समय के साथ रिश्ते भी बदल सकते हैं, बता रही है महीप सिंह की रचना ‘काला बाप गोरा बाप’. अपनी छोड़ी हुई पत्नी और बेटी से सालों बाद मिलने जाने के बाद एक आदमी अपने को उनकी ज़िंदगी का एक ग़ैरज़रूरी हिस्सा पाता है.
जमीला ने ख़त की चार पंक्तियां पढ़ी और उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘ताज्जुब है.’ फिर एक उपेक्षा और बेपरवाही भरी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर बिखर गई. वह पत्र पड़ती गई. पढ़ चुकने के बाद कुछ देर बैठी वह कुछ सोचती रही. फिर कलम-दवात उठाकर उसका उत्तर लिखने बैठ गई. उसने लिखा,‘समझ में नहीं आता तुम्हें क्या कहक़र पत्र लिखूं तुमने मेरी जमीला लिखा है. एक ज़माना था जब तुम ‘मेरी जमीला’ लिखते थे और मैं जवाब में ‘मेरे सिरताज’ लिखा करती थी. पर आज ‘मेरी जमीला’ लिखने का हक़ न तुम्हारे पास है, न ‘मेरे सिरताज’ लिखने का हक़ मेरे पास. खैर, बिना किसी संबोधन के यह ख़त तुम्हें लिख रही हूं.
‘सचमुच तुम्हारा ख़त पाकर मैं हैरान रह गई. दस साल के बाद तुम्हें मेरी और अपने बच्चों की याद कैसे आ गई? लगता है कि सकीना बीबी से भी तुम्हारा दिल भर गया है. पर तुम्हें काहे की फिक्र है. अब तीसरी बीवी ले आओ. आख़िर मर्द हो न, बिना तीन-चार बीवियां रखे तुम्हारी मर्दानगी का सबूत कैसे मिलेगा.’
‘तुमने लिखा है, तुम एक बार मुझसे मिलना चाहते हो. अपनी लड़कियों को देखना चाहते हो. वैसे मुझे इसमें कोई एतराज नहीं. पर मैं समझती हूं हमसे मिलकर तुम्हें ख़ुशी नहीं होगी. जिस हालत में तुम दस साल पहले हमें दिल्ली में बेसहारा छोड़कर सकीना के साथ ऐश की ज़िंदगी गुज़ारने ग्वालियर चले गए थे, हमारी हालत आज उससे बहुत अच्छी है. तुम्हारी शीरी अब सोलह साल की एक ख़ूबसूरत लड़की है. वह फ़िल्मों में काम करती है, नाचती है, गाती है और परदा नाम को भी नहीं करती. मुझे यक़ीन है, तुम उसका यह रूप देखकर घबरा जाओगे. उससे मिलने के लिए घर पर न जाने कितने मर्द रोज़ आते हैं. अपनी फ़िल्म में उसे लेने के पहले तरह-तरह के प्रोड्यूसर तरह-तरह से उसके शरीर की गोलाइयां नापते हैं. अख़बार-नवीस हर ढंग को उसकी फ़ोटुएं उतारते हैं, क्योंकि एक फ़िल्म-स्टार की पब्लिसिटी के लिए यह सब बहुत ज़रूरी है. क्या तुम यह सब बर्दाश्त कर पाओगे?
‘और हां, शीरी का फ़िल्मी नाम है कामिनी बोस. यह तो तुम जानते ही होगे कि यहां फ़िल्मों में हिंदू नाम रखने का रिवाज़ है और अब तो नाम के साथ हिंदू जाति भी लगाई जाती है.’
‘और शहनाज, जिसे तुम दुधमुंही छोड़ गए थे, अब ग्यारह साल की हो गई है. स्कूल में पढ़ती भी है और सरयू महाराज से डांस सीखती है. बात करने में बड़ों-बड़ों के कान काटती है. दो-चार पिक्चरों में छोटे-मोटे रोल भी कर चुकी है. लोग कहते हैं, वह बहुत चमकता हुआ सितारा बनेगी.
