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मरने से पहले: जीवन की अनिश्चितता बयां करती कहानी (लेखक: भीष्म साहनी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
December 21, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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मरने से पहले: जीवन की अनिश्चितता बयां करती कहानी (लेखक: भीष्म साहनी)
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अनिश्चितता जीवन की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती और मज़ाक दोनों ही है. इसी पहलू को बयां करती है भीष्म साहनी की कहानी. जानें, एक बूढ़ा व्यक्ति क्या-क्या करता है अपनी मौत के एक दिन पहले?

मरने से एक दिन पहले तक उसे अपनी मौत का कोई पूर्वाभास नहीं था. हां, थोड़ी खीझ और थकान थी, पर फिर भी वह अपनी ज़मीन के टुकड़े को लेकर तरह-तरह की योजनाएं बना रहा था, बल्कि उसे इस बात का संतोष भी था कि उसने अपनी मुश्क़िल का हल ढूंढ़ निकाला है और अब वह आराम से बैठकर अपनी योजनाएं बना सकता है. वास्‍तव में वह पिछले ही दिन, शाम को, एक बड़ी चतुराई का काम कर आया था-अपने दिल की ललक, अपने जैसे ही एक वयोवृद्ध के दिल में उड़ेलने में सफल हो गया था. पर उसकी मौत को देखते हुए लगता है मानो वह कोई नाटक खेलता रहा हो, और उसे खेलते हुए ख़ुद भी चलता बना हो.
एक दिन पहले, जब उसे ज़मीन के मामले को ले कर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ़्तर में जाना था तो वह एक जगह, बस में से उतरकर पैदल ही उस दफ़्तर की ओर जाने लगा था. उस समय दिन का एक बजने को था, चिलचिलाती धूप थी, और लंबी सड़क पर एक भी सायादार पेड़ नहीं था. पर एक बजे से पहले उसे दफ़्तर में पहुंचना था, क्‍योंकि कचहरियों के काम एक बजे तक ही होते हैं. इसके बाद अफ़सर लोग उठ जाते हैं, कारिंदे सिगरेट-बीड़ियां सुलगा लेते हैं और किसी से सीधे मुंह बात नहीं करते, तब तुम कचहरी के आंगन में और बरामदों में मुंह बाए घूमते रहो, तुम्‍हें कोई पूछता नहीं. इसीलिए वह चिलचिलाती धूप में पांव घसीटता, जल्‍दी से जल्‍दी डिप्‍टी-कमिश्‍नर के दफ़्तर में पहुंच जाना चाहता था. बार-बार घड़ी देखने पर, यह जानते हुए भी कि बहुत कम समय बाक़ी रह गया है, वह जल्‍दी से क़दम नहीं उठा पा रहा था. एक जगह, पीछे से किसी मोटरकार का भोंपू बजने पर, वह बड़ी मुश्क़िल से सड़क के एक ओर को हो पाया था. जवानी के दिन होते तो वह सरपट भागने लगता, थकान के बावजूद भागने लगता, अपना कोट उतारकर कंधे पर डाल लेता और भाग खड़ा होता. उन दिनों भाग खड़ा होने में ही एक उपलब्धि का-सा भास हुआ करता था-भाग कर पहुंच तो गए, काम भले ही पूरा हो या न हो. पर अब तो वह बिना उत्‍साह के अपने पांव घसीटता जा रहा था. प्‍यास के कारण मुंह सूख रहा था और मुंह का स्‍वाद कड़वा हो रहा था. धूप में चलते रहने के कारण, गर्दन पर पसीने की परत आ गई थी, जिसे रूमाल से पोंछ पाने की इच्‍छा उसमें नहीं रह गई थी.
अगर पहुंचने पर कचहरी बंद मिली, डिप्‍टी कमिश्‍नर या तहसीलदार आज भी नहीं आया तो मैं कुछ देर के लिए वहीं बैठ जाऊंगा-किसी बेंच पर, दफ़्तर की सीढ़ियों पर या किसी चबूतरे पर-कुछ देर के लिए दम लूंगा और फिर लौट आऊंगा. अगर वह दफ़्तर में बैठा मिल गया तो मैं सीधा उसके पास जा पहुंचूंगा-अफ़सर लोग तो दफ़्तर के अंदर बैठे-बैठे गुर्राते हैं, जैसे अपनी मांद में बैठा कोई जंतु गुर्राता है-पर भले ही वह गुर्राता रहे, मैं चिक उठाकर सीधा अंदर चला जाऊंगा.
