हम दुनिया में अकेले आते और जाते भले हों, पर दुनिया में हमें टिकाए रखने का काम करते हैं रिश्ते. क्या होता है, जब एक आदमी दुनिया से जा रहा होता है. क्या सोच रहे होते हैं, उससे जुड़े रिश्ते उसके जाने के बारे में. किसी के जाने से सबसे ज़्यादा फ़र्क़ किसे पड़ता है? कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशती है दिवंगत मन्नू भंडारी की कहानी मुक्ति.
…और अंततः ब्रह्म मुहूर्त में बाबू ने अपनी आख़िरी सांस ली. वैसे पिछले आठ-दस दिन से डॉक्टर सक्सेना परिवार वालों से बराबर यही कह रहे थे,“प्रार्थना कीजिए ईश्वर से कि वह अब इन्हें उठा लें… वरना एक बार अगर कैंसर का दर्द शुरू हो गया तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे ये.” परिवार वालों के अपने मन में भी चाहे यही सब चल रहा हो, पर ऊपर से तो सब एक दुखद मौन ओढ़े खड़े रहते, बिल्कुल चुपचाप! तब सबको आश्वस्त करते हुए डॉ. सक्सेना ही फिर कहते,“वैसे भी सोचो तो इससे अधिक सुखद मौत और क्या हो सकती है भला? चारों बच्चे सेटल ही नहीं हो गए, कितना ध्यान भी रखते हैं पिता का…वरना आज के ज़माने में तो… बड़े भाग से मिलता है ऐसा घना-गुंथा संयुक्त परिवार, जिसके आधे से ज़्यादा सदस्य तो इसी शहर में रहते हैं और बराबर जो अपनी ड्यूटी निभाते ही रहे हैं, कहीं कोई चूक नहीं, कोई कमी नहीं.”
परिवार के लोग चुप. मेरा मन ज़रूर हुआ कि उन्हीं की बात आगे बढ़ाते हुए इतना और जोड़ दूं कि कितनों को मिलते हैं आप जैसे डॉक्टर, जो इलाज करते-करते परिवार के सदस्य ही बन गए…बाबू के तीसरे बेटे! पर कहा नहीं गया. मैं भी परिवार वालों के साथ चुप ही खड़ी रही.
“और सबसे बड़ी बात तो यह कि कितनों को नसीब होती है ऐसी सेवा करने वाली पत्नी? मैं तो हैरान हूं उनका सेवा-भाव देखकर. आख़िर उम्र तो उनकी भी है ही…उसके बावजूद पिछले आठ महीनों से उन्होंने न दिन को दिन गिना, न रात को रात! बस लगातार…” और बिना वाक्य पूरा किए ही मुड़कर वे जाने लगते. पता नहीं क्यों मुझे लगता, जैसे मुड़ते ही वे अम्मा के इस सेवा-भाव के प्रति कहीं नत-मस्तक हुए हों और मैं सोचती कि चलो, कम से कम एक आदमी तो है जिसके मन में अम्मा की इस रात-दिन की सेवा के प्रति सम्मान है…वरना परिवार वालों ने इस ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया है. बस, जैसे वो करती हैं तो करती हैं… किसी ने इसे उनके फ़र्ज़ के खाते में डाल दिया तो किसी ने उनके स्वभाव के खाते में तो किसी ने उनकी दिनचर्या के खाते में. सब के ध्यान के केन्द्र में रहे तो केवल बीमार बाबू. स्वाभाविक भी था…बीमारी भी तो क्या थी, एक तरह से मौत का पैगाम. हां, मुझे ज़रूर यह चिन्ता सताती रहती थी कि बिना समय पर खाए, बिना पूरी नींद सोए, बिना थोड़ा-सा भी आराम किए जिस तरह अम्मा रात-दिन लगी रहती