‘और रही मेरी बात. मुझे देखकर तो तुम पहचान भी नहीं पाओगे. तुम्हारी वह जमीला-जो पराए मर्द की छाया भी नहीं देखती थी, बुर्के के बगैर घर से बाहर पांव भी नहीं रखती थी, और उसके मुंह में जुबान है, यह तो तुम भी नहीं जानते थे-आज ऐसा बनाव-सिंगार करती है कि उसकी ढलती हुई उमर भी धोखा खा जाती है. वह शीरी के साथ स्टूडियो जाती है. परदा उसके लिए गुज़रे ज़माने की बात बन चुकी है. तुम शायद जानते नहीं, फ़िल्म लाइन में बड़े-बड़े घाघ है. पर तुम्हारी बेजुबान जमीला अब बड़े-बड़े घाघ प्रोड्यूसरों के भी कान काट लेती है.
‘और आख़िर में तुम्हें अनवर की भी बात बताती हूं. मासूम जमीला को जब तुम दुनिया की ठोकरें खाने के लिए छोड़ गए, तब यही अनवर उसका सहारा बना. वह एक गोरा ख़ूबसूरत नौजवान था, पर ज़िंदगी से ना-उम्मीद. कई साल से वह बंबई की फ़िल्म लाइन में अपनी किस्मत आज़मा रहा था. लेकिन क़ामयाबी उससे कोसों दूर रही उन दिनों वह किसी काम से दिल्ली आया. मेरी उससे मुलाक़ात हो गई. मेरा हाल जानकर उसने मुझसे शादी की पेशकश की. उस वक्त मुझे ताज्जुब हुआ था कि ऐसा ख़ूबसूरत नौजवान भला मुझ जैसे बेसहारा दो बेटियों वाली औरत से, निकाह करने को क्यों तैयार है. मगर आहिस्ता-अहिस्ता मैं सब समझ गई. हिंदुस्तान में लोग लड़कियों को मुसीबत समझते हैं. ख़ासतौर से बे-बाप की लड़कियां तो फूटी आंख नहीं सुहातीं. लेकिन अनवर की तजुर्बेकार निगाहें जानती थीं कि फ़िल्म लाइन में यही बदनसीब लड़कियां सोने के अंडे देने वाली मुर्गियों में बदल जाती हैं. मुझसे शादी करने की शायद उसकी यही वजह हो. और वह अपने मकसद में क़ामयाब भी हुआ है. आज वह उन शीरी और शहनाज जैसी लड़कियों का बाप है, जो सैकड़ों कमाती हैं. कल हज़ारों-हज़ारों कमाएंगी और ख़ुदा ने चाहा तो उनका पांव लाखों में भी पड़ेगा.
‘लेकिन इतना मैं ज़रूर कहूंगी कि अनवर ने चाहे जिस ख़ुदगर्जी की वजह से मुझसे शादी की हो वह कभी निरा ख़ुदगर्ज नहीं रहा. शीरी और शहनाज को वह अपनी बेटियों की तरह ही प्यार करता है. दोनों लड़कियां उसे ही अपना बाप समझती हैं और मैं तो उसके एक बेटे की मां भी हूं. अनीस पांच साल का होने आया है.
‘इतनी सब बातें जानकार भी तुम यहां आना चाहोगे? अगर आना चाहो तो मुझे कोई एतराज नहीं है. हां, एक बात तुम्हें-ज़रूर बता दूं तुम्हारी लड़कियों पर मैं यह नहीं जाहिर होने दूंगी कि तुम उनके बाप हो.’
‘और क्या लिखूं?’
किसी ज़माने में तुम्हारी
‘जमीला’
ख़त लिखकर जमीला बेफिक्र हो गई. ऐसा ख़त पाकर भी यूनुस उससे या उसकी लड़कियों से मिलने आ सकता है, इसकी उसे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी. परंतु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उसने एक हफ़्ते बाद देखा, दस साल पहले के यूनुस की हल्की-हल्की पहचान बताने वाला एक काला, बीमार और बूढ़ा-सा आदमी दरवाज़े पर खड़ा है. उस समय जमीला घर में अकेली ही थी. अनवर शीरी को लेकर शूटिंग पर गया था. शाहनाज और अनीस स्कूल गए थे.
