मशीनों के आगमन ने कई कलाओं और कलाकारों को हाशिए पर धकेल दिया. लाख की चूड़ियां बनाने वाले बदलू काका भी एक ऐसी ही कलाकार हैं. पर उन्होंने हारकर भी हार मानने से इनकार कर दिया है.
सारे गांव में बदलू मुझे सबसे अच्छा आदमी लगता था क्योंकि वह मुझे सुंदर-सुंदर लाख की गोलियां बनाकर देता था. मुझे अपने मामा के गांव जाने का सबसे बड़ा चाव यही था कि जब मैं वहां से लौटता था तो मेरे पास ढेर सारी गोलियां होतीं, रंग-बिरंगी गोलियां जो किसी भी बच्चे का मन मोह लें.
वैसे तो मेरे मामा के गांव का होने के कारण मुझे बदलू को ‘बदलू मामा’ कहना चाहिए था परंतु मैं उसे ‘बदलू मामा’ न कहकर बदलू काका कहा करता था जैसा कि गांव के सभी बच्चे उसे कहा करते थे. बदलू का मकान कुछ ऊंचे पर बना था. मकान के सामने बड़ा-सा सहन था जिसमें एक पुराना नीम का वृक्ष लगा था. उसी के नीचे बैठकर बदलू अपना काम किया करता था. बगल में भट्ठी दहकती रहती जिसमें वह लाख पिघलाया करता. सामने एक लकड़ी की चौखट पड़ी रहती जिस पर लाख के मुलायम होने पर वह उसे सलाख के समान पतला करके चूड़ी का आकार देता. पास में चार-छह विभिन्न आकार की बेलननुमा मुंगेरियां रखी रहतीं, जो आगे से कुछ पतली और पीछे से मोटी होतीं. लाख की चूड़ी का आकार देकर वह उन्हें मुंगेरियों पर चढ़ाकर गोल और चिकना बनाता और तब एक-एक कर पूरे हाथ की चूड़ियां बना चुकने के पश्चात वह उन पर रंग करता.
बदलू यह कार्य सदा ही एक मचिए पर बैठकर किया करता था जो बहुत ही पुरानी थी. बगल में ही उसका हुक्का रखा रहता जिसे वह बीच-बीच में पीता रहता. गांव में मेरा दोपहर का समय अधिकतर बदलू के पास बीतता. वह मुझे ‘लला’ कहा करता और मेरे पहुंचते ही मेरे लिए तुरंत एक मचिया मंगा देता. मैं घंटों बैठे-बैठे उसे इस प्रकार चूड़ियां बनाते देखता रहता. लगभग रोज़ ही वह चार-छह जोड़े चूड़ियां बनाता. पूरा जोड़ा बना लेने पर वह उसे बेलन पर चढ़ाकर कुछ क्षण चुपचाप देखता रहता मानो वह बेलन न होकर किसी नव-वधू की कलाई हो.
बदलू मनिहार था. चूड़ियां बनाना उसका पैतृक पेशा था और वास्तव में वह बहुत ही सुंदर चूड़ियां बनाता था. उसकी बनाई हुई चूड़ियों की खपत भी बहुत थी. उस गांव में तो सभी स्त्रियां उसकी बनाई हुई चूड़ियां पहनती ही थीं आस-पास के गांवों के लोग भी उससे चूड़ियां ले जाते थे. परंतु वह कभी भी चूड़ियों को पैसों से बेचता न था. उसका अभी तक वस्तु-विनिमय का तरीक़ा था और लोग अनाज के बदले उससे चूड़ियां ले जाते थे. बदलू स्वभाव से बहुत सीधा था. मैंने कभी भी उसे किसी से झगड़ते नहीं देखा. हां, शादी-विवाह के अवसरों पर वह अवश्य ज़िद पकड़ जाता था. जीवनभर चाहे कोई उससे मुफ़्त चूड़ियां ले जाए परंतु विवाह के अवसर पर वह सारी कसर निकाल लेता था. आखिर सुहाग के जोड़े का महत्त्व ही और होता है. मुझे याद है, मेरे मामा के यहां किसी लड़की के विवाह पर ज़रा-सी किसी बात पर बिगड़ गया था और फिर उसको मनाने में लोहे लग गए थे. विवाह में इसी जोड़े का मूल्य इतना बढ़ जाता था कि उसके लिए उसकी घरवाली को सारे वस्त्र मिलते, ढेरों अनाज मिलता, उसको अपने लिए पगड़ी मिलती और रुपए जो मिलते सो अलग.
