क्या होता है, टूरिस्ट की कमी का सामना कर रहे एक हिल स्टेशन पर? एक अदद सैलानी पर सभी के टूट पड़ने की रोचक दास्तां.
चेयरिंग क्रास पर पहुंचकर मैंने देखा कि उस वक़्त वहां मेरे सिवा एक भी आदमी नहीं है. एक बच्चा, जो अपनी आया के साथ वहां खेल रहा था, अब उसके पीछे भागता हुआ ठंडी सड़क पर चला गया था. घाटी में एक जली हुई इमारत का ज़ीना इस तरह शून्य की तरफ़ झांक रहा था जैसे सारे विश्व को आत्महत्या की प्रेरणा और अपने ऊपर आकर कूद जाने का निमन्त्रण दे रहा हो. आसपास के विस्तार को देखते हुए उस नि:स्तब्ध एकान्त में मुझे हार्डी के एक लैंडस्केप की याद हो आई, जिसके कई पृष्ठों के वर्णन के बाद मानवता दृश्यपट पर प्रवेश करती है-अर्थात् एक छकड़ा धीमी चाल से आता दिखाई देता है. मेरे सामने भी खुली घाटी थी, दूर तक फैली पहाड़ी शृंखलाएं थीं, बादल थे, चेयरिंग क्रास का सुनसान मोड़ था-और यहां भी कुछ उसी तरह मानवता ने दृश्यपट पर प्रवेश किया-अर्थात् एक पचास-पचपन साल का भला आदमी छड़ी टेकता दूर से आता दिखाई दिया. वह इस तरह इधर-उधर नज़र डालता चल रहा था जैसे देख रहा हो कि जो ढेले-पत्थर कल वहां पड़े थे, वे आज भी अपनी जगह पर हैं या नहीं. जब वह मुझसे कुछ ही फ़ासले पर रह गया, तो उसने आंखें तीन-चौथाई बन्द करके छोटी-छोटी लकीरों जैसी बना लीं और मेरे चेहरे का ग़ौर से मुआइना करता हुआ आगे बढ़ने लगा. मेरे पास आने तक उसकी नज़र ने जैसे फ़ैसला कर लिया, और उसने रुककर छड़ी पर भार डाले हुए पल-भर के वक्फे के बाद पूछा,“यहां नए आए हो?”
“जी हां, “मैंने उसकी मुरझाई हुई पुतलियों में अपने चेहरे का साया देखते हुए ज़रा संकोच के साथ कहा.
“मुझे लग रहा था कि नए ही आए हो,” वह बोला,“पुराने लोग तो सब अपने पहचाने हुए हैं.”
“आप यहीं रहते हैं?” मैंने पूछा.
“हां यहीं रहते हैं,” उसने विरक्ति और शिकायत के स्वर में उत्तर दिया,“जहां का अन्न-जल लिखाकर लाए थे, वहीं तो न रहेंगे…अन्न-जल मिले चाहे न मिले.”
उसका स्वर कुछ ऐसा था जैसे मुझसे उसे कोई पुराना गिला हो. मुझे लगा कि या तो वह बेहद निराशावादी है, या उसे पेट का कोई संक्रामक रोग है. उसकी रस्सी की तरह बंधी टाई से यह अनुमान होता था कि वह एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है जो अब अपनी कोठी में सेब का बग़ीचा लगाकर उसकी रखवाली किया करता है.
“आपकी यहां पर अपनी ज़मीन होगी?” मैंने उत्सुकता न रहते हुए भी पूछ लिया.
“ज़मीन?” उसके स्वर में और भी निराशा और शिकायत भर आई,“ज़मीन कहां जी?” और फिर जैसे कुछ खीझ और कुछ व्यंग्य के साथ सिर हिलाकर उसने कहा,“ज़मीन!”
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मुझे क्या कहना चाहिए. उसी तरह छड़ी पर भार दिए मेरी तरफ़ देख रहा था. कुछ क्षणों का वह ख़ामोश अन्तराल मुझे विचित्र-सा लगा. उस स्थिति से निकलने के लिए मैंने पूछ लिया,“तो आप यहां कोई अपना निज का काम करते हैं?”
