बार पढ़ने का प्रसंग उपस्थित होगा. उस समय यह सुभाषित मानवता के काम आएगा.
वैसे अख़बार मांगनेवालों से दुनिया अच्छा सुलूक नहीं करती. उन प्रेमी आत्माओं से चिढ़ती है. पर मेरा विश्वास है कि अख़बार मांगनेवाले पड़ोसी से बढ़कर आपका शुभचिंतक दूसरा नहीं. वह आपके दीर्घ जीवन की कामना करता है, जिससे वह आजीवन आपका अख़बार पढ़ सके. वह आपसे पहले संसार से विदा होना चाहता है, ताकि वह एक दिन भी बिना अख़बार पढ़े इस दुनिया में न जिए. मेरा विश्वास है कि लम्बी उम्र के लोगों के जीवन का अध्ययन किया जाए, तो मालूम होगा कि पड़ोसियों को अख़बार देने वाले लोग ही लम्बी उम्र पाते हैं.
अख़बार मांग लेना और उसे रखे रहना कोई अनैतिक काम नहीं है. असल में इन चीज़ों के नैतिकता दूसरे क़िस्म की होती है जिसे ए.जी . गार्डनर ने ‘अम्ब्रेला मॉरल्स’ कहा है,‘छाते की नैतिकता’यह है कि पानी गिरते में आप अपने दोस्त का छाता ले गए और फिर लौटाया नहीं, तो यह हड़पना नहीं हुआ. आप लौटना भूल गए. बस! किसी की पुस्तक मांगकर पढ़ने के बाद हम उसे लौटते नहीं हैं. हम क्या उसकी पुस्तक दबा लेते हैं? नहीं! हम महज़ उसे लौटना भूल जाते हैं. इस नैतिकता का मसीहा वह आदमी था जो अपने दोस्त को अपना पुस्तकालय दिखाने ले गया. हज़ारों बढ़िया पुस्तकें थीं. मित्र देखकर दंग रह गया. बोला,‘बड़ा भारी स्टॉक है आपके पास पुस्तकों का! पर ये ऐसी बेतरतीब पड़ी हैं. इन्हें आप आलमारियों में रखिए.’ जवाब मिला,‘सो कैसे हो सकता है? पुस्तकें तो मांगे से सब दे देते हैं, पर कोई अलमारी तो देता नहीं है.’ इस नैतिकता का पालन करनेवाले बड़े बड़े धर्मात्मा होते हैं. गार्डनर ने ही कहा है कि एक श्रेष्ठ धर्मोपदेशक पादरी पहले दर्जे के डब्बे में मरे पाए गए. जब उनकी तलाशी ली गई तो उनकी जेब में तीसरे दर्जे का टिकट निकला.
अख़बार मांगकर रोज़ पढ़ना और उसकी रद्दी बेच लेना कोई ग़लत काम नहीं है. यह प्रेम प्रकट करने का तरीक़ा है. अब अगर कोई कहता है कि उसका पड़ोसी उससे प्यार करता है, तो मैं एकदम समझ जाता हूं कि वह रोज़ इसका अख़बार पढ़ता होगा.

Illustrations: Pinterest

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