धर्म और सियासत द्वारा अपने-अपने फ़ायदे के लिए रिश्तों में नफ़रत का ज़हर घोलने का काम किया जाता रहा है. उस ज़हर से हम और हमारे आपसी रिश्ते प्रभावित भी होते हैं. पर नफ़रत की दीवार कितनी भी मज़बूत क्यों न हो, एक दिन जीत मोहब्बत की होती है. लेखिका डॉ संगीता झा की कहानी ‘मोहब्बत का दिन’ यही प्यारा-सा संदेश देती है.
बड़ा गहरा रिश्ता है सियासत से तबाही का
जिस्म जले या मज़हब
घर जले या शहर
हमेशा कुर्सियां मुस्कुराती हैं
मैं तो भुक्तभोगी थी, सब कुछ मेरे साथ घट रहा था. किसी को कोई सरोकार नहीं, सियासती नुमाइंदों के सामने ना केवल मेरा घर बल्कि मेरे लोग जल रहे थे. साथ में जल रही थी सारी सजावट जो आज मेरे निकाह के लिए की गई थी. मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि एकाएक क्या हुआ अभी दो घंटे पहले ही तो मैं अपनी सहेली अंजली के साथ पार्लर गई थी. हमारा और शुक्ला अंकल का घर जुड़ा हुआ था. कभी लगा ही नहीं कि हमारा मज़हब अलग-अलग है, हम ख़ान और वो शुक्ला ब्राह्मण. कोई दीवाली, कोई होली बिना हमारे ना वहां मनी ना ही बिना उनके हम कोई ईद मना पाए.
कभी बचपन में जान भी नहीं पाई कि धर्म के बीच इतनी खाई भी है. होली मेरे लिए रंगों का खेल और गुझिया थी, थोड़ी बड़ी हुई तो होली में मोहल्ले के लड़कों का रंग लगाना बदन में एक सिहरन पैदा कर देता फिर वही छुपा छिपाई, पिट्टू और जहां के तहां हम सब. खेलते-खेलते अगर पैर हाथ धोने की इच्छा होती तो जो घर पास होता वही अपना घर होता. अगर शुक्ला चाची के आंगन में पैर धोने जाती तो वो पास बुला समझातीं,‘‘इतनी बड़ी हो गई छोरी अभी तक अक़्ल नहीं आई, कुछ तो अपना ध्यान रखा करो. लड़कों के साथ रात-दिन हड़ हड़ खेलती रहती हो.’’
चाची अपना डांटना पूरा भी नहीं कर पातीं, उतनी ही ज़ोर से उन्हें डांट पड़ती,‘‘शुक्लाइन अपना ज्ञान अपनै पास रखो, हमाई बेटियों का सुख तुमाई आंखों को चुभता है. तुमाई मां ने तुमाये पैर में ताले लगा दिए थे इसका का मतलब ये नहीं कि तुम हमाई बेटियों की दुश्मन बन जाओ,’’ चाचा चिल्लाते.
‘‘हां हां जाओ लड़कियों को बैरिस्टर बनाओ, कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो हमें ना कहो. चलो हम ठहरे कान्यकुब्ज ब्राह्मण हमारे यहां तो लड़कियों को पढ़ाने का चलन है. ये मुसलमान लड़की, इनके यहां तो पर्दा करते हैं. लड़कियों को कॉलेज भी ना भेजे हैं,’’ चाची बड़बड़ाती रहती.
‘‘ख़बरदार जो धर्म और जात की बात की, अंजुम उतनी ही हमारी भी बेटी है जितनी मिर्ज़ा साहब की,’’ चाचा चिल्लाते.
काश ऐसी सोच सबकी होती. कानपुर की तंग गलियों से निकल मेरे अब्बू और अंजली के पापा एक साथ देश की राजधानी आए थे कि यहां धर्म दोस्ती के आड़े नहीं आएगा. हुआ भी ऐसा ही, एक साथ घर लिया और कारोबार भी एक साथ शुरू किया. अम्मी और चाची सारा काम एक साथ करते. बाज़ार, कपड़े, राशन सब कुछ यहां तक कई बार एक ही जगह खाना भी बनता. हिंदू त्यौहारों में हमारे यहां भी बिना प्याज़ लहसुन के और बक़रीद में उन लोगों ने भी अपने रिश्तेदारों की नज़र से छुप मटन खाना भी शुरू कर दिया था. ऊपर वाले की ऐसी लीला थी कि मुझ अंजुम को चाची के हींग जीरे वाले आलू अच्छे लगते तो अंजली अम्मी से दो प्याज़ा मटन की फ़रमाइश करती. मेरे और अंजली के बाद मेरे यहां अमन तो शुक्ला चाचा के यहां अंकुश आया. लगा ही नहीं कभी हम अलग-अलग हैं. सगे चार बहनों-भाइयों की तरह हम बड़े हुए. जब भी शुक्ला चाची मुझे देख मुसलमानी कल्चर की बात करती तो मेरा दिल बैठ सा जाता. पूरे ठाकुर नगर में असलम मिर्ज़ा और अशोक बाजपेयी की दोस्ती की क़समें खाई जातीं. अंजली कभी मुझे छोड़ रीता, नीता या आराधना के पास जाती तो मैं पूरी रात सो नहीं पाती. उसके पास जाने से भी जब कतराती तो वो बड़े प्यार से मुझे समझाती,‘‘अरे पगली रीता से दोस्ती कोई तुझसे बैर थोड़े ही है. तू तो मेरा जिगर है, जिगर के बिना भला कोई रह सकता है.’’