“काम क्या करना है जी?” उसने जवाब दिया,“घर से खाना अगर काम है, तो वही काम करते हैं और आजकल काम रह क्या गए हैं? हर काम का बुरा हाल है!”
मेरा ध्यान पल-भर के लिए जली हुई इमारत के ज़ीने की तरफ़ चला गया. उसके ऊपर एक बन्दर आ बैठा था और सिर खुजलाता हुआ शायद यह फ़ैसला करना चाह रहा था कि उसे कूद जाना चाहिए या नहीं.
“अकेले आए हो?” अब उस आदमी ने मुझसे पूछ लिया.
“जी हां, अकेला ही आया हूं,” मैंने जवाब दिया.
“आजकल यहां आता ही कौन है?” वह बोला,“यह तो बियाबान जगह है. सैर के लिए अच्छी जगहें हैं शिमला, मसूरी वग़ैरह. वहां क्यों नहीं चले गए?”
मुझे फिर से उसकी पुतलियों में अपना साया नज़र आ गया. मगर मन होते हुए भी मैं उससे यह नहीं कह सका कि मुझे पहले पता होता कि वहां आकर मेरी उससे मुलाक़ात होगी, तो मैं ज़रूर किसी और पहाड़ पर चला जाता.
“ख़ैर, अब तो आ ही गए हो,” वह फिर बोला,“कुछ दिन घूम-फिर लो. ठहरने का इन्तज़ाम कर लिया है?”
“जी हां,” मैंने कहा,“कथलक रोड पर एक कोठी ले ली है.”
“सभी कोठियां ख़ाली पड़ी हैं,” वह बोला,“हमारे पास भी एक कोठरी थी. अभी कल ही दो रुपए महीने पर चढ़ाई है. दो-तीन महीने लगी रहेगी. फिर दो-चार रुपए डालकर सफ़ेदी करा देंगे. और क्या!” फिर दो-एक क्षण के बाद उसने पूछा,“खाने का क्या इन्तज़ाम किया है?”
“अभी कुछ नहीं किया. इस वक़्त इसी ख़्याल से बाहर आया था कि कोई अच्छा-सा होटल देख लूं, जो ज़्यादा महंगा भी न हो.”
“नीचे बाज़ार में चले जाओ,” वह बोला,“नत्थासिंह का होटल पूछ लेना. सस्ते होटलों में वही अच्छा है. वहीं खा लिया करना. पेट ही भरना है! और क्या!”
और अपनी नहूसत मेरे अन्दर भरकर वह पहले की तरह छड़ी टेकता हुआ रास्ते पर चल दिया.
नत्थासिंह का होटल बाज़ार में बहुत नीचे जाकर था. जिस समय मैं वहां पहुंचा बुड्ढा सरदार नत्थासिंह और उसके दोनों बेटे अपनी दुकान के सामने हलवाई की दुकान में बैठे हलवाई के साथ ताश खेल रहे थे. मुझे देखते ही नत्थासिंह ने तपाक से अपने बड़े लड़के से कहा,“उठ बसन्ते, ग्राहक आया है.”
बसन्ते ने तुरन्त हाथ के पत्ते फेंक दिए और बाहर निकल आया.
“क्या चाहिए साब?” उसने आकर अपनी गद्दी पर बैठते हुए पूछा.
“एक प्याली चाय बना दो,” मैंने कहा.
“अभी लीजिए!” और वह केतली में पानी डालने लगा.
“अंडे-वंडे रखते हो?” मैंने पूछा.
“रखते तो नहीं, पर आपके लिए अभी मंगवा देता हूं,” वह बोला,“कैसे अंडे लेंगे? फ्राई या आमलेट?”
“आमलेट,” मैंने कहा.
“जा हरबंसे, भागकर ऊपर वाले लाला से दो अंडे ले आ,” उसने अपने छोटे भाई को आवाज़ दी.
आवाज़ सुनकर हरबंसे ने भी झट से हाथ के पत्ते फेंक दिए और उठकर बाहर आ गया. बसन्ते से पैसे लेकर वह भागता हुआ बाज़ार की सीढ़ियां चढ़ गया. बसन्ता केतली भट्ठी पर रखकर नीचे से हवा करने लगा.