हैं तो कहीं वे न बीमार पड़ जाएं, वरना कौन देखभाल कर सकेगा बाबू की इस तरह? बाबू दिन-दिन भर एक खास तेल से छाती पर मालिश करवाते थे तो रात-रात भर पैर दबवाते थे. मैं सोचती कि बाबू को क्या एक बार भी ख़याल नहीं आता कि अम्मा भी तो थक जाती होंगी. रात में उन्हें भी तो नींद की ज़रूरत होती होगी या दिन में समय पर खाने की. पर नहीं, बाबू को इस सबका शायद कभी ख़्याल भी नहीं आता था. उनके लिए तो अपनी बीमारी और अपनी तीमारदारी ही सबसे महत्त्वपूर्ण थी और इस हालत में अम्मा से सेवा करवाना वे अपना अधिकार समझते थे तो इसी तरह सेवा करना अम्मा का फ़र्ज़. कई बार अम्मा को थोड़ी-सी राहत देने के इरादे से मैं ही कहती कि बाबू, लाइए मैं कर देती हूं मालिश… चार बज रहे हैं अम्मा खाना खाने चली जाएं, तो बाबू मेरा हाथ झटक कर कहते, रहने दे. नहीं करवानी मुझे मालिश. और इस उत्तर के साथ ही उनके ललाट पर पड़ी सलवटों को देखकर न फिर अम्मा के हाथ रुकते, न पैर उठते. उसके बाद तो मैंने भी यह कहना छोड़ ही दिया.
तीन महीने पहले बाबू को जब नर्सिंग-होम में शिफ़्ट किया तो ज़रूर मैंने थोड़ी राहत की सांस ली. सोचा, अब तो उनकी देखभाल का थोड़ा बोझ नर्स भी उठाया करेंगी…अम्मा को थोड़ी राहत तो मिलेगी. पर नहीं, नर्स से तो बाबू केवल दवाई खाते या बीपी चेक करवाते. बाक़ी की सारी सेवा-चाकरी तो अम्मा के ही जि़म्मे रही. अम्मा रात-दिन बाबू के साथ नर्सिंग होम में ही रहतीं, और मालिश और पैर दबाने का काम भी पहले की तरह ही चलता रहता. हां, डॉक्टर सक्सेना की विशेष सिफ़ारिश पर रात में कभी कोई ज़रूरत पड़ जाए तो अम्मा के साथ रहने के लिए परिवार का कोई न कोई सदस्य आता रहता.
कल रात नौ बजे के क़रीब हम लोग खाना खाकर उठे ही थे कि फ़ोन की घंटी बजी. मैंने फ़ोन उठाया तो उधर बड़े चाचा थे,“छोटी, भैया की पहले आवाज़ गई और फिर थोड़ी देर बाद वे बेहोश हो गए. डॉक्टर सक्सेना को बुलाया. उन्होंने आकर अच्छी तरह देखा और फिर कमरे से बाहर आकर इतना ही कहा,‘बस, समझिए कि कुछ घंटे की ही बात और है. आप फ़ोन करके बच्चों को बुला लीजिए.’ फिर उन्होंने नर्स को कुछ आदेश दिए और चले गए. सो देख, तू फ़ोन करके शिवम को कह दे कि सवेरे की पहली फ़्लाइट पकड़कर आ जाए. लखनऊ फ़ोन करके बड़ी को भी कह दे कि वह भी जल्दी से जल्दी पहुंचे. अमेरिका से नमन का आना तो मुश्क़िल है, पर सूचना तो उसे भी दे ही दे. और सुन, फ़ोन करके तू नर्सिंग-होम आ जा. मैं बाहर निकलूगा…सारी व्यवस्था भी तो करनी होगी.”
सुना तो मैं ज्यों का त्यों सिर थामकर बैठ गई. बिना बताए ही रवि जैसे सब कुछ समझ गए. स्नेह से मेरे कन्धे पर हाथ रखकर पूछा,“नर्सिंग होम चलना है?”
मैंने धीरे-से गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दी तो रवि ने पूछा,“क्या कहा चाचाजी ने…क्या…?”