यदि संसार में बदलू को किसी बात से चिढ़ थी तो वह थी कांच की चूड़ियों से. यदि किसी भी स्त्री के हाथों में उसे कांच की चूड़ियां दिख जाती तो वह अंदर-ही-अंदर कुढ़ उठता और कभी-कभी तो दो-चार बातें भी सुना देता.
मुझसे तो वह घंटों बातें किया करता. कभी मेरी पढ़ाई के बारे में पूछता, कभी मेरे घर के बारे में और कभी यों ही शहर के जीवन के बारे में. मैं उससे कहता कि शहर में सब कांच की चूड़ियां पहनते हैं तो वह उत्तर देता, “शहर की बात और है, लला! वहां तो सभी कुछ होता है. वहां तो औरतें अपने मरद का हाथ पकड़कर सड़कों पर घूमती भी हैं और फिर उनकी कलाइयां नाजुक होती हैं न! लाख की चूड़ियां पहनें तो मोच न आ जाए.’’
कभी-कभी बदलू मेरी अच्छी खासी खातिर भी करता. जिन दिनों उसकी गाय के दूध होता वह सदा मेरे लिए मलाई बचाकर रखता और आम की फसल में तो मैं रोज़ ही उसके यहां से दो-चार आम खा आता. परंतु इन सब बातों के अतिरिक्त जिस कारण वह मुझे अच्छा लगता वह यह था कि लगभग रोज़ ही वह मेरे लिए एक-दो गोलियां बना देता.
मैं बहुधा हर गर्मी की छुट्टी में अपने मामा के यहां चला जाता और एक-आध महीने वहां रहकर स्कूल खुलने के समय तक वापस आ जाता. परंतु दो-तीन बार ही मैं अपने मामा के यहां गया होऊंगा तभी मेरे पिता की एक दूर के शहर में बदली हो गई और एक लंबी अवधि तक मैं अपने मामा के गांव न जा सका. तब लगभग आठ-दस वर्षों के बाद जब मैं वहां गया तो इतना बड़ा हो चुका था कि लाख की गोलियों में मेरी रुचि नहीं रह गई थी. अत: गांव में होते हुए भी कई दिनों तक मुझे बदलू का ध्यान न आया. इस बीच मैंने देखा कि गांव में लगभग सभी स्त्रियां कांच की चूड़ियां पहने हैं. विरले ही हाथों में मैंने लाख की चूड़ियां देखीं. तब एक दिन सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया. बात यह हुई कि बरसात में मेरे मामा की छोटी लड़की आंगन में फिसलकर गिर पड़ी और उसके हाथ की कांच की चूड़ी टूटकर उसकी कलाई में घुस गई और उससे ख़ून बहने लगा. मेरे मामा उस समय घर पर न थे. मुझे ही उसकी मरहम-पट्टी करनी पड़ी. तभी सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया और मैंने सोचा कि उससे मिल आऊं. अतः शाम को मैं घूमते-घूमते उसके घर चला गया. बदलू वहीं चबूतरे पर नीम के नीचे एक खाट पर लेटा था.
नमस्ते बदलू काका! मैंने कहा.
नमस्ते भइया! उसने मेरी नमस्ते का उत्तर दिया और उठकर खाट पर बैठ गया. परंतु उसने मुझे पहचाना नहीं और देर तक मेरी ओर निहारता रहा.
मैं हूं जनार्दन, काका! आपके पास से गोलियां बनवाकर ले जाता था. मैंने अपना परिचय दिया.
बदलू फिर भी चुप रहा. मानो वह अपने स्मृति पटल पर अतीत के चित्र उतार रहा हो और तब वह एकदम बोल पड़ा, आओ-आओ, लला बैठो! बहुत दिन बाद गांव आए.
हां, इधर आना नहीं हो सका, काका! मैंने चारपाई पर बैठते हुए उत्तर दिया.