हलवाई और नत्थासिंह अपने-अपने पत्ते हाथ में लिए थे. हलवाई अपने पाजामे का कपड़ा उंगली और अंगूठे के बीच में लेकर जांघ खुजलाता हुआ कह रहा था,“अब चढ़ाई शुरू हो रही है नत्थासिंह!”
“हां, अब गर्मियां आई हैं, तो चढ़ाई शुरू होगी ही,” नत्थासिंह अपनी सफ़ेद दाढ़ी में उंगलियों से कंघी करता हुआ बोला,“चार पैसे कमाने के यही तो दिन हैं.”
“पर नत्थासिंह, अब वह पहले वाली बात नहीं है,” हलवाई ने कहा,“पहले दिनों में हज़ार-बारह सौ आदमी इधर को आते थे, हज़ार-बारह सौ उधर को जाते थे, तो लगता था कि हां, लोग बाहर से आए हैं. अब भी आ गए सौ-पचास तो क्या है!”
“सौ-पचास की भी बड़ी बरकत है,” नत्थासिंह धार्मिकता के स्वर में बोला.
“कहते हैं आजकल किसी के पास पैसा ही नहीं रहा,” हलवाई ने जैसे चिन्तन करते हुए कहा,“यह बात मेरी समझ में नहीं आती. दो-चार साल सबके पास पैसा हो जाता है, फिर एकदम सब के सब भूखे-नंगे हो जाते हैं! जैसे पैसों पर किसी ने बांध बांधकर रखा है. जब चाहता है छोड़ देता है, जब चाहता है रोक लेता है!”
“सब करनी कर्तार की है,” कहता हुआ नत्थासिंह भी पत्ते फेंककर उठ खड़ा हुआ.
“कर्तार की करनी कुछ नहीं है,” हलवाई बेमन से पत्ते रखता हुआ बोला,“जब कर्तार पैदावार उसी तरह करता है, तो लोग क्यों भूखे-नंगे हो जाते हैं? यह बात मेरी समझ में नहीं आती.”
नत्थासिंह ने दाढ़ी खुजलाते हुए आकाश की तरफ़ देखा, जैसे खीज रहा हो कि कर्तार के अलावा दूसरा कौन है जो लोगों को भूखे-नंगे बना सकता है.
“कर्तार को ही पता है,” पल-भर बाद उसने सिर हिलाकर कहा.
“कर्तार को कुछ पता नहीं है,” हलवाई ने ताश की गड्डी फटी हुई डब्बी में रखते हुए सिर हिलाकर कहा और अपनी गद्दी पर जा बैठा. मैं यह तय नहीं कर सका कि उसने कर्तार को निर्दोष बताने की कोशिश की है, या कर्तार की ज्ञानशक्ति पर सन्देह प्रकट किया है!
कुछ देर बाद मैं चाय पीकर वहां से चलने लगा, तो बसन्ते ने कुल छ: आने मांगे. उसने हिसाब भी दिया-चार आने के अंडे, एक आने का घी और एक आने की चाय. मैं पैसे देकर बाहर निकला, तो नत्थासिंह ने पीछे से आवाज़ दी,“भाई साहब, रात को खाना भी यहीं खाइएगा. आज आपके लिए स्पेशल चीज़ बनाएंगे! ज़रूर आइएगा.”
उसके स्वर में ऐसा अनुरोध था कि मैं मुस्कराए बिना नहीं रह सका. सोचा कि उसने छ: आने में क्या कमा लिया है जो मुझसे रात को फिर आने का अनुरोध कर रहा है.
शाम को सैर से लौटते हुए मैंने बुक एजेंसी से अख़बार ख़रीदा और बैठकर पढ़ने के लिए एक बड़े से रेस्तरां में चला गया. अन्दर पहुंचकर देखा कि कुर्सियां, मेज़ और सोफ़े करीने से सज़े हुए हैं, पर न तो हॉल में कोई बैरा है और न ही काउंटर पर कोई आदमी है. मैं एक सोफ़े पर बैठकर अख़बार पढ़ने लगा. एक कुत्ता जो उस सोफ़े से सटकर लेटा था, अब वहां से उठकर सामने के सोफ़े पर आ बैठा और मेरी तरफ़ देखकर जीभ लपलपाने लगा. मैंने एक बार हल्के से मेज़ को थपथपाया, बैरे को आवाज़ दी, पर कोई इन्सानी सूरत सामने नहीं आई. अलबत्ता, कुत्ता सोफ़े से मेज़ पर आकर अब और भी पास से मेरी तरफ़ जीभ लपलपाने लगा. मैं अपने और उसके बीच अख़बार का परदा करके ख़बरें पढ़ता रहा.