“बाबू बेहोश हो गए हैं और डॉक्टर साहब ने अच्छी तरह देखने के बाद कहा कि बस कुछ ही घंटों की बात और है, परिवार वालों को ख़बर कर दो…यानी कि बाबू अब…” और मेरी आवाज रुन्ध गई. रवि ने मेरी पीठ सहलाई. “तुम तो हिम्मत रखो वरना अम्मा को कौन संभालेगा?” अम्मा की बात सोचकर एक बार तो मैं और विचलित हो गई. क्या गुज़रेगी उन पर! पर फिर अपने को संभाल कर उठी और सबसे पहले बम्बई बड़े भय्या को फोन किया. सारी बात सुनकर वे बोले,“थैंक गॉड. बिना तक़लीफ़ शुरू हुए ही शान्ति से जाने की नौबत आ गई. ठीक है, मैं सवेरे की पहली फ़्लाइट लेकर आता हूं…पर देख, सुषमा तो आ नहीं पाएगी. दोनों बच्चों के बोर्ड के इम्तिहान जो हैं. मैं अकेला ही पहुंचता हूं. वैसे भी सब लोग करेंगे भी क्या?’’ दीदी को फ़ोन किया तो उन्होंने भी इतना ही कहा कि जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करती हूं. इसके आगे-पीछे न कुछ कहा, न पूछा. बाबू तो ख़ैर जा ही रहे हैं, अम्मा के बारे में ही कुछ पूछ लेते, पर नहीं. लगा, जैसे रस्म-अदायगी के लिए आना है, सो आ रहे हैं.
हैरान-सी मैं गाड़ी में बैठी तो रवि से कहे बिना न रहा गया,“रवि, भय्या और दीदी की आवाज़ का ऐसा ठंडापन, जैसे सब इस सूचना की प्रतीक्षा ही कर रहे थे…किसी को कोई सदमा ही न लगा हो.”
“ऐसा क्यों सोचती हो? याद नहीं, कैसा सदमा लगा था उस दिन जब पहली बार डॉक्टर्स से कैंसर की रिपोर्ट मिली थी? उसके बाद कुछ महीनों तक तो कितनी लगन से बाबू की देखभाल और तीमारदारी चलती रही थी. शुरू के चार महीनों में दो बार तो बम्बई से बड़े भय्या आए. एक बार अमेरिका से छोटे भय्या भी आए…उन्होंने तो बीमारी का सारा ख़र्च उठाने का ज़िम्मा भी लिया, वरना आज बाबू क्या नर्सिंग-होम का ख़र्चा उठा पाते? फिर, यहां रहनेवाले परिवार के दूसरे लोग भी तो रोज़ हाज़री बजाते ही रहे थे. हां, समय के साथ-साथ ज़रूर सब कुछ थोड़ा कम होता चला गया…जो बहुत स्वाभाविक भी था.”
मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहे हैं रवि. दूसरों की क्या कहूं…मैं ख़ुद अब कहां पहले की तरह चार-चार, पांच-पांच घंटे आकर बाबू के पास बैठती रही हूं. इधर तो दो-दो दिन छोड़कर भी आने लगी थी. शायद यही जीवन की नंगी सच्चाई है कि जैसे-जैसे बीमारी लम्बी खिंचती चलती है, फ़र्ज़ के तौर पर ऊपर से भले ही सब कुछ जैसे-तैसे घिसटता रहे, पर मन की किसी अनाम परत पर उस अघट के घटने की प्रतीक्षा भी नहीं चलती रहती? शायद इसीलिए मौत की इस सूचना ने सदमा नहीं, राहत ही पहुंचाई सबको. फिर भी कम से कम… मेरे मन में चलनेवाली हर बात, हर सोच को अच्छी तरह समझने वाले रवि का एक हाथ मेरी पीठ सहलाने लगा,“रिलैक्स शिवानी, रिलैक्स! इस समय सब बातों से ध्यान हटाकर तुम केवल अम्मा की बात सोचो. अभी तो तुम्हें ही संभालना है उन्हें. बाक़ी सब लोग तो बाबू में लग जाएंगे. पर अम्मा पर जो गुज़रेगी…”
“जानती हूं. लम्बी बीमारी ने जहां अन्तरंग से अन्तरंग सम्बन्धों के तार भी रेशे-रेशे करके बिखेर दिए, वहां एक अम्मा ही तो जुड़ी रहीं उनसे. उतने ही लगाव, उतनी ही निष्ठा के साथ रात-दिन सेवा करती रहीं उनकी. कितनी अकेली हो जाएंगी वे…कैसे झेलेंगी इस सदमे को?”