उस स्थिति में भी उसे इस बात का भास नहीं हुआ कि उसकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन आ पहुंचा है. चिलचिलाती धूप में चलते हुए एक ही बात उसके मन में बार-बार उठ रही थी, काम हो जाए, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, बस, काम हो जाए.
उससे एक दिन पहले, तहसीलदार की कचहरी में तीन-तीन कारिंदों को रिश्‍वत देने के बावजूद उसका काम नहीं हो पाया था. कभी किसी चपरासी की ठुड्डी पर हाथ रखकर उसकी मिन्‍नत-समागत करता रहा था, तो कभी किसी क्‍लर्क-कारिंदे को सिगरेट पेश करके! जब धूप ढलने को आई थी, कचहरी के आंगन में वीरानी छाने लगी थी और वह तीनों कारिंदों की जेब में पैसे ठूंस चुका था, फिर भी उसका काम हो पाने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे तो वह दफ़्तर की सीढ़ियों पर आ बैठा था. वह थक गया था और उसके मुंह में कड़वाहट भरने लगी थी. उसने सिगरेट सुलगा ली थी, यह जानते हुए कि भूखे पेट, धुआं सीधा उसके फेफड़ों में जाएगा. तभी सिगरेट के कश लेते हुए वह अपनी फूहड़ स्थिति के बारे में सोचने लगा था. अब तो भ्रष्‍टाचार पर से भी विश्‍वास उठने लगा है, उसने मन-ही-मन कहा, पहले इतना तो था कि किसी की मुठ्टी गर्म करो तो काम हो जाता था, अब तो उसकी भी उम्‍मीद नहीं रह गई है. और यह वाक्‍य बार-बार उसके मन में घूमता रहा था.
तभी उसे इस सारी दौड़-धूप की निरर्थकता का भास होने लगा था: यह मैं क्‍या कर रहा हूं? मैं 73 वर्ष का हो चला हूं, अगर ज़मीन का टुकड़ा भी मिल गया, उसका स्‍वामित्‍व भी मेरे हक़ में बहाल कर दिया गया, तो भी वह मेरे किस काम का? ज़िंदगी के कितने दिन मैं उसका उपभोग कर पाऊंगा? बीस साल पहले यह मुक़दमा शुरू हुआ था, तब मैं मनसूबे बांध सकता था, भविष्‍य के बारे में सोच सकता था, इस पुश्‍तैनी ज़मीन को लेकर सपने भी बुन सकता था, कि यहां छोटा-सा घर बनाऊंगा, आंगन में फलों के पेड़ लगाऊंगा, पेड़ों के साए के नीचे हरी-हरी घास पर बैठा करूंगा. पर अब? अव्‍वल तो यह ज़मीन का टुकड़ा अभी भी आसानी से मुझे नहीं मिलेगा. घुसपैठिए को इसमें से निकालना खालाजी का घर नहीं है. मैं घूस दे सकता हूं तो क्‍या घुसपैठिया घूस नहीं दे सकता, या नहीं देता होगा? भले ही फ़ैसला मेरे हक़ में हो चुका है, वह दस तिकड़में करेगा. पिछले बीस साल में कितने उतार-चढ़ाव आए हैं, कभी फ़ैसला मेरे हक़ में होता तो वह अपील करता, अगर उसके हक़ में होता तो मैं अपील करता, इसी में ज़िंदगी के बीस साल निकल गए, और अब 73 साल की उम्र में मैं उस पर क्‍या घर बनाऊंगा? मकान बनाना कौन-सा आसान काम है? और किसे पड़ी है कि मेरी मदद करे? अगर बना भी लूं तो भी मकान तैयार होते-होते मैं 75 पार कर चुका होऊंगा. मेरे वक़ील की उम्र इस समय 80 साल की है, और वह बौराया-सा घूमने लगा है. बोलने लगता है तो बोलना बंद ही नहीं करता. उसकी सूझ-बूझ भी शिथिल हो चली है, बैठा-बैठा अपनी धुंधलाई आंखों से शून्‍य में ताकने लगता है. कहता है उसे पेचिश की पुरानी तक़लीफ़ भी है, घुटनों में भी गठिया है. वह आदमी 80 वर्ष की उम्र में इस हालत में पहुंच चुका है, तो इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मेरी क्‍या गति होगी? मकान बन भी गया तो मेरे पास ज़िंदगी के तीन-चार वर्ष बच रहेंगे, क्‍या इतने-भर के लिए अपनी हड्डियां तोड़ता फिरूं? क्‍यों नहीं मैं इस पचड़े में से निकल आता? मुझसे ज़्यादा समझदार तो मेरा वह वक़ील ही है, जिसने अपनी स्थिति को समझ लिया है और मेरे साथ तहसील-कचहरी जाने से इनकार कर दिया है. ‘बस, साहिब, मैंने अपना काम पूरा कर दिया है, आप मुक़दमा जीत गए हैं, अब ज़मीन पर क़ब्ज़ा लेने का काम आप ख़ुद सँभालें.’ उसने दो टूक कह दिया था. …यही कुछ सोचते-सोचते, उसने फिर से सिर झटक दिया था. क्‍या मैं यहां तक पहुंच कर किनारा कर जाऊं? ज़मीन को घुसपैठिए के हाथ सौंप दूं? यह बुजदिली नहीं होगी तो क्‍या होगा? किसी को अपनी ज़मीन मुफ़्त में क्‍यों हड़पने दूं? क्‍या मैं इतना गया-बीता हूं कि मेरे जीते-जी, कोई आदमी मेरी पुश्‍तैनी ज़मीन छीन ले जाए और मैं खड़ा देखता रहूं? और अब तो फ़ैसला हो चुका है, अब तो इसे केवल हल्‍का-सा धक्‍का देना बाक़ी है. तहसील के कागजात मिल जाएं, इंतकाल की नकलें मिल जाएं, फिर रास्‍ता खुलने लगेगा, मंज़िल नज़र आने लगेगी. …सोचते-सोचते एक बार फिर उसने अपना सिर झटक दिया. ऐसे मौक़े पहले भी कई बार आ चुके थे. तब भी यही कहा करता था, एक बार फ़ैसला हक़ में हो जाए तो रास्‍ता साफ हो जाएगा. पर क्‍या बना? बीस साल गुज़र गए, वह अभी भी कचहरियों की खाक छान रहा है. …’सांप के मुंह में छछूंदर, खाए तो मरे, छोड़े तो अंधा हो.’ न तो मैं इस पचड़े से निकल सकता हूं, न ही इसे छोड़ सकता हूं.
डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ़्तर में नहीं था. वही बात हुई. किसी ने बताया कि वह किसी मीटिंग में गया है, कुछ मालूम नहीं कब लौटेगा, लौटेगा भी या नहीं.
वह चुपचाप एक बेंच पर जा बैठा, कल ही की तरह सिगरेट सुलगाई और अपने भाग्‍य को कोसने लगा. मैं काम करना नहीं जानता, छोटे-छोटे कामों के लिए ख़ुद भागता फिरता हूं. ये काम मिलने-मिलाने से होते हैं, ख़ुद मारे-मारे फिरने से नहीं, मैं ख़ुद मुंह बाए कभी तहसील में तो कभी ज़िला कचहरी में धूल फांकता फिरता हूं. मेरी जगह कोई और होता तो दस तरक़ीबें सोच निकालता. सिफ़ारिश डलवाने से लोगों के बीसियों काम हो जाते हैं और मैं यहां मारा-मारा फिर रहा हूं.
तब डिप्‍टी कमिश्‍नर के चपरासी ने भी कह दिया था कि अब साहिब नहीं आएंगे और दफ़्तर के बाहर, दरख्‍वास्तियों के लिए रखा बेंच उठाकर अंदर ले गया था. उधर कचहरी का जमादार बरामदे और आंगन बुहारने लगा था. सारा दिन यों बर्बाद होता देखकर वह मन ही मन तिलमिला उठा था. आग की लपट की तरह एक टीस-सी उसके अंदर उठी थी, हार तो मैं नहीं मानूंगा, मैं भी अपनी ज़मीन छोड़ने वाला नहीं हूं, मैं भी हठ पकड़ लूंगा, इस काम से चिपक जाऊंगा, ये लोग मुझे कितना ही झिंझोड़ें, मैं छोडूंगा नहीं, इसमें अपने दांत गाड़ दूंगा, जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, मैं छोडूंगा नहीं…
वह मन-ही-मन जानता था कि मन में से उठने वाला यह आवेग उसकी असमर्थता का ही द्योतक था कि जब भी उसे कोई रास्‍ता नहीं सूझता, तो वह ढिठाई का दामन पकड़ लेता है, इस तरह वह अपने डूबते आत्‍मविश्‍वास को धृष्‍टता द्वारा जीवित रख पाने की कोशिश करता रहता है.