उस तरह बैठे हुए मुझे पन्द्रह-बीस मिनट बीत गए. आख़िर जब मैं वहां से उठने को हुआ, तो बाहर का दरवाज़ा खुला और पाजामा-कमीज पहने एक आदमी अन्दर दाख़िल हुआ. मुझे देखकर उसने दूर से सलाम किया और पास आकर ज़रा संकोच के साथ कहा,“माफ़ कीजिएगा, मैं एक बाबू का सामान मोटर-अड्डे तक छोड़ने चला गया था. आपको आए ज़्यादा देर तो नहीं हुई?”
मैंने उसके ढीले-ढाले जिस्म पर एक गहरी नज़र डाली और उससे पूछ लिया,“तुम यहां अकेले ही काम करते हो?”
“जी, आजकल अकेला ही हूं,” उसने जवाब दिया,“दिन-भर मैं यहीं रहता हूं, सिर्फ़ बस के वक़्त किसी बाबू का सामान मिल जाए तो अड्डे तक दौड़ने चला जाता हूं.”
“यहां का कोई मैनेजर नहीं है?” मैंने पूछा.
“जी, मालिक आप ही मैनेजर हैं,” वह बोला,“वह आजकल अमृतसर में रहता है. यहां का सारा काम मेरे ज़िम्मे है.”
“तुम यहां चाय-वाय कुछ बनाते हो?”
“चाय, कॉफ़ी-जिस चीज़ का ऑर्डर दें, वह बन सकती है!”
“अच्छा ज़रा अपना मेन्यू दिखाना.”
उसके चेहरे के भाव से मैंने अन्दाज़ा लगाया कि वह मेरी बात नहीं समझा. मैंने उसे समझाते हुए कहा,“तुम्हारे पास खाने-पीने की चीज़ों की छपी हुई लिस्ट होगी, वह ले आओ.”
“अभी लाता हूं जी,” कहकर वह सामने की दीवार की तरफ़ चला गया और वहां से एक गत्ता उतार लाया. देखने पर मुझे पता चला कि वह उस होटल का लाइसेंस है.
“यह तो यहां का लाइसेंस है,” मैंने कहा.
“जी, छपी हुई लिस्ट तो यहां पर यही है,” वह असमंजस में पड़ गया.
“अच्छा ठीक है, मेरे लिए चाय ले आओ,” मैंने कहा.
“अच्छा जी!” वह बोला,“मगर साहब,” और उसके स्वर में काफ़ी आत्मीयता आ गई,“मैं कहता हूं, खाने का टैम है, खाना ही खाओ. चाय का क्या पीना! साली अन्दर जाकर नाड़ियों को जलाती है.”
मैं उसकी बात पर मन-ही-मन मुस्कराया. मुझे सचमुच भूख लग रही थी, इसलिए मैंने पूछा,“सब्जी-अब्जी क्या बनाई है?”
“आलू-मटर, आलू-टमाटर, भुर्ता, भिंडी, कोफ्ता, रायता…” वह जल्दी-जल्दी लम्बी सूची बोल गया.
“कितनी देर में ले आओगे?” मैंने पूछा.
“बस जी पांच मिनट में.”
“तो आलू-मटर और रायता ले आओ. साथ ख़ुश्क चपाती.”
“अच्छा जी!” वह बोला, “पर साहब,” और फिर स्वर में वही आत्मीयता लाकर उसने कहा,“बरसात का मौसम है. रात के वक़्त रायता नहीं खाओ, तो अच्छा है. ठंडी चीज़ है. बाज़ वक़्त नुक़सान कर जाती है.”
उसकी आत्मीयता से प्रभावित होकर मैंने कहा, “तो अच्छा, सिर्फ़ आलू-मटर ले आओ.”
“बस, अभी लो जी, अभी लाया,” कहता हुआ वह लकड़ी के ज़ीने से नीचे चला गया.