गाड़ी रुकी तो लगा, अरे, नर्सिंग-होम आ ही गया. समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे सामना करूंगी अम्मा का? जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर ऊपर चढ़ी तो हैरान! अम्मा वैसे ही बाबू के पैर दबा रही थीं. मुझे देखते ही बोलीं,“अरे छोटी, तू कैसे आई इस बखत?”
समझ गई कि चाचा अम्मा को बिना कुछ बताए ही बाहर निकल गए. मैंने भी अपने को भरसक सहज बनाकर ही जवाब दिया,“चाचा का फ़ोन आया था. उन्हें किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना था, सो उन्होंने मुझे तुम्हारे पास आकर बैठने को कहा, तो आ गई.”
अम्मा का सामना करना मुश्क़िल लग रहा था, सो यों ही मुड़ गई. सामने टिफ़िन दिखाई दिया तो पूछ बैठी,“बारह बजे तुम्हारे लिए जो खाना भिजवाया था, खाया या हमेशा की तरह टिफ़िन में ही पड़ा है?”
“कैसी बात करे है छोटी? कित्ते दिनों बाद तो आज ऐसी गहरी नींद आई है इन्हें…पैर दबाना छोड़ दूंगी तो जाग नहीं जाएंगे…और जो जाग गए तो तू तो जाने है इनका ग़ुस्सा. देखा नहीं, कैसे लातें फटकारने लगे हैं ये! सो, दबाने दे मुझे तो तू. खाने का क्या है, पेट में पड़ा रहे या टिफ़िन में, एक ही बात है.”
कैसा तो डर बैठ गया है अम्मा के मन में बाबू के ग़ुस्से का, कि उन्हें सोता जानकर भी वे पैर दबाना नहीं छोड़ रहीं. पिछले कई महीनों से यही तो स्थिति हो गई है उनकी कि खाना टिफ़िन में पड़ा रहे या पेट में, उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता और इस सबके लिए उन्होंने न कभी कोई किसी से शिकायत की न ग़ुस्सा. ग़ुस्सा करें भी तो किस पर? ग़ुस्सा करना नहीं, बस, जैसे ग़ुस्सा झेलना ही नियति बन गई थी उनकी. आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हो रहा था कि इतनी अनुभवी अम्मा को क्या ये बिल्कुल पता नहीं चल रहा था कि बाबू गहरी नींद में नहीं बल्कि बेहोशी की हालत में पड़े हुए हैं. क्या आठ महीने की लम्बी बीमारी ने भूख-नींद के साथ-साथ उनकी सारी इन्द्रियों को भी सुन्न कर दिया है? एक तरफ़ तो कुछ घंटों के बाद बाबू के साथ जो होने जा रहा है, उसकी तकलीफ़, अम्मा पर होने वाली उसकी प्रतिक्रिया की कल्पना और दूसरी तरफ़ सहज बने रहने का नाटक…अजीब स्थिति से गुज़र रही थी मैं.