पर उस दिन सुबह, ज़िला कचहरी की ओर जाने से पहले उसकी मनःस्थिति बिल्‍कुल दूसरी थी. तब वह आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, नहा-धोकर, ताजादम घर से निकला था और उसे पता चला था कि डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ़्तर में मिलेगा, कि वह भला आदमी है, मुंसिफ-मिजाज है. और फिर उसका तो काम भी मामूली-सा है, अगर उससे बात हो गई और उसने हुक़्म दे दिया तो पलक मारते ही काम हो जाएगा. शायद इसीलिए जब वह घर से निकला था तो आसपास का दृश्‍य उसे एक तस्‍वीर जैसा सुंदर लगा था, जैसे माहौल में से बरसों की धुंध छंट गई हो और विशेष रोशनी-सी चारों ओर छिटक गई हो, एक हल्‍की-सी झिलमिलाहट, जिसमें एक-एक चीज़-नदी का पाट, उस पर बना सफ़ेद डंडहरों वाला पुल, और नदी के किनारे खड़े ऊंचे-ऊंचे भरे-पूरे पेड़, सभी निखर उठे थे. सड़क पर जाती युवतियों के चेहरे खिले-खिले. हर इमारत निखरी-निखरी, सुबह की धूप में नहाई. और इसी मन‍ःस्थिति में वह उस बस में बैठ गया था जो उसे शहर के बाहर दूर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ़्तर की ओर ले जाने वाली थी.
फिर शहर में से निकल जाने पर, वह बस किसी घने झुरमुट के बीच, स्‍वच्‍छ, निर्मल जल के एक नाले के साथ-साथ चली जा रही थी. उसने झांककर, बस की खिड़की में से बाहर देखा था. एक जगह पर नाले का पाट चौड़ा हो गया था, और पानी की सतह पर बहुत-सी बतखें तैर रही थीं, जिससे नाले के जल में लहरियां उठ रही थीं. किनारे पर खड़े बेंत के छोटे-छोटे पेड़ पानी की सतह पर झुके हुए थे और उनका साया जालीदार चादर की तरह पानी की सतह पर थिरक रहा था. अब बस किसी छोटी-सी बस्‍ती को लांघ रही थी. बस्‍ती के छोटे-छोटे बच्‍चे, नंगे बदन, नाले में डुबकियां लगा रहे थे. उसकी नज़र नाले के पार, बस्‍ती के एक छोटे से घर पर पड़ी जो नाले के किनारे पर ही, लकड़ी के खम्‍भों पर खड़ा था, उसकी खिड़की में एक सुंदर-सी कश्‍मीरी लड़की, अपनी छोटी बहिन को सामने बैठाए उसके बालों में कंघी कर रही थी. थोड़ी देर के लिए ही यह दृश्‍य उसकी आंखों के सामने रहा था और फिर बस आगे बढ़ गई थी. पर उसे देख कर उसके दिल में स्‍फूर्ति की लहर दौड़ गई थी… एक छोटा-सा घर तो बन ही सकता है. मन में एक बार निश्‍चय कर लो तो, जैसे-तैसे, काम पूरा हो ही जाता है. बेंत के पेड़ के नीचे, आंगन में, कुर्सी बिछाकर बैठा करूंगा, पेड़ों की पांत के नीचे, मैं और मेरी पत्‍नी घूमने जाया करेंगे. पेड़ों पर से झरते पत्तों के बीच क़दम बढ़ाते हुए, मैं हाथ में छड़ी लेकर चलूंगा, मोटे तले के जूते पहनूंगा, और ठंडी-ठंडी हवा गालों को थपथपाया करेगी. ज़िंदगी-भर की थकान दूर हो जाएगी …मकान बनाना क्‍या मुश्क़िल है! क्‍या मेरी उम्र के लोग काम नहीं करते? वे फैक्‍टरियां चलाते हैं, नई फैक्‍टरियां बनाते हैं, मरते दम तक अपना काम बढ़ाते रहते हैं.
पर अब, ढलती दोपहर में, खचाखच भरी बस में हिचकोले खाता हुआ, बेसुध-सा, शून्‍य में देखता हुआ, वह घर लौट रहा था. पिंडलियां दुख रही थीं और मुंह का ज़ायका कड़वा हो रहा था.