ऐसी ही कुछ दोस्ती अमन और अंकुश की थी. दोनों भी एक साथ स्कूल जाते, शाम को खेलते. यहां तक कभी-कभी एक साथ सो जाते. इसमें भला दरार की उम्मीद! सपने में भी नहीं की जा सकती थी. सारा बचपन हमने ये सिखा कि धर्म एक पर्सनल चीज़ है और अपना विश्वास, अपनी इबादत घर की चार दीवारी के अंदर ही होना चाहिए. इधर कुछ सालों से मैं महसूस कर रही थी अमन अक्सर मुसलमान दोस्तों को लेकर घर आने लगा था. आसपास रहने वाले कट्टर मुसलमान हमें अपने घर बुलाने लगे थे.
शुक्ला चाचा की अंजली भी शादी के लायक हो रही थी, इससे चाचा ने भी ब्राह्मण समाज के कार्यक्रमों में जाना आरंभ कर दिया था. वहां वो अब्बू को बिना बताए जाते थे. मैं अंजुम भी तेइस साल की हो चली थी. बीएससी अच्छे अंकों से पास कर एमबीए करना चाहती थी, लेकिन अब अब्बू की ख़ानदानी सोच यहां भी आड़े आ गई, पता नहीं कब वो एक बाप से मुसलमान बाप बन गए! उन्होंने भी जुम्मे के दिन मस्जिद और बाक़ी दिनो क़ौमी इस्तेमा में जाना शुरू कर दिया. घर पर भी बड़ी-बड़ी दाढ़ी और पान से रचे मुंह वाले मुसलमान आने लगे. मुझे बिना बुरक़े के देख उनकी नज़रें ऐसी हो जातीं, मानो मुझे चीर कर रख देंगी. उनके आने पर अम्मी भी ख़ुश हो जाती, और तो और मेरा अपना भाई जो मुझे आपी नहीं हमेशा अंजली की तरह दी कह पुकारता था उन्हें ‘सलाम चचाजान’ कह झुक कर सलाम करता. उसने तो मुझे भी ‘आपीजान’ कहना शुरू कर दिया था. घर के इन मर्दों का इस तरह बदलना मुझे बहुत परेशान कर रहा था.
वहां यही बदलाव शुक्ला चाचा के यहां भी दिख रहा था. यदा-कदा मंदिर जाने वाले शुक्ला चाचा अब हर मंगल हनुमान जी के मंदिर जाने लगे थे. अपने सगे भाई से भी ज़्यादा प्यारा अंकुश ने भी मुझसे थोड़ी दूरी बना ली थी. उसे अम्मी के हाथ का बना मटन कोरमा बहुत पसंद था. मुझे पसंद ना होने के बावजूद मैं भी ज़िद कर उसके लिए वही बनवाती. यही हाल शुक्ला चाची के हाथों बनी उड़द की कचौड़ी और मसाले वाले आलू का था. हम चारों सगे भाई बहनों से भी ज़्यादा सगे थे. दुनिया की कोई भी दीवार हमें विभाजित नहीं कर पाई. हमारे और उनके कई रिश्तेदारों ने धर्म का वास्ता दे हमें अलग करने की कोशिश भी की, पर वो फिर कभी हमारे घर नहीं आ पाए. मेरी फूफी की सारी परेशनियां जहां शुक्ला चाचा दूर करते थे, वहीं अंजली की बुआ के जिन्न अब्बू थे.