सवेरे ठीक पांच बजे बाबू ने आख़िरी सांस ली. आने के कुछ देर बाद ही नर्स ने मुझे बुलाकर कहा था कि वे यदि बार-बार अन्दर आएंगी तो अम्मा को शक होगा और वे अभी से रोना-धोना शुरू कर देंगी, इसलिए मैं ही थोड़ी-थोड़ी देर बाद बाबू की सांस का अंदाज़ा लेती रहूं और मैं बाबू के सिर पर हाथ फेरने के बहाने यह काम करती रही थी. कोई पांच-सात मिनट पहले ही उनकी उखड़ी-उखड़ी सांस को देखकर मैं ही नर्स को बुला लाई. नर्स थोड़ी देर तक पल्स पर हाथ रखे खड़ी रही. फिर उसने धीरे-से बाबू के पैरों से अम्मा के हाथ हटाए. सब कुछ समझकर बाबू के पैरों से लिपटकर ही अम्मा छाती फाड़कर जो रोईं तो उन्हें संभालना मुश्क़िल हो गया. परिवार के कुछ लोग शायद काफ़ी देर पहले से ही नीचे आकर खड़े हो गए थे. नर्स की सूचना पर बड़े चाचा, चाची और रवि ऊपर आ गए. ये सब लोग तो रात से ही इस घटना के लिए मानसिक रूप से तैयार थे, नहीं थीं तो केवल अम्मा. सो, उन्हें संभालना मुश्क़िल हो रहा था. चाची ने अंसुवाई आंखों से अम्मा की पीठ सहलाते हुए कहा-धीरज रखो भाभी…धीरज रखो. पर अम्मा ऐसी ही रहीं और रोते-रोते फिर जो चुप हुईं तो ऐसी चुप मानो अब उनमें रोने की ताक़त भी न बची हो. हथेलियों में चेहरा ढांपे वे बाबू के पैताने जस की तस बैठी रहीं. थोड़ी देर बाद नर्स के इशारे पर चाची, रवि और मैंने उन्हें उठाया तो उठना तो दूर, उनसे हिला तक नहीं गया. मैं हैरान! अभी कुछ देर पहले ही जो अम्मा पूरे दम-ख़म के साथ बाबू के पैर दबा रही थीं, उनसे अब हिला तक नहीं जा रहा था. गए तो बाबू थे, पर लगा जैसे जान अम्मा की निकल गई हो.
घर लाकर उन्हें बाबू के कमरे में ही बिठा दिया. वे ज़मीन पर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर बैठ गईं…बिल्कुल बेजान सी. बाक़ी सब लोग बाहर चले गए. बस, मैं उनके साथ बैठी रही, यह तय करके कि अब मैं यहां से हिलूंगी तक नहीं. बाहर इस अवसर पर होनेवाली गतिविधियां अपने ढंग से चलती रहीं. बड़े भय्या दस बजे की फ्लाइट से आए और एयरपोर्ट से ही सीधे नर्सिंग-होम चले गए. दोनों चाचियां घर की व्यवस्था करने में लगी रहीं. साढ़े ग्यारह बजे के करीब दोनों चाचा, भय्या और रवि, बाबू के शव के साथ घर आए जहां परिवार के लोग पहले से ही इकट्ठा हो गए थे. शव देखकर एक बार ज़रूर सब फूट पड़े. फिर शुरू हुए यहां होने वाले रस्म-रिवाज. पण्डित जी जाने कौन-कौन से श्लोक बोलते-पढ़ते रहे और साथ ही साथ कुछ करते भी रहे. फिर बाबू के पैर छूने का सिलसिला शुरू हुआ तो सबसे पहले अम्मा…दोनों चाची और मैं किसी तरह पकड़कर अम्मा को बाहर लाए. हाथ जोड़कर अम्मा ने बाबू के पैरों में जो सिर टिकाया तो फिर उनसे उठा ही न गया. हमीं लोगों ने किसी तरह उन्हें उठाकर वापस कमरे में ला बिठाया और मैं पैर छूने की रस्म के लिए बाहर निकल गई. लौटी तो देखा, अम्मा उसी तरह दीवार में पीठ टिकाए बैठी हैं और उनकी आंखों से आंसू टपक रहे हैं. अम्मा की बगल में बैठकर उनकी पीठ सहलाते हुए मैं सोचने लगी, कैसी विडम्बना है? आज अम्मा जिन बाबू के लिए रो रही हैं, कैसी ज़िंदगी जी है अम्मा ने उनके साथ? बाबू की हर ज़रूरत…उनकी छोटी से छोटी इच्छा को भी पूरा करने के लिए सदैव तत्पर…ज़रा सी चूक होने पर उनके क्रोध के भय से थरथर कांपती अम्मा के जाने कितने दृश्य मेरी आंखों के आगे से गुज़र गए और मैं रो पड़ी. पर इस समय यह रोना बाबू के लिए नहीं, अम्मा के लिए था. मेरा मन हो रहा था कि अम्मा किसी तरह थोड़ी देर सो लें, पर अम्मा तो लेटने तक को तैयार नहीं थीं.