उसे फिर झुंझलाहट हुई अपने पर, अपने वक़ील पर जिसने ऐन आड़े वक़्त में मुक़दमे पर पीठ फेर ली थी; अपनी सगे-संबंधियों पर, जिनमें से कोई भी हाथ बंटाने के लिए तैयार नहीं था. मैं ही मारा-मारा फिर रहा हूं. सबसे अधिक उसे अपने पर क्रोध आ रहा था, अपनी अकर्मण्‍यता पर, अपने दब्‍बू स्‍वभाव पर, अपनी असमर्थता पर.
बस में से उतरते ही उसने सीधे अपने वक़ील के पास जाने का फ़ैसला किया. वह अंदर-ही-अंदर बौखलाया हुआ था. फ़ीस लेते समय तो कोई कसर नहीं छोड़ते, दस की जगह सौ मांगते हैं, और काम के वक़्त पीठ मोड़ लेते हैं. तहसीलों में धक्‍के खाना क्‍या मेरा काम है? क्‍या मैंने तुम्‍हें उजरत नहीं दी?
कमिश्‍नरी का बड़ा फाटक लांघकर वह बाएं हाथ को मुड़ गया, जहां कुछ दूरी पर, अर्जीनवीसों की पांत बैठती थी. बूढ़ा वक़ील कुछ मुद्दत से अब यहीं बैठने लगा था. उसने नज़र उठाकर देखा, छोटे-से लकड़ी के खोखे में वह बड़े इत्‍मीनान से लोहे की कुर्सी पर बैठा था. उसका चौड़ा चेहरा दमक रहा था. और सिर के गिने-चुने बाल बिखरे हुए थे. उसे लगा जैसे बूढ़े वक़ील ने नया सूट पहन रखा है और उसके काले रंग के जूते चमक रहे हैं.
वह अपने बोझिल पांव घसीटता, धीरे-धीरे चलता हुआ, वक़ील के खोखे के सामने जा पहुंचा. बूढ़ा वक़ील कागजों पर झुका हुआ था, और एक नोटरी की हैसियत से अर्जियों पर किए गए दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा था, और नीचे, ज़मीन पर खड़ा, उधेड़ उम्र का उसका कारिंदा, हाथ में नोटरी की मोहर उठाए, एक-एक दर्ख्‍वास्‍त पर दस्‍तखत हो जाने पर, ठप्‍पा लगा रहा था.
‘आज भी कुछ काम नहीं हुआ,’ खोखे के सामने पहुंचते ही, उसने करीब-करीब चिल्लाकर कहा. वक़ील को यों आराम से बैठा देखकर उसका गुस्‍सा भड़क उठा था. ख़ुद तो कुर्सी पर मजे से बैठा, दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा है, और पैसे बटोर रहा है, जबकि मैं तहसीलों की धूल फांक रहा हूं.
वक़ील ने सिर उठाया, उसे पहचानते ही मुस्‍कराया. वक़ील ने उसका वाक्‍य सुन लिया था.
‘मैंने कहा था ना?’ वक़ील अपनी जानकारी बघारते हुए बोला,‘तहसीलों में दस-दस दिन लटकाए रखते हैं. मैं आजिज आ गया था, इसीलिए आपसे कह दिया था कि अब मैं यह काम नहीं करूंगा.’
‘आप नहीं करेंगे तो क्‍या मैं तहसीलों की खाक छानता फिरूंगा?’ उसने खीझकर कहा.
‘यह काम मैं नहीं कर सकता. यह काम ज़मीन के मालिक को ही करना होता है.’
उसका मन हुआ बूढ़े वक़ील से कहे, बरसों तक तुम इस मुक़दमें की पैरवी करते रहे हो. मैं तुम्‍हें मुंह-मांगी उजरत देता रहा हूं, और अब, जब आड़ा वक़्त आया है तो तुम इस काम से किनारा कर रहे हो, और मुझसे कह रहे हो कि ज़मीन के मालिक को ही यह काम करना होता है.
पर उसने अपने को रोक लिया, मन में उठती खीझ को दबा लिया. बल्कि बड़ी संयत, सहज आवाज में बोला, ‘वक़ील साहिब, आप मुक़दमे के एक-एक नुक्‍ते को जानते हैं. आपकी कोशिशों से हम यहां तक पहुंचे हैं. अब इसे छोटा-सा धक्‍का और देने की ज़रूरत है, और वह आप ही दे सकते हैं.’