अभी चार दिनो पहले ही अब्बू को ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते पाया कि ये नई परेशानी एनआरसी जिसने हम मुसलमानों का जीना हराम कर दिया है. सरकार नहीं चाहती कि हम शांति से रहें. शुक्ला चाचा अब्बू को समझाने की पूरी कोशिश करते कि वो निश्चिंत रहें, किसी के बहकावे में ना आवें. ज़िंदगी भला कभी इतनी सरल कहां होती है. अब्बू के कान भरने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि पता ही नहीं चला प्यारे शुक्ला चाचा कब पड़ोस में रहने वाले हिंदू बन गए. अमन अब अमान मियां और अंकुश हमारे लिए पंडित का बेटा बन गया. इतने रंग तो गिरगिट भी नहीं बदलता था, हम इंसानों ने बाज़ी मार ली. एक रिश्ता जो ना बदला था और जो तड़प रहा था वो मेरे और अंजली के बीच का था. हम दोस्त से ज़्यादा बहनें थीं और हम ख़ामोशी से अपने रिश्ते को निभाए जा रहे थे.
इतनी उथल-पुथल के बीच अब्बू ने असद के साथ मेरा निकाह तय कर दिया. शायद उनके दाढ़ी वाले दोस्तों ने उनके दिमाग़ में जाले डाल दिए थे कि हिंदुओं के बीच रहते हैं, कहीं काफ़िर बेटी को ही नहीं उठा ले जाएं. आनन-फानन में तारीख़ भी मुक़र्रर कर दी गई. यहां मेरी तक़दीर ने मेरा साथ दिया मुझे तो असद से मिलने की मनाही थी, इससे मैंने अंजली को मिलने भेजा. मुझे तो बस इतना मालूम था कि इंजीनियर है, माइक्रोसॉफ़्ट में काम करता है और इसी शहर में है. अंजली ने अपने जासूस दौड़ा कर सारा पता किया और तो और बक़ायदा मिल भी आई. उसके साथ अपनी सेल्फ़ी भी ली और आते साथ उसका जवाब था,‘‘देख वो मेरी अंजुम तेरे लिए नहीं मेरे लिए बना है, काश ..वो अमर होता. तेरे रंग में रंग जाऊंगी मैं तो असद.’’ मैं तो ठहाका मार कर हंसने लगी. नफ़रत के रेगिस्तान में एक ठंडी बयार सा लगा सब कुछ. फिर वो चहकने लगी,‘‘क्यों ना मैं भी धर्म बदल आफ़रीन बन जाऊं, फिर अपन दोनों एक असद को पाण्डु बना कुन्ती-माद्री की तरह रहेंगे. तुम हिंदू लोग भी ना बस, कहते मुसलमानों की चार-चार बीवी होती है और तुम्हारे यहां राजा दशरथ की तीन बीवियां, द्रौपदी के पांच पति, पाण्डु की दो बीवियां.’’
मैं चिल्लाई,‘‘ये तू कब से हिंदू और मैं मुसलमान बन गए.’’
वो कहती,“जब से एनआरसी आया है, शाहीन बाग़ में तेरी खाला, मुमानी धरना दे के बैठी है, जा… तू भी जा वहीं बैठ जा.’’
ख़ैर, बहुत दिनों बाद दिल बल्लियों उछला था. थोड़ी भविष्य के सपने भी देखने लगी थी. उसने बताया असद भी हमारे जैसे ही
सोच रखने वाला युवक है. शुक्ला, ख़ान, पांडे और सिद्दीक़ी की जंग से वो भी हमारी तरह परेशान है. फिर एक ठंडी बयार ने दिल को छुआ कि अब मुझे इन तंग गलियों से आज़ादी मिल जाएगी. खुली हवा में सांस लेने का कुछ और ही मज़ा है.
देखते-देखते वो मुक़र्रर दिन आ ही गया. अब्बू पर इस क़दर जुनून था कि शाहीन बाग़, एनआरसी और इतनी अफ़रा तफ़री के बीच भी जो ठाना, उसे अंजाम देना चाहते थे. घर को सजाया गया, बाहर शामियाना और फूलों की लड़ियां. शुक्ला चाचा-चाची जश्न में शामिल तो थे, पर दूसरे पड़ोसियों की तरह. उनके बहन-भाइयों को तो न्यौता भी नहीं भेजा गया. पड़ोसियों के रिश्तेदारों को कौन बुलाता है भला? केटरिंग वाले पर प्लेट काउंट करते हैं, लेकिन अंजली इस सारे जश्न में मेरे साथ मेरा साया बनी हुई थी. मैं और अंजली मुझे तैयार कराने घर से थोड़े दूर के पार्लर गए. अब्बू ने एक ड्राइवर, जिसका नाम असलम था, के साथ हमें भेजा. ड्राइवर को इल्म भी नहीं था कि मेरे बगल में कार में अंजली थी. रास्ते भर वो मुल्क के हालात, हिंदू और शाहीन बाग़ पर बातें करता रहा. सरकार को कोसता रहा. मैं और अंजली उसे पक्ष मान ख़ुद को विपक्ष में रख उसके सारे तर्कों को काट मज़ा लेते रहे और वो हमें कोसता रहा,‘‘क्या ज़माना आ गया है? कैसी जनानिया हैं आप लोग, मज़हब की कोई समझ नहीं, दीनी तालीम ली भी है की नहीं?”