शाम पांच बजे के क़रीब सब लोग लौटे. नहाना-धोना हुआ और तब बड़े भय्या अम्मा के पास आकर बैठे. सबसे पहले उन्होंने हाथ जोड़कर ऐसी शान्त मृत्यु के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया. फिर अम्मा की पीठ सहलाते हुए आश्वासन में लिपटे सान्त्वना के कुछ शब्द बिखेरे…फिर हिम्मत और धीरज रखने के आदेश देते रहे…वे और भी जाने क्या कुछ बोलते रहे, पर अम्मा बिल्कुल चुप. उनसे तो जैसे अब न रोया जा रहा है, न कुछ बोला जा रहा है. देर शाम की गाड़ी से दीदी आईं और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए ही अम्मा के कमरे में घुसीं,“हाय अम्मा, मैं तो बाबू के दर्शन भी नहीं कर सकी…अरे मुझे पहले किसी ने ख़बर की होती तो जल्दी आती…अरे बाबू…हाय अम्मा…” मैंने ही उन्हें चुप कराकर जैसे-तैसे कमरे से बाहर भेजा. मैं नहीं चाहती थी कि अब कोई भी अम्मा के पास आए…वे किसी भी तरह थोड़ा सो लें, पर यह सम्भव ही नहीं हो पा रहा था. रात में सारे दिन के भूखे लोगों ने डटकर खिचड़ी खाई. मैं जल्दी से अम्मा की प्लेट लगाकर लाई और बराबर मनुहार करती रही कि अम्मा, कुछ तो खा लो…कल सारे दिन भी तुमने कुछ नहीं खाया था पर अम्मा न कुछ बोलीं, न खाया. मेरे बराबर आग्रह करने पर उन्होंने बस, किसी तरह हिम्मत करके मेरे आगे हाथ जोड़ दिए. उनके इस नकार के आगे तो फिर मुझसे न कुछ कहते बना, न खाते. दूसरे दिन सवेरे दस बजे के करीब मातमपुर्सी का सिलसिला शुरू हुआ. पुरुष लोग बाहर बैठ रहे थे तो स्त्रियां भीतर के कमरे में. सारी औरतें एक तरफ़, और दूसरी ओर घूंघट काढ़े, घुटनों में सिर टिकाए अकेली अम्मा. औरतों में शुरू में थोड़ा रोना-गाना चलता और फिर इधर-उधर की बातें. कोई बाबू की लम्बी बीमारी की बात करता तो कोई उनकी हिम्मत की, तो कोई उनके धीरज की. नौकर के इशारे पर मैं आनेवालों के लिए पानी की व्यवस्था करने रसोई में चली गई. पानी की ट्रे लेकर बाहर गई तो हर आनेवाला परिवार वालों को सान्त्वना देते हुए जैसे यही कहता,‘अरे भाई, यह उनकी मृत्यु नहीं, समझो उनकी मुक्ति हुई. बड़े भागवान थे जो ऐसी जानलेवा बीमारी के बाद भी ऐसी शान्ति से चले गए.’
‘यह तो उनके पुण्य का प्रताप ही था कि ऐसे शुभ मुहूर्त में प्राण त्यागे. कितनों को मिलती है ऐसी मौत?’
