हम भयंकर अंतरविरोध वाले समाज में रहते हैं, बता रही है हरिशंकर परसाई की कहानी ‘प्रेम-पत्र और हेडमास्टर’.
गुरु लोगों से मैं अभी भी बहुत डरता हूं. उनके मामलों में दखल नहीं देता. पर मेरे सामने पड़ी अख़बार की यह ख़बर मुझे भड़का रही है. ख़बर है-एक लड़का रोज़ एक प्रेम-पत्र लिखता था. वे हेडमास्टर के हाथ पड़ गए. उन्होंने उसे स्कूल से निकाल दिया. संवाददाता ने लिखा है-हेडमास्टर साहब के इस नैतिक कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है.
होती होगी. संवाददाता अक्सर स्थानीय स्कूल में पढ़े होते हैं और वे पोस्टमास्टर और हेडमास्टर के बड़े भक्त होते हैं. मैं तो ये कल्पना कर रहा हूं की लड़के को निकाल देने के बाद हेडमास्टर ने क्या किया होगा? वे तुष्ट भाव से अपने कमरे में बैठे होंगे. अपने प्रिय चमचे से कहा होगा-मस्साब, मुझे अनैतिकता बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है. इस मामले में मैं बहुत सख़्त हूं. चमचे ने कहा होगा-मस्साब, आपने बहुत अच्छा किया जो उसे निकाल दिया. ये आजकल के लड़के बहुत प्रेम करने लगे हैं. हमारी इतनी उम्र हो गयी, बाल-बच्चे हो गए, पर कोई बता दे कि कभी प्रेम किया हो तो!
ख़ुश होकर हेडमास्टर साहब छिपकर सिगरेट पीने पखाने मे चले गए होंगे.
और वे अध्यापक राधाकृष्ण के प्रेम के पद पढ़ाने कक्षा में चले गए होंगे,‘पूछत कान्हा कौन तुम गौरी?’ अर्थात कृष्ण भगवान राधा से पूछते हैं…
सोचता हूं, गुरु का क्या यही फ़र्ज़ है की प्रेम-पत्र देखा और सज़ा दे दी? पर वे जिन मानवीय आचरण सूत्र से बंधे हैं, उनके हिसाब से कुछ और कर भी नहीं सकते. वे लड़के से ये तो कहते नहीं की बेटा, तू हम सबसे श्रेष्ठ है. तू रोज़ एक प्रेम-पत्र लिखता है. तुझे धन्य है! पर प्रेम-पत्र बहुत पवित्र चीज़ है. वह हेडमास्टरों के स्पर्श से दूषित हो जाता है. प्रेम और हेडमास्टर की दुश्मनी होती है. भूल से तेरे प्रेम-पत्र हमारे हाथ पड़ गए थे. आगे सावधानी बरतना, जैसे हम पाखाने में सिगरेट पीते हैं. भले और बुरे में सिर्फ़ ढके और खुले का फ़र्क़ होता है.
कोई अध्यापक ऐसा नहीं कहेगा. वह रसखान का पद अलबत्ता रस से पढ़ा देगा,‘तुम कौन-सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं.’ उस ज़माने के ये स्कूल हमारे ‘पब्लिक स्कूल’ जैसे होंगे, जिनमें कृष्ण जैसे उच्चवर्गीय पढ़ते होंगे. उच्चवर्गीय की ‘पाटी’ अलग होती है.
यों स्कूल में कुच्छ भी सीखा जा सकता है. मैंने बेईमानी और मिलावट स्कूल में गणित के ज़रिए सीख ली थी. वह सवाल ऐसा होता था-एक ग्वाला 40 पैसे सेर के हिसाब से 15 सेर दूध ख़रीदता है. वह उसमे 10 सेर पानी मिलाकर 30 पैसे सेर के भाव से बेच देता है. बताओ उसे कितना लाभ हुआ? वैसे तो यह सवाल गणित है पर बेईमानी का लाभ भी बताता है. अभी भी लड़के ऐसे सवाल सीखते हैं और बेईमानों की पीढ़ियां पैदा होती जाती हैं.
बेईमानी चाहे सीख लो, प्रेम-पत्र मत लिखो. घृणा-पत्र चाहे जीतने लिखो. अध्यापकीय दृष्टि में अक्सर सुखदायी चीज़ें अनैतिक होती हैं. खेल तक बुरा माना जाता है. मैं जब पढ़ता था, तब ऐसे पाठ होते थे-राम अच्छा लड़का है. वह खेलता नहीं है. अध्यापकीय दृष्टि में ज़िंदगी व्याकरण की पुस्तक हो जाती है.
अध्यापक की पत्नी मायके से भीगा-सा पत्र लिखती है. छोटे भाई से डाक के डब्बे में डलवाती है. कह देती है-हाथ डाल कर देख लेना कहीं अटका ना रह जाए. जवाब का इंतज़ार करती है. जवाब आता है-तुम्हारी बहुत याद आती है. हां, दो पृष्ठों की चिट्ठी में तुमने व्याकरण की भूलें की हैं. तुम्हारा व्याकरण बहुत कमज़ोर है. वहां बहुत समय मिलता होगा. भाइयों से पुस्तकें लेकर अपना व्याकरण ठीक कर लेना.
अध्यापिका को अपने प्रेमी का पत्र भी मिलता होगा, तो पहली बात उसके मन में यही उठती होगी की ‘बड़ी बहन जी’ को बताकर लिखनेवाले को डांट पड़वा दूं. एक सीनियर प्रोफ़ेसर साहब ने उस दिन बताया-कॉलेज में ताज़ा एमए अध्यापक मेरे विभाग में आया. ख़ूब प्रतिभावान है और सुंदर. एक दिन उसने मुझसे रिपोर्ट की कि दो-तीन दिनों से कोई मेरी साइकल की हवा निकाल देता है. मैंने पता लगाया तो एक लड़की निकली. यों वह बड़ी अच्छी लड़की थी. मगर यह क्या हरक़त? मैने बुलाकर डांटा. वह रोने लगी. उस दिन से साइकल की हवा नहीं निकली.