हम हंसने लगे,“दीनी तालीम मतलब मुल्क़ को बांटना, हिंदुओं से झगड़ा करना है क्या? अच्छा इंसान बनने की ज़रूरत है.’’
उसने कहा,“बीबी ये किताबी बातें हैं. हम मुसलमान अगर मिल कर इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाएंगे तो ये हमें बरबाद कर देंगे.”
“ठीक है, ठीक है मियां इन सभी तंग सोचो से ऊपर उठो. कोई हिंदू, कोई मुसलमान नहीं, हम सब इंसान हैं और हिंदुस्तानी.” मैंने जवाब दिया. मेरा शानदार ब्राइडल मेकअप भी हो गया. मैं और अंजली फिर वापस घर की ओर चल पड़े. अभी हम आधे रास्ते ही आए थे कि सड़क पर बड़ी अफ़रा तफ़री दिखी. पुलिस वाले अपनी गाड़ियों में सायरन बजाते हुए घूम रहे थे. ड्राइवर का फ़ोन भी बजने लगा, जो अब्बू का था. उसने बताया कि अब्बू ने उसे तुरंत घर आने के लिए कहा है, क्योंकि हमारे मोहल्ले में दंगा शुरू हो गया है. मैंने और अंजली ने एक दूसरे का हाथ कस के पकड़ा और हम मन ही मन आश्वस्त हुए कि हमें डरने की क्या ज़रूरत है, अगर हिंदू बजरंग दल वाले आए तो शुक्ला चाचा अब्बू-अम्मी और हम सबको बचा लेंगे, ठीक उसी तरह मुसलमानों से अब्बू बचाएंगे. ड्राइवर बहुत डरा हुआ था, हमारा दिल भी धक-धक कर रहा था. जैसे ही हम अपनी सड़क के मोड़ पर पहुंचे अंकुश यानी अंजली के छोटे भाई को खड़े पाया. उसने हम दोनों को कार से उतर जाने को कहा और ड्राइवर को बाहर से ही जाने को कह दिया. उसकी सांसे ऊपर-नीचे हो रही थीं और वो बहुत घबराया हुआ भी था. पूरा पसीने से लथपथ कड़ाके की ठंड में भी. हम समझ ही नहीं पाए हुआ क्या है? हमारे बार-बार पूछने पर बस इतना ही कहा,‘‘पहले घर चलो.’’ इसके बाद उसने कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और गहरी-गहरी सांस लेने लगा. शायद वो मर्द बनने की कोशिश कर रहा था. घर के पास पहुंच कर जो मंज़र मिला उससे तो जैसे मेरी सांसें मानो रुक ही गईं. दंगाइयों को मेरे शामियाने की रौशनी ने इतना परेशान कर दिया कि उन्होंने उसे ही जला दिया. ख़ुशी से उन्हें नफ़रत जो थी. मेरा सारा घर धू धू, कर जल रहा था. मैं चिल्लाने लगी. अंकुश ने मुझे अपनी छाती से चिपका लिया और सीधे उनके घर के अंदर ले गया. मैं तो कटे पेड़ की तरह नीचे गिर पड़ी. होश आने पर अपने सिरहाने पर शुक्ला चाचा-चाची को अपना माथा थपथपाते पाया. मैं फिर चिल्लाने लगी,‘‘अम्मी, अब्बू, अमन सब कहां हैं?” चाचा ने मेरा माथा सहलाते हुए कहा, तीनों को नीचे गराज में एक टेबल फ़ैन लगा कर सुला दिया है. उनके पास गिरिजा (चाचा की नौकरानी) है. मेरी तो जैसे जान में जान आई. चाचा ने उन्हें दंगाइयों से छुपा रखा था. वे ना तो हिंदू थे, ना अल्लाह के बंदे वो तो बस पेशावर दंगाई थे.
दूसरे दिन की सुबह एक बड़ी प्यारी सुबह थी. एनआरसी ने दो दोस्तों ने अलग कर दिया और दंगों ने फिर मिला दिया. हमारा घर जल गया, पूरी तैयारी जल गई. अब्बू की जवान लड़की का निकाह नहीं हो पाया. सारी दुनियावी चीज़ें स्वाहा होने के बावजूद हम ख़ुशियां मना रहे थे, क्योंकि हमारे दिल जलने से बच गए. हमारी उम्मीदें ज़िंदा बची रहीं. इंसानियत ने फिर एक बार हैवानियत को हरा दिया.
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