‘तुम्हें सन्तोष करना चाहिए कि न कोई तक़लीफ़ पाई, न दर्द झेला. बस, इस जी के जंजाल से मुक्त हो गए. हे परमात्मा, उनकी आत्मा को शान्ति देना.’
ख़ाली ग्लासों की ट्रे लेकर मैं फिर रसोई में आई तो बाहर से हड़बड़ाती हुई-सी दीदी आईं,“छोटी, अम्मा क्या वहां बैठी-बैठी सो रही हैं? ये तो ग़नीमत थी, कि मैं उनके थोड़ा पास ही बैठी थी सो मैंने उनके हल्के-हल्के खर्राटों की आवाज़ सुन ली. पता नहीं किसी और ने भी सुना होगा तो क्या सोचा होगा? उस समय तो मैंने ज़रा पास सरककर उन्हें जगा दिया, पर उनसे तो जैसे नींद के मारे बैठा भी नहीं जा रहा है. तू चलकर बैठ उनके पास और संभाल, वरना फिर कहीं…”
“अम्मा सो रही हैं?” मैंने तुरन्त ट्रे रखी और कमरे में आई. वहीं बैठी छोटी भाभी को इशारे से बुलाया और उनकी मदद से पास वाले कमरे में लाकर उन्हें पलंग पर सुला दिया और धीरे-धीरे उनका सिर थपकने लगी. देखते ही देखते वे सचमुच ही सो गईं…शायद एक गहरी नींद में. थोड़ी ही देर में फिर दीदी आईं और यह दृश्य देखकर हैरान. भन्ना कर बोलीं,‘‘ये क्या? तूने तो इन्हें यहां लाकर सुला दिया और ये सो भी गईं. हद्द है भाई, बाहर तो औरतें इनके मातम में शिरकत करने आई हैं और ये यहां मज़े से सो रही हैं. कल बाबू गुज़रे और आज ये ऐसी…”
“दीदी!” मैंने उन्हें वाक्य भी पूरा नहीं करने दिया,“आप नहीं जानतीं पर मैं जानती हूं…देखा है मैंने कि इन आठ महीनों में कितने बिन खाए दिन और अनसोई रातें गुज़ारी हैं अम्मा ने. आप तो ख़ैर लखनऊ में बैठी थीं, पर जो यहां रहते थे, जिन्होंने देखा है यह सब, उन्होंने भी कभी ध्यान दिया अम्मा पर? और तो और, रात-दिन जिन बाबू की सेवा में लगी रहती थीं, उन्होंने भी कभी सोचा कि वे आख़िर कभी थकती भी होंगी…नहीं, बस ज़रा-सी चूक होने पर कितना ग़ुस्साते थे अम्मा पर कि वे थरथरा जाती थीं! दीदी, समझ लीजिए आप कि इन आठ महीनों में पूरी तरह निचुड़ गई हैं अम्मा! आज न उनमें बैठने की हिम्मत है, न रोने की. परिवार की सारी औरतें तो बैठी ही हैं बाहर…आप भी जाकर वहीं बैठिए. कह दीजिए उनसे कि अम्मा की तबियत ख़राब हो गई है, वे बैठने की हालत में नहीं हैं.”
मेरी बात…मेरे तेवर देखने के बाद दीदी से फिर कुछ कहते तो नहीं बना; बस, इतना ही कहा,“हम तो बैठ ही जाएंगे पर…” और वे निकल गईं. मैंने उठकर दरवाज़ा बन्द कर दिया और दूसरी ओर की खिड़की खोल दी जो बाहर की ओर खुलती थी. खिड़की खोलते ही बाहर से आवाज़ आई
“यह दुख की नहीं, तसल्ली की बात है बेटा…याद नहीं, डॉक्टर साहब ने क्या कहा था? भगवान ने आख़िर इन्हें समय से मुक्त कर ही दिया…” मैंने घूमकर अम्मा की ओर देखा कि इन आवाज़ों से कहीं वे जग न जाएं…पर नहीं, वे उतनी ही गहरी नींद में सो रही थीं…एकदम निश्चिन्त!
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