उसके जाने के बाद मैं कुत्ते से जी बहलाने लगा. कुत्ते को शायद बहुत दिनों से कोई चाहने वाला नहीं मिला था. वह मेरे साथ ज़रूरत से ज़्यादा प्यार दिखाने लगा. चार-पांच मिनट के बाद बाहर का दरवाज़ा फिर खुला और एक पहाड़ी नवयुवती अन्दर आ गई. उसके कपड़ों और पीठ पर बंधी टोकरी से ज़ाहिर था कि वह वहां की कोयला बेचनेवाली लड़कियों में से है. सुन्दरता का सम्बन्ध चेहरे की रेखाओं से ही हो, तो उसे सुन्दर कहा जा सकता था. वह सीधी मेरे पास आ गई और छूटते ही बोली, “बाबूजी, हमारे पैसे आज ज़रूर मिल जाएं.”
कुत्ता मेरे पास था, इसलिए मैं उसकी बात से घबराया नहीं.
मेरे कुछ कहने से पहले ही वह फिर बोली,“आपके आदमी ने एक किल्टा कोयला लिया था. आज छ:-सात दिन हो गए. कहता था, दो दिन में पैसे मिल जाएंगे. मैं आज तीसरी बार मांगने आई हूं. आज मुझे पैसों की बहुत ज़रूरत है.”
मैंने कुत्ते को बांहों से निकल जाने दिया. मेरी आंखें उसकी नीली पुतलियों को देख रही थीं. उसके कपड़े-पाजामा, कमीज़, वास्कट, चादर और पटका-सभी बहुत मैले थे. मुझे उसकी ठोड़ी की तराश बहुत सुन्दर लगी. सोचा कि उसकी ठोड़ी के सिरे पर अगर एक तिल भी होता….
“मेरे चौदह आने पैसे हैं,” वह कह रही थी.
और मैं सोचने लगा कि उसे ठोड़ी के तिल और चौदह आने पैसे में से एक चीज़ चुनने को कहा जाए, तो वह क्या चुनेगी?
“मुझे आज जाते हुए बाज़ार से सौदा लेकर जाना है,” वह कह रही थी.
“कल सवेरे आना!” उसी समय बैरे ने ज़ीने से ऊपर आते हुए कहा.
“रोज़ मुझसे कल सवेरे बोल देता,” वह मुझे लक्ष्य करके ज़रा गुस्से के साथ बोली,“इससे कहिए कल सवेरे मेरे पैसे ज़रूर दे दे.”
“इनसे क्या कह रही है, ए तो यहां खाना खाने आए हैं,” बैरा उसकी बात पर थोड़ा हंस दिया.
इससे लड़की की नीली आंखों में संकोच की हल्की लहर दौड़ गई. वह अब बदले हुए स्वर में मुझसे बोली,“आपको कोयला तो नहीं चाहिए?”
“नहीं,” मैंने कहा.
“चौदह आने का किल्टा दूंगी, कोयला देख लो,” कहते हुए उसने अपनी चादर की तह में से एक कोयला निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिया.
“ए यहां आकर खाना खाते हैं, इन्हें कोयला नहीं चाहिए,” अब बैरे ने उसे झिड़क दिया.
“आपको खाना बनाने के लिए नौकर चाहिए?” लड़की बात करने से नहीं रुकी,“मेरा छोटा भाई है. सब काम जानता है. पानी भी भरेगा, बरतन भी मलेगा….”
“तू जाती है यहां से कि नहीं?” बैरे का स्वर अब दुतकारने का-सा हो गया.
“आठ रुपए महीने में सारा काम कर देगा,” लड़की उस स्वर को महत्त्व न देकर कहती रही,“पहले एक डॉक्टर के घर में काम करता था. डॉक्टर अब यहां से चला गया है.”
बैरे ने अब उसे बांह से पकड़ लिया और बाहर की तरफ़ ले जाता हुआ बोला,“चल-चल, जाकर अपना काम कर. कह दिया है, उन्हें नौकर नहीं चाहिए, फिर भी बके जा रही है!”
“मैं कल इसी वक़्त उसे लेकर आऊंगी,” लड़की ने फिर भी चलते-चलते मुड़कर कह दिया.
बैरा उसे दरवाज़े से बाहर पहुंचाकर पास आता हुआ बोला,“कमीन जात! ऐसे गले पड़ जाती हैं कि बस…!”