नहा-धोकर यूनुस बैठक में आ बैठा. उसकी निगाह ने एक-एक कर कमरे की हर चीज़ को नापा-सोफ़ासेट, रेशमी परदे, रेडियो, फूलदान और तरह-तरह की चीज़ें, जिन्हें उसने बड़े लोगों की दुनिया का अंग मानकर कभी अपनी कल्पना में भी प्रविष्ट नहीं होने दिया था. फिर उठकर वह दीवारों पर लगे चित्रों को देखने लगा. एक बड़ी ख़ूबसूरत-सी लगने वाली लड़की की कई तस्वीरें वहां लगी हुई थीं. एक तस्वीर में उसके बाल काली घटा के रूप में बिखरे थे. उस लड़की का चेहरा सचमुच चांद-सा दिखाई दे रहा था. दूसरी तस्वीर में वह एक कसी हुई पैंट और आधी आस्तीन की कमीज पहने, हंसती हुई कोई अंग्रेज़ी डांस कर रही थी. तस्वीर में उसका अंग-अंग उभरा हुआ नज़र आ रहा था. तीसरी तस्वीर में वह जमीला पर कुहनियां टिकाकर बैठी थी. बाल छितरे हुए थे और भीगी हुई आंखों से आंसू ढुलककर गाल पर आ टिके थे.
‘पहचानते हो, ये किसकी तस्वीरें हैं?’ जमीला ने पीछे से मेज़ पर चाय रखते हुए पूछा. यूनुस ने उसकी ओर देखा और चुप रहा. शायद उसने अपनी चुप्पी से यह जताया कि ये तस्वीरें किसकी हैं, यह जानकर उसे अधिक आश्चर्य नहीं होगा.
‘पहचान सकते हो अपनी शीरी को?’ जमीला ने फिर पूछा और यूनुस फिर चुप, रहा. जैसे उसने कहा, यह उसकी कल्पना के परे की चीज़ नहीं है. उसने एक निगाह से सभी तस्वीरों को फिर देखा और बैठकर चाय पीने लगा.
शाम को शहनाज स्कूल से आई तो युनूस सोफे पर टांगें फैलाए बीड़ी पी रहा था. वह उसे घूरती हुई मां के कमरे में चली गई और बोली, ‘अम्मी कौन है यह बूढ़ा? बीड़ी की राख से सारा फ़र्श ख़राब कर रहा है.’
जमीला ने शहनाज को एक नज़र देखा. फिर बोली, ‘अपने मेहमान हैं, बेटा. हां, देख, ऐश ट्रे कहीं इधर-उधर रखी होगी. उठाकर उनके पास रख आओ.’
शहनाज ने ट्रे यूनुस के सामने रखी दी और बिना कुछ बोले घूरती हुई वापस चली आई. यूनुस ललचाई आंखों से उसे देखता रहा. फिर शीरी आई और अनवर भी. यूनुस ने देखा यह वही लड़की है, जिसकी इतनी सारी तस्वीरें कमरे में लगी हुई हैं. उसकी आंखों में पांच-छह साल की वह शीरी दौड़ने लगी, जो गंदी सी फ्राक पहने ‘अब्बा’ कहक़र उसके पैरों से लिपट जाया करती थी. क्या यह वही शीरी है? उसकी बेटी शीरी. वह उससे कुछ गज के फासले पर थी, परंतु यूनुस को लग रहा था, जैसे यह फासला कुछ गजों का नहीं है. यह तो केवल फासला है. ऐसा फासला जिसे नापने के लिए गज-मील कुछ बने ही नहीं हैं. जमीला ने सबसे कह दिया, उसके दूर का रिश्तेदार है और ग्वालियर से मिलने आया है.
रात को खाना खाते समय ख़ूब हंसी-ठठ्ठा हुआ. स्टूडियों की बातें, शूटिंग की बातें, प्रोड्यूसर की बातें, इतनी बातें कि सारा वातावरण बातों के लिए जल से भर गया. उसमें जैसे अनवर और जमीला, शीरी और शहनाज, छोटी-छोटी डोंगियों की तरह उतराने लगे, हिलोरे लेने लगे. यूनुस जल में एक भारी पत्थर की तरह डूब गया. किसी को पता भी नहीं लगा कि इन थिरकती हुई किश्तियों के नीचे कोई पत्थर भी है.