पर बूढ़े वक़ील ने मुंह फेर लिया. उसकी उपेक्षा को देखते हुए वह मन-ही-मन फिर तमक उठा. पर उसकी नज़र वक़ील के चेहरे पर थी – 80 साल का बूढ़ा शून्‍य में देखे जा रहा था. अपने दम-खम के बावजूद वक़ील की आंखें धुंधला गई थीं, और बैठे-बैठे अपने आप उसका मुंह खुल जाता था. इस आदमी से यह उम्‍मीद करना कि यह तहसीलों-कचहरियों के चक्‍कर काटेगा, बड़ी-बेइनसाफी-सा लगता था. और अगर काटेगा भी तो कितने दिन तक काट पाएगा?
उसे फिर अपनी निःसहायता का भास हुआ. कोई भी और आदमी नहीं था जो इसका बोझ बांट सके, उसे सांस तक ले पाने की मोहलत दे सके. बेटे थे तो एक बंबई में जा बैठा तो दूसरा अंबाला में, और मैं इस उम्र में श्रीनगर में झख मार रहा हूं. मैं आज हूं, कल नहीं रहूंगा. मैं आंखे बंद कर लूंगा तो अपने आप ज़मीन का मसला सुलझाते फिरेंगे.
‘वक़ील साहिब, आप ही इस नाव को पार लगा सकते हैं.’ उसने कहना शुरू ही किया था कि वक़ील झट से बोला, ‘मैं कहीं नहीं जा पाऊंगा, आप मुझे माफ़ करें, अब यह मेरे बस का नहीं है.’
फिर अपने खोखे की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘आपने देख लिया यह काम कैसा है. यहां से मैं अगर एक घंटे के लिए भी उठ जाऊं तो कोई दूसरा नोटरी मेरी कुर्सी पर आकर बैठ जाएगा.’
फिर क्षीण-सी हंसी हंसते हुए कहने लगा, ‘सभी इस ताक में बैठे हैं कि कब बूढ़ा मरे और वे उसकी कुर्सी संभालें… मैं अपना अड्डा नहीं छोड़ सकता. मेरी उम्र ज़्यादा हो चुकी है, और यहां पर बिना भाग-दौड़ के मुझे दो पैसे मिल जाते हैं, बुढ़ापे में यही काम कर सकता हूं.’
‘मुश्क़िल काम तो हो गया, वक़ील साहिब, अब तो छोटा-सा काम बाक़ी है.’
‘छोटा-सा काम बाक़ी है?’ वक़ील तुनककर बोला, ‘ज़मीन का क़ब्ज़ा हासिल करना क्‍या छोटा-सा काम है? यह सबसे मुश्क़िल काम है.’
‘सुनिए, वक़ील साहिब…’ उसने कहना शुरू ही किया था कि वक़ील ने हाथ जोड़ दिए, ‘आप मुझे माफ करें, मैं कहीं नहीं जा पाऊंगा…’
सहसा, वक़ील के चेहरे की ओर देखते हुए एक बात उसके दिमाग में कौंध गई. वह ठिठक गया, और कुछ देर तक ठिठका खड़ा रहा, फिर वक़ील से बोला, ‘नहीं, वक़ील साहिब, मैं तो कुछ और ही कहने जा रहा था.’
‘कहिए, आप क्‍या कहना चाहते हैं?’
वह क्षण भर के लिए फिर सोच में पड़ गया, फिर छट से बोला, ‘अगर आप ज़मीन पर क़ब्ज़ा हासिल करने की सारी ज़िम्‍मेदारी अपने ऊपर ले लें, तो क़ब्ज़ा मिलने पर मैं आपको ज़मीन का एक-तिहाई हिस्‍सा दे दूंगा.’‘
उसने आंख उठाकर बूढ़े वक़ील की ओर देखा. वक़ील जैसे सकते में आ गया था, और उसका मुंह खुलकर लटक गया था.
‘पर इस शर्त पर कि अब इस काम में मैं ख़ुद कुछ नहीं करूंगा. सब काम आप ही करेंगे.’ वह कहता जा रहा था.
‘मैंने तो अर्ज किया न, मेरी मजबूरी है…’ बूढ़ा वक़ील बुदबुदाया.
‘आप सोच लीजिए. एक तिहाई ज़मीन का मतलब है करीब चार लाख रुपए…’
यह विचार उसे अचानक ही सूझ गया था, मानो जैसे कौंध गया हो. अपनी विवशता के कारण रहा हो, या दबी-कुचली व्‍यवहार-कुशलता का कोई अधमरा अंकुर सहसा फूट निकला हो. पर इससे उसका जेहन खुल-सा गया था.