“खाना अभी कितनी देर में लाओगे?” मैंने उससे पूछा.
“बस जी पांच मिनट में लेकर आ रहा हूं,” वह बोला,“आटा गूंथकर सब्जी चढ़ा आया हूं. ज़रा नमक ले आऊं-आकर चपातियां बनाता हूं.”
ख़ैर, खाना मुझे काफ़ी देर से मिला. खाने के बाद मैं काफ़ी देर ठंडी-गरम सड़क पर टहलता रहा क्योंकि पहाड़ियों पर छिटकी चांदनी बहुत अच्छी लग रही थी. लौटते वक़्त बाज़ार के पास से निकलते हुए मैंने सोचा कि नाश्ते के लिए सरदार नत्थासिंह से दो अंडे उबलवाकर लेता चलूं. दस बज चुके थे, पर नत्थासिंह की दुकान अभी खुली थी. मैं वहां पहुंचा तो नत्थासिंह और उसके दोनों बेटे पैरों के भार बैठे खाना खा रहे थे. मुझे देखते ही बसन्ते ने कहा,“वह लो, आ गए भाई साहब!”
“हम कितनी देर इन्तज़ार कर-करके अब खाना खाने बैठे हैं!” हरबंसा बोला.
“ख़ास आपके लिए मुर्गा बनाया था.” नत्थासिंह ने कहा,“हमने सोचा था कि भाई साहब देख लें, हम कैसा खाना बनाते हैं. ख़याल था दो-एक प्लेटें और लग जाएंगी. पर न आप आए, और न किसी और ने ही मुर्गे की प्लेट ली. हम अब तीनों खुद खाने बैठे हैं. मैंने मुर्गा इतने चाव से, इतने प्रेम से बनाया था कि क्या कहूं! क्या पता था कि ख़ुद ही खाना पड़ेगा. ज़िंदगी में ऐसे भी दिन देखने थे! वे भी दिन थे कि जब अपने लिए मुर्गे का शोरबा तक नहीं बचता था! और एक दिन यह है. भरी हुई पतीली सामने रखकर बैठे हैं! गांठ से साढ़े तीन रुपए लग गए, जो अब पेट में जाकर खनकते भी नहीं! जो तेरी करनी मालिक!”
“इसमें मालिक की क्या करनी है?” बसन्ता ज़रा तीख़ा होकर बोला,“जो करनी है, सब अपनी ही है! आप ही को जोश आ रहा था कि चढ़ाई शुरू हो गई है, लोग आने लगे हैं, कोई अच्छी चीज़ बनानी चाहिए. मैंने कहा था कि अभी आठ-दस दिन ठहर जाओ, ज़रा चढ़ाई का रुख़ देख लेने दो. पर नहीं माने! हठ करते रहे कि अच्छी चीज़ से मुहूरत करेंगे तो सीज़न अच्छा गुज़रेगा. लो, हो गया मुहूरत!”
उसी समय वह आदमी, जो कुछ घंटे पहले मुझे चेयरिंग क्रास पर मिला था, मेरे पास आकर खड़ा हो गया. अंधेरे में उसने मुझे नहीं पहचाना और छड़ी पर भार देकर नत्थासिंह से पूछा,“नत्थासिंह एक ग्राहक भेजा था, आया था?”
“कौन ग्राहक?” नत्थासिंह चिढ़े-मुरझाए हुए स्वर में बोला.
“घुंघराले बालों वाला नौजवान था-मोटे शीशे का चश्मा लगाए हुए…?”
“ए भाई साहब खड़े हैं!” इससे पहले कि वह मेरा और वर्णन करता, नत्थासिंह ने उसे होशियार कर दिया.
“अच्छा आ गए हैं!”’ उसने मुझे लक्ष्य करके कहा और फिर नत्थासिंह की तरफ़ देखकर बोला,“तो ला नत्थासिंह, चाय की प्याली पिला.”
कहता हुआ वह सन्तुष्ट भाव से अन्दर टीन की कुरसी पर जा बैठा. बसन्ता भट्ठी पर केतली रखते हुए जिस तरह से बुदबुदाया उससे ज़ाहिर था कि वह आदमी चाय की प्याली ग्राहक भेजने के बदले में पीने जा रहा है!
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