रात को जमीला ने उसके सोने का प्रबंध बैठक में कर दिया. शीरी और शहनाज अपने कमरे में चली गई. अनवर, जमीला और अनीस अपने कमरे में सो गए. यूनुस बैठक में पड़ी चारपाई पर लेटा शीरी की तस्वीरें देखता रहा. वह सोचता रहा, कितनी ख़ूबसूरत है शीरी. कितनी प्यारी लगती है शहनाज. लेकिन ये तो उसकी बेटियां नहीं हैं. उसकी एक बेटी थी, गंदे फ्राक वाली सांवली सी जिसके बाल हमेशा मिट्टी से भरे रहते थे और जो उसे देखते ही ‘अब्बा’ कहक़र लिपट जाती थी. उसकी शहनाज एक टूटे से पालने में पड़ी रहती थी. फूलों की तरह खिली हुई. इन लड़कियों का बाप वह नहीं हो सकता. इनका बाप तो अनवर ही है-गोरा, तंदुरुस्त और रईस मालूम होने वाला अनवर.
शीरी और शहनाज ने उससे एक बात भी नहीं की. यूनुस ने कई बार उनसे बोलना चाहा, कुछ बात करनी चाही. पर वे चिकनी मछलियों की तरह हाथ से फिसलती रहीं और यूनुस उन्हें हाथ से छूटे हुए गैस के गुब्बारे की तरह देखता रहा.
दस साल पहले उसके छोटे-से घर में भी यही जमीला, यही शीरी और यही शहनाज थी. तब घर की एक-एक चीज़, एक-एक बात, एक-एक सांस उसके हाथ बंधी हुई थी. पर आज इससे पर में वह जमीला, शीरी और शहनाज तो है, किंतु बंधनों का एक धागा भी उसके चारों ओर नहीं है.
‘अम्मी, वह बूढ़ा फिर फ़र्श ख़राब कर रहा है.’ शहनाज जमीला से बोली,‘ऐश ट्रे पास रखी है, फिर भी उसकी बीड़ी की राख फर्श पर गिर रही है.’
जमीला को शहनाज की बात चुभी. बोली, ‘बेटी, किसी मेहमान के लिए ऐसा नहीं कहते. कोई बात नहीं, फ़र्श साफ़ हो जाएगा.’
शीरी स्टूडियो जाने के लिए तैयार हो चुकी थी. बैठक में अपनी अलमारी से उसने चूड़ियों का एक डिब्बा निकाला और अपनी साड़ी को मेल करने वाली चूड़ियां छांटने लगी. युनूस बैठा उसे एकटक देखता रहा. उसकी इच्छा हुई, वह शीरी को बेटी कहक़र बुलाए. उसको अपने पास बैठा ले. उससे कुछ बातचीत करे. लेकिन उसे लगा, यह काम बहुत मुश्क़िल है. उतना ही मुश्क़िल, जितना किसी अदना सिपाही का किसी शहजादी को बुलाना. वह बैठा साहस बटोरता रहा. इतने में शीरी चूड़ियां पहनकर मुड़ी. यूनुस उसे एक-टक देख रहा था. शीरी की नज़र उसकी नज़र से मिली. यूनुस की आंखों में वात्सल्य की तरलता उमड़ आई. तरलता का कुछ आभास शीरी को भी हुआ. वह मुस्करा दी. शीरी की मुस्कराहट यूनुस की नस-नस में बिजली बनकर दौड़ गई. यही अप्रत्याशित सौगात पाकर उसका हृदय तेज़ी से धड़कने लगा. उसके झुर्रियों भरे चेहरे पर आनंद की रेखा बिखर गई. उसके मुंह से निकल पड़ा,‘सुबह-सुबह कहां जाने को तैयार हो गई, बेटी.’ और फिर उसके चेहरे पर एक घबराहट फैल गई. उसे लगा उसने बहुत बड़ी बात कह दी है.