मगर उस बेवकूफ़ नए लेक्चरर की तो ज़िंदगी की हवा निकल गई. सीनियर प्रोफेसर को कोई कैसे समझा सकता है कि सर, यह अनुशासन का मामला नहीं है. आप समझेंगे नहीं, क्योंकि आपकी साइकल की हवा कभी नहीं निकली. आपने उस लड़की को मार डाला.
फिर सोचता हूं, माना यह बड़ी क्रूरता है, पर वे और क्या करते? क्या यह कहते की हवा बहुत निकल चुकी अब चिट्ठी लिखने की स्टेज आ गई. अध्यापक को ज़रा ज़्यादा खींच दिया. मुझे डर लगने लगा. क़ैफियत देता हूं. अध्यापक बुरा ना मानें. वे ज़िम्मेदार नहीं हैं. वे तो एक फ़ॉर्मूला लागू करने वाले हैं. बनानेवाले दूसरे हैं, जो सदियों से बनाते रहे हैं. नैतिकता के ये फ़ॉर्मूले बड़े दिलचस्प हैं. जैसे यही की पांव छूने से भावनाएं बदल जाती हैं.
-क्यों रे तू उस औरत को बुरी नज़र से देखता है. उसे आज से बहन मानना. चल, उसके चरण छू. उसने डरकर पांव छू लिए. नियामक संतुष्ट हो गए की मामला ‘पवित्र’ हो गया. वे भूल गए की पांव शरीर का एक अंग है और उस आदमी की बहुत दिनों की उसे छू लेने की साध पूरी करा दी गई. वह तो रोज़ चरण छू सकता है.
यह जो ‘पवित्र’ संबंध वाला मामला हमारे यहां चलता है, यह ना जाने क्या क्या करवाता है. बड़ी सांसत में डालता है आदमी को. लड़कियों के कॉलेज के फाटक पर छुट्टी के वक़्त बेचारा भला सा लड़का खड़ा है. उससे पूछो-क्यों खड़े हो यहां? वह घबराकर कहता है-सिस्टर को ले जाना है. और मैंने देखा है, कई बेचारों की कलाई से लेकर कंधे तक राखी बंधी होती है. लाचारी है. कोई और सूरत रखी ही नहीं हैं.
मुहल्ले में स्त्री-पुरुष की नज़रों पर डंडा लेकर बैठे रहनेवाले राधा-कृष्ण के प्रेम-विलास के पद आंखें बंद करके गर्दन हिलाते हुए गद्गद भाव से सुनते हैं-हरे नमः. वह भजन है. राधा और कृष्ण का मामला है. पवित्र है. एक जगह भजन हो रहे थे. भजनिक ने सूरदास का पद गाया-आज हरी नयन उनीन्दे आए! आगे इसमें रति-चिह्नों का वर्णन है. भक्त डोलते हुए सुन रहे थे. भगत जी ने पूछा-इस पद में जो है, वह आपको समझ में आता है? वे बोले हां-हां, राधा-कृष्ण का है. हरी, हरी! गर्दन हिलाने लगे. यही अगर संस्कृत में हो तो और पवित्र हो जाता है. जो समझ में ना आए वो पवित्र होता है. कुछ लोग संस्कृत के हर छन्द को प्रभु-प्रार्थना समझते हैं. ‘कूटटनी चरितम’ को भी ऐसे सुनेंगे, जैसे प्रार्थना सुन रहे हैं. ऐसे ही कुछ लोग उर्दू के हर शेर को हास्यरस का समझते हैं. शेर सुना और ही-ही करने लगे. भाव चाहे करुण हो. ‘किस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और’-वाह, वाह, तमन्ना. ही-ही-ही-ही!
इधर का यह आदमी अपने को दुनिया में सबसे पवित्र और नैतिकवादी मानता है. ऊपर सब ठीक किए रहता है, भीतर अंतर्विरोध पालता है. अश्लील से अश्लील पद भक्तिभाव से सुनेगा, मगर साधारण आदमी की भाषा में लिखा प्रेम-पत्र पढ़कर भन्ना उठेगा.
यही आदमी कहता है हम कोई क्रांति नहीं करेंगे, क्योंकि क्रांति में हिंसा होती है. हम अहिंसवादी, दयालु, मानवतावादी लोग हैं. हम बुद्ध, महावीर, गांधी के देश के लोग हैं. मगर इसी आदमी ने अब तक बीस लाख हिंदू-मुसलमान दंगे में मार डाले हैं. इतने में दस क्रांतियां हो जातीं. यह आदमी पश्चिम के लोगों को लोभी, भौतिकवादी वग़ैरह कहता है. मगर यही निर्लोभी आध्यात्मिक आदमी मक्खन में स्याही सोख और बेसन में ‘सोप स्टोन’ मिलकर बेचता है. दवा तक में मिलावट करके वह मौत से अपना मुनाफ़ा बढ़ा लेता है.
मगर यह अंतर्विरोध अध्यापक या सुधारक की परेशानी नहीं है. उनका रास्ता सीधा है. वे उचित ही करते हैं. पर मार्क ट्वेन की एक बात मुझे याद आ रही है. उस सिरफिरे ने कहा है की आदम ने सेब इसलिए खा लिया की उसे खाने की मनाही थी. अगर उसे सांप खाने से मना किया होता, तो वह सांप को खा जाता.
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