‘आप नहीं कर सकते तो मैं आपको मजबूर नहीं करना चाहता. आप किसी अच्‍छे वक़ील का नाम तो सुझा सकते हैं जो दौड़धूप कर सकता हो. मुक़दमे की स्थिति आप उसे समझा सकते हैं’, उसने अपनी व्‍यवहार-कुशलता का एक और तीर छोड़ते हुए कहा, ‘आप मुक़दमे को यहां तक ले आए, यही बहुत बड़ी बात है.’
उसने बूढ़े वक़ील के चेहरे की ओर फिर से देखा. बूढ़े वक़ील का मुंह अभी भी खुला हुआ था और वह उसकी ओर एकटक देखे जा रहा था.
‘अब कोई वक़ील ही यह काम करेगा…’
बूढ़े वक़ील की आंखों में हल्‍की-सी चमक आ गई थी और उसका मुंह बंद हो गया था.
‘मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं कि केस की सारी मालूमात आपको है. अपना सुझाव सबसे पहले आपके सामने रखना तो मेरा फ़र्ज बनता है. आपके लिए कुछ भी मुश्क़िल नहीं है, और अदालत का फ़ैसला हमारे हक़ में हो चुका है. अब केवल क़ब्ज़ा लेना बाक़ी है…’
अपनी बात का असर बूढ़े वक़ील के चेहरे पर होता देखकर, वह मन-ही-मन बुदबुदाया : ‘लगता है तीर निशाने पर बैठा है.’
‘लेकिन मैं अपने पल्‍लू से अब और कुछ नहीं दूंगा. न पैसा, न फ़ीस, न मुआवजा, कुछ भी नहीं. बस, एक-तिहाई ज़मीन आपकी होगी, और शेष मेरी…’
बोलते हुए उसे लगा जैसे उसके शरीर में ताकत लौट आई है, और आत्‍मविश्‍वास लहराने लगा है. उसे लगा जैसे अगर वह इस वक़्त चाहे तो भाषण दे सकता है.
‘पटवारी, तहसीलदार, घुसपैठिया, जिस किसी को कुछ देना होगा तो आप ही देंगे…’
फिर बड़े ड्रामाई अंदाज में वह चलने को हुआ, और धीरे-धीरे बड़े फाटक की ओर क़दम बढ़ाने लगा.
‘अपना फ़ैसला आज शाम तक मुझे बता दें,’ फिर, पहले से भी ज़्यादा ड्रामाई अंदाज में बोला, ‘अगर मंजूर हो तो मैं अभी मुआहिदे पर दस्‍तख़त करने के लिए तैयार हूं.’
और बिना उत्तर का इंतजार किए, बड़े फाटक की ओर बढ़ गया.
दूसरे दिन, अपनी मृत्‍यु के कुछ ही देर पहले, वह पार्क में, एक बेंच पर बैठा, हल्‍की-हल्‍की धूप का आनंद ले रहा था और पिछले दिनों की थकान उतार रहा था. वह मन-ही-मन बड़ा आश्‍वस्‍त था कि उसे एक बहुत बड़े बोझ से छुटकारा मिल गया है. अब वह चैन से बैठ सकता है और फिर से भविष्‍य के सपने बुन सकता है.
इस प्रस्‍ताव ने दोनों बूढ़ों की भूमिका बदल दी थी. जिस समय वह धूप में बैठा अधमुंदी आखों से हरी-हरी घास पर चमकते ओस के कण देख रहा था, उसी समय तहसील की ओर जाने वाली खचाखच भरी बस में, डंडहरे को पकड़कर खड़ा वक़ील अपना घर बनाने के मनसूबे बांध रहा था. दिल में रह-रहक़र गुदगुदी-सी उठती थी. ज़िंदगी-भर किराए के मकान में, तीसरी मंज़िल पर टंगा रहा हूं. किसी से कहते भी शर्म आती है कि सारी उम्र काम करने के बाद भी अपना घर तक नहीं बना पाया. बेटे बड़े हो गए हैं और दिन-रात शिकायत करते हैं कि तुमने हमारे लिए क्‍या किया है? …इधर खुली ज़मीन होगी, छोटा-सा आंगन होगा, दो-तीन पेड़ फलों के लगा लेंगे, छोटी-सी फुलवाड़ी बना लेंगे. ज़िंदगी के बचे-खुचे सालों में, कम-से-कम रहने को तो खुली जगह होगी, संकरी गली में, तीसरी मंज़िल पर लटके तो नहीं रहेंगे… एक स्‍फूर्ति की लहर, पुलकन-सी, एक झुरझुरी-सी उसके बदन में उठी और सरसराती हुई, सीधी, रीढ़ की हड्डी के रास्‍ते सिर तक जा पहुंची. खुली ज़मीन का एक टुकड़ा, लाखों की लागत का, बैठे-बिठाए, मुफ़्त में मिल जाएगा, न हींग लगे, न फिटकरी. अच्‍छा हुआ जो लिखा-पढ़ी भी हो गई, मुवक्किल को दोबारा सोचने का मौका ही नहीं मिला.