शीरी उसी तरह मुस्कराती हुई बोली,’शूटिंग पर जा रही हूं.’ और वह कमरे के बाहर निकल गई. युनुस को लगा, गहरी प्यास में ठंडे पानी की कुछ बूंदें उसके मुंह से गिर गई हैं. वह उठा और कमरे में इधर-उधर टहलने लगा. फिर शीरी की एक तस्वीर के सामने वह रुक गया और उसे देखने लगा. वहां से हटकर वह दूसरी तस्वीर के सामने वह रुक गया और उसे देखने लगा. वहां से हटकर वह दूसरी तस्वीर के सामने जा खड़ा हुआ. बहुत देर वह तीसरी तस्वीर को देखता रहा. तीसरी तस्वीर देख चुका तो फिर पहली के सामने आ खड़ा हुआ. फिर दूसरी. फिर तीसरी. उसने तस्वीरों के कितने ही चक्कर लगा डाले. उसे लगा ठंडा पानी की बूंदों से उसका गला आर्द्र हो गया है.
वह अलमारी के पास जा खड़ा हुआ. अलमारी के ऊपर कुछ किताबें रखी थीं. वह उन्हें उठाकर देखने लगा. किताबों पर शहनाज का नाम लिखा हुआ था. वह सोफ़े पर बैठकर उनके पृष्ठ उलटने लगा.
‘ऐ बुड्ढे, मेरी किताब क्यों उठाई?’
यूनुस ने चौंककर देखा. सामने गुस्से से लाल-पीली शहनाज खड़ी थी. ‘अम्मी, देखो न, यह बुड्ढा मेरी किताबें ख़राब कर रहा है.’ शहनाज रुआंसी होकर मां के कमरे की ओर देखती हुई बोली.
‘अरी क्या है?’ कहती हुई जमीला उस कमरे में आ गई. युनूस हक्का-बक्का-सा देख रहा था. शहनाज रोनी आवाज़ में बोल पड़ी, ‘देखो न, यह बुड्ढा….’
‘चुप, बदतमीज’, जमीला फट-सी पड़ी,‘अपने बाप को ऐसा कहते शर्म नहीं आती?’
‘बाप’ शब्द जैसे सारे कमरे में कड़कती हुई बिजली की तरह कौंध गया. जमीला की जैसे सुध-बुध ही मारी गई. यह उसके मुंह से क्या निकल गया. यूनुस को लगा, कहीं से उड़ता हुआ एक शब्द आया, उसके कानों से टकराया और उसे अनिश्चय के सागर में डुबोकर चला गया और शहनाज हक्की-बक्की-सी टुकुर-टुकुर देखती रही-कभी जमीला को, और कभी युनूस को. उसने एक नज़र भरकर यूनुस को फिर देखा और जमीला से बोली,’यह मेरा बाप है?’
जमीला संयत हो चुकी थी. एक नमी-सी उसकी आंखों में व्याप गई थी. बोली,’हां बेटी, यह तेरे बाप हैं.’
शहनाज ने एक बार फिर युनूस की ओर देखा और सहसा ही बोल पड़ी,’नहीं, नहीं, मैं ऐसा बाप नहीं लूंगी… हां.’
जमीला ने डांटा,‘पागल हुई है.’
शहनाज और मचली,’यह बाप नहीं लूंगी… हां… शीरी को गोरा बाप देती है
… अनीस को गोरा बाप देती है, और मुझे काला बाप… मैं यह काला बाप नहीं लूंगी
… नहीं लूंगी.’
वह फफक-फफफकर रोने लगी, जैसे भाई-बहन की तुलना में उसे एक-बड़ा घटिया खिलौना दिया जा रहा है. उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया जा रहा है. उसने यूनुस के हाथों से अपनी किताबें छीन ली और रोती हुई कमरे से बाहर निकल गई. कमरे की हवा का बोझ बढ़कर जमीला और यूनुस पर हावी हो गया. वे सुन्न-से हो गए. जमीला चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गई. दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. काफ़ी देर वे इसी तरह बैठे रहे. अंत में मौन यूनुस ने भंग किया. बोला,’ग्वालियर जाने के लिए गाड़ी कितने बजे मिलती है?’
‘पंजाब मेल तो करीब तीन बजे जाती है और पठानकोट शायद रात के दस बजे.’ जमीला ने छोटा-सा उत्तर दिया.
इसके साथ ही दोनों की नज़रें एक साथ कमरे में लगी घड़ी की ओर उठ गई. सवा दस बजे थे. फिर दोनों ने एक-दूसरे को देखा. युनुस की नज़र ने पूछा,’मुझे पंजाब मेल मिल सकती है?’
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