सियारामशरण गुप्त की कहानी ‘काकी’ बालमन और मनोविज्ञान को बयां करती एक छोटी-सी कहानी है. श्यामू एक छोटा बालक है. उसकी मां, जिसे वह काकी कहता है, गुज़र जाती है. जीवन और मरण की सच्चाई से अनजान श्यामू काकी को वापस लाने की तब कोशिश करने लगता है, जब उसे पता चलता है कि उसकी काकी आसमान में राम के पास गई है.
उस दिन बड़े सवेरे श्यामू की नींद खुली तो उसने देखा कि घरभर में कुहराम मचा है. उसकी मां नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए कंबल पर भूमि-शयन कर रही है और घर के सब लोग उसे, घेरकर बैठे बड़े करुण ढंग से विलाप कर रहे हैं.
लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाकर ले जाने लगे तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया. लोगों के हाथ से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा. बोला, ‘‘काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहां लिए जा रहे हो? मैं न जाने दूंगा.’’
लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाए. काकी के दाह संस्कार में उसे नहीं जाने दिया. एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही संभाले रही.
यद्यपि बुद्धिमान गुरुजनों ने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहां गई है, परंतु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका. आस-पास के अबोध बालकों के मुंह से ही वह प्रकट हो गया. यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी कहीं नहीं, ऊपर राम के यहां गई है. काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमशः शांत हो गया, परंतु शोक शांत न हो सका. वर्षा के अनंतर एक दो दिन में ही पृथ्वी के ऊपर का पानी तो अगोचर हो जाता है, परंतु भीतर-ही-भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अंतस्तल में वह शोक जाकर बस गया था. वह प्रायः अकेला बैठा-बैठा शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता.
एक दिन उसने ऊपर आसमान में पतंग उड़ती देखी. न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा. विश्वेश्वर के पास जाकर बोला, ‘‘काका! मुझे एक पतंग मंगा दो.’’
पत्नी की मृत्यु के बाद विश्वेश्वर अन्यमनस्क रहा करते थे. ‘‘अच्छा, मंगा दूंगा,’’ कहकर वे उदास भाव से कहीं और चले गए.
श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कंठित था. वह अपनी इच्छा किसी तरह रोक न सका. एक जगह खूटी पर विश्वेश्वर का कोट टंगा हुआ था. इधर-उधर देखकर उसने एक स्टूल सरकाकर रखा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोलीं. उनमें से एक चवन्नी का आविष्कार करके वह तुरंत वहां से भाग गया.
सुखिया दासी का लड़का भोला, श्यामू का समवयस्क साथी था. श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा, ‘‘अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मंगा दो. देखो, ख़ूब अकेले में लाना, कोई जान न पाए.’’
पतंग आई. एक अंधेरे घर में उसमें डोर बांधी जाने लगी. श्यामू ने धीरे से कहा, ‘‘भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूं.’’ भोला ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं, किसी से नहीं कहूंगा.’’
श्यामू ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘मैं यह पतंग ऊपर राम के यहां भेजूंगा. इसे पकड़कर काकी नीचे उतरेंगी. मैं लिखना नहीं जानता, नहीं तो इस पर उनका नाम लिख देता.’’
भोला श्यामू से अधिक समझदार था. उसने कहा, ‘‘बात तो बहुत अच्छी है, परंतु एक कठिनता है. यह डोर पतली है. इसे पकड़कर काकी उतर नहीं सकती. इसके टूट जाने का डर है. पतंग में मोटी रस्सी हो, तो सब ठीक हो जाएगा.’’
श्यामू गंभीर हो गया. मतलब यह कि बात लाख रुपये की सुझाई गई है, परंतु
कठिनता यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मंगाई जाए. पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-माया के जला आए हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ नहीं देंगे. उस दिन श्यामू को चिंता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आई.
पहले दिन की तरक़ीब से दूसरे दिन उसने विश्वेश्वर के कोट से एक रुपया निकाला. ले जाकर भोला को दिया और बोला, ‘‘देख भोला, किसी को मालूम न होने पाए. अच्छी-अच्छी दो रस्सियां मंगा दे. एक रस्सी ओछी पड़ेगी. जवाहर भैया से मैं एक काग़ज़ पर ‘काकी’ लिखवा रखूंगा. नाम की चिट रहेगी, तो पतंग उन्हीं के पास पहुंच जाएगी.’’
दो घंटे बाद प्रफुल्ल मन से श्यामू और भोला अंधेरी कोठरी में बैठे-बैठे पतंग में रस्सी बांध रहे थे. अकस्मात् शुभ कार्य में विघ्न की तरह उग्र रूप धारण किए हुए विश्वेश्वर वहां आ घुसे. भोला औ श्यामू को धमकाकर बोले, ‘‘तुमने हमारे कोट से रुपया निकाला है?’’
भोला सकपकाकर एक ही डांट में मुखबिर हो गया. बोला, ‘‘श्यामू भैया ने रस्सी और पतंग मंगाने के लिए निकाला था.’’
विश्वेश्वर ने श्यामू को दो तमाचे जड़कर कहा, ‘‘चोरी सीख कर जेल जाएगा? अच्छा, तुझे आज अच्छी तरह समझाता हूं.’’ यह कहकर फिर तमाचे जड़े और कान मलने के बाद पतंग फाड़ डाली. अब रस्सियों की ओर देखकर कहा, ‘‘ये किसने मंगाई?’’
भोला ने कहा, ‘‘इन्होंने मंगाईं थी. कहते थे, इनसे पतंग तानकर काकी को राम के यहां से नीचे उतारेंगे.’’
विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गए. उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी. उस पर चिपके हुए काग़ज़ पर लिखा हुआ था ‘काकी’.
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