इस गुदगुदी में वह बस पर चढ़ा था. पर कुछ फासला तय कर चुकने पर, बस में खड़े-खड़े बूढ़े वक़ील की कमर दुखने लगी थी. अस्‍सी साल के बूढ़े के लिए बस के हिचकोलों में अपना संतुलन बनाए रखना कठिन हो रहा था. दो बार वह गिरते-गिरते बचा था. एक बार तो वह, नीचे सीट पर बैठी एक युवती की गोद में जा गिरा था, जिस पर आसपास के लोग ठहाका मारकर हंस दिए थे. पांव बार-बार लड़खड़ा जाते थे, पर मन में गुदगुदी बराबर बनी हुई थी.
पर कुछ ही देर बाद, बस में खड़े रहने के कारण, घुटनों में दर्द अब बढ़ेगा. तहसील अभी दूर है और वहां पहुंचते-पहुंचते मैं परेशान हो उठूंगा. दर्द बढ़ने लगा और कुछ ही देर बाद उसे लगने लगा जैसे किसी जंतु ने अपने दांत उसके शरीर में गाड़ दिए, और उसे झिंझोड़ने लगा है. न जाने तहसील तक पहुंचने-पहुंचते मेरी क्‍या हालत होगी? …बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले ली. जाए भाड़ में ज़मीन का मालिक. और वह जहां पर खड़ा था, वहीं घुटने पकड़कर बस के फर्श पर, हाय-हाय करता बैठ गया.
उस समय बस, उस बस्‍ती को पार कर रही थी, जहां बेंत के पेड़ों के झुरमुट के बीच, नाले के किनारे-किनारे सड़क चलती जा रही थी, और जहां पानी की सतह पर लहरियां बनाती हुई, बतखें आज भी तैर रही थीं.
उधर, पार्क के बेंच पर बैठा ज़मीन का मालिक, थकान दूर हो जाने पर, धीरे-धीरे ऊंघने लगा था, उसकी मौत को कुछ ही मिनट बाक़ी रह गए थे. वह अभी भी आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, चलो, इस सारी चख-चख और फ़जीहत में से निकल आया हूं. उसे यह सोचकर सुखद-सा अनुभव हुआ कि वह आराम से बेंच पर बैठा सुस्‍ता रहा है जबकि वक़ील इस समय तहसील में ज़मीन के कागज निकलवाने के लिए भटक रहा है. …पर ज़मीन का ध्‍यान आते ही उसके मन को धक्‍का-सा लगा. सहसा ही वह चौंककर उठ बैठा. यह मैं क्‍या कर बैठा हूं? एक तिहाई ज़मीन दे दी? अदालत का फ़ैसला तो मेरे हक़ में हो चुका है. अब तो केवल क़ब्ज़ा लेना बाक़ी था. ज़मीन तो मुझे मिल ही जाती. लाखों की ज़मीन उसके हवाले कर दी और लिखत भी दे दी. कहां तो वक़ील को ज़्यादा-से-ज़्यादा पांच सौ-हजार की फीस दिया करता था, वह भी चौथे-पांचवें महीने, और कहां एक-तिहाई ज़मीन ही दे दी. लूट कर ले गया, बैठे-बिठाए लूट कर ले गया. उसके मन में चीख-सी उठी. यह मैं क्‍या कर बैठा हूं? न किसी से पूछा, न बात की. देना ही था तो एकमुश्‍त कुछ रकम देने का वादा कर देता. अपनी ज़मीन कौन देता है? बैठे-बिठाए मैंने कागज पर-वह भी स्‍टांप पेपर पर दस्‍तखत कर दिए. यह मैं क्‍या कर बैठा हूं? और स्टांप पेपर की तस्‍वीर आंखों के सामने खिंच गई. तभी कहीं से ज़ोर का धक्‍का आया और दर्द-सा उठा, पहले एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार, और वह बेंच पर से लुढ़ककर, नीचे, ओस से सनी, हरी-हरी घास पर, औंधे मुंह जा गिरा.

Illustration: Pinterest

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