कुछ देर फिर शांति रही. मैंने इधर-इधर दृष्टि दौड़ाई. न तो मुझे उसकी मचिया ही नज़र आई, न ही भट्ठी.
आजकल काम नहीं करते काका? मैंने पूछा.
नहीं लला, काम तो कई साल से बंद है. मेरी बनाई हुई चूड़ियां कोई पूछे तब तो. गांव-गांव में कांच का प्रचार हो गया है. वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, मशीन युग है न यह, लला! आजकल सब काम मशीन से होता है. खेत भी मशीन से जोते जाते हैं और फिर जो सुंदरता कांच की चूड़ियों में होती है, लाख में कहां संभव है?
लेकिन कांच बड़ा ख़तरनाक होता है. बड़ी जल्दी टूट जाता है. मैंने कहा.
नाजुक तो फिर होता ही है लला! कहते-कहते उसे खांसी आ गई और वह देर तक खांसता रहा.
मुझे लगा उसे दमा है. अवस्था के साथ-साथ उसका शरीर ढल चुका था. उसके हाथों पर और माथे पर नसें उभर आई थीं.
जाने कैसे उसने मेरी शंका भांप ली और बोला, “दमा नहीं है मुझे. फसली खांसी है. यही महीने-दो-महीने से आ रही है. दस-पंद्रह दिन में ठीक हो जाएगी.’’
मैं चुप रहा. मुझे लगा उसके अंदर कोई बहुत बड़ी व्यथा छिपी है. मैं देर तक सोचता रहा कि इस मशीन युग ने कितने हाथ काट दिए हैं. कुछ देर फिर शांति रही जो मुझे अच्छी नहीं लगी.
आम की फसल अब कैसी है, काका? कुछ देर पश्चात मैंने बात का विषय बदलते हुए पूछा.
अच्छी है लला, बहुत अच्छी है, उसने लहककर उत्तर दिया और अंदर अपनी बेटी को आवाज़ दी, अरी रज्जो, लला के लिए आम तो ले आ. फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, माफ़ करना लला, तुम्हें आम खिलाना भूल गया था.
नहीं, नहीं काका आम तो इस साल बहुत खाए हैं.
वाह-वाह, बिना आम खिलाए कैसे जाने दूंगा तुमको?
मैं चुप हो गया. मुझे वे दिन याद हो आए जब वह मेरे लिए मलाई बचाकर रखता था.
गाय तो अच्छी है न काका? मैंने पूछा.
गाय कहां है, लला! दो साल हुए बेच दी. कहां से खिलाता?
इतने में रज्जो, उसकी बेटी, अंदर से एक डलिया में ढेर से आम ले आई.
यह तो बहुत हैं काका! इतने कहां खा पाऊंगा? मैंने कहा.
वाह-वाह! वह हंस पड़ा, शहरी ठहरे न! मैं तुम्हारी उमर का था तो इसके चौगुने आम एक बखत में खा जाता था.
आप लोगों की बात और है. मैंने उत्तर दिया.
अच्छा, बेटी, लला को चार-पांच आम छांटकर दो. सिंदूरी वाले देना. देखो लला कैसे हैं? इसी साल यह पेड़ तैयार हुआ
है.
रज्जो ने चार-पांच आम अंजुली में लेकर मेरी ओर बढ़ा दिए. आम लेने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया तो मेरी निगाह एक क्षण के लिए उसके हाथों पर ठिठक गई. गोरी-गोरी कलाइयों पर लाख की चूड़ियां बहुत ही फब रही थीं.
बदलू ने मेरी दृष्टि देख ली और बोल पड़ा, यही आखिरी जोड़ा बनाया था जमींदार साहब की बेटी के विवाह पर. दस आने पैसे मुझको दे रहे थे. मैंने जोड़ा नहीं दिया. कहा, शहर से ले आओ.
मैंने आम ले लिए और खाकर थोड़ी देर पश्चात चला आया. मुझे प्रसन्नता हुई कि बदलू ने हारकर भी हार नहीं मानी थी. उसका व्यक्तित्व कांच की चूड़ियों जैसा न था कि आसानी से टूट जाए.
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