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रानी मां का चबूतरा: कहानी दो मांओं की (लेखिका: मन्नू भंडारी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
February 2, 2024
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रानी मां का चबूतरा: कहानी दो मांओं की (लेखिका: मन्नू भंडारी)
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मां बाहर से भले ही सख़्त दिखे, पर उसका दिल अंदर से बेहद मुलायम होता है. रानी मां का चबूतरा में दो मांओं द्वारा अपने बच्चों के लिए किए गए त्याग की कहानी को दुनिया किस नज़र से देखती है उसका बेहद मार्मिक वर्णन किया गया है.

‘खातिर हम क्या करेंगे काका, बच्चों को सुलाते-सुलाते देर हो गई.’ फिर बूढ़ी काकी की ओर घूमकर बोली, ‘काकी, कल धन्नी को भी रानी मां के चबूतरे पर दीया जलाने के लिए ले जाना है.’
‘यह रानी मां का चबूतरा क्या है?’ धन्नी ने कुछ कौतुहल से पूछा.
ख़रबूजे के सूखे बीज छीलते हुए काकी बोली, ‘वाह, कल से तुम यहां आई हो और रामी ने तुम्हें चबूतरे की बात भी नहीं बताई? क्या बताएं बेटी, हम भागवान हैं जो रानी मां के नगर में बसते हैं. बड़ी भागवंती नारी थी. आज भी मुझे वह दिन याद आता है तो आंखों में आंसू आ जाते हैं, और श्रद्धा से गद्गद् हो बूढ़ी काकी ने काम को बीच में छोड़कर स्वर्ग में बसनेवाली रानी मां को प्रणाम किया. बस्तीवालों के लिए यह कथा कोई नई नहीं थी, फिर भी दत्तचित्त होकर उस कथा को ऐसे सुनने लगे जैसे पहली बार ही सुन रहे हों. स्त्रियों का तो ऐसा विश्वास था कि जितनी बार इस कथा को कहेंगी या सुनेंगी, उनका पुण्य बढ़ेगा. हाथों को माथे पर छुआकर फिर अपना छोड़ा हुआ काम संभाला और काकी बोली ‘कोई दस साल पहले की बात होगी, हमारे नगर-सेठ के बेटे पर शीतला माई का कोप हुआ. पानी की तरह पैसा बहाया, बैद-हकीमों का तांता लग गया, पर शीतला माई तो कोई और ही खेल खेलने आई थीं. वे इन दवाइयों से क्यों शांत होती भला? सब हार गए, और शीतला माई बच्चे पर ऐसी जमकर बैठी कि न उसे मरने दें न जीने दें. मां तो सेवा करते-करते सूखकर कांटा हो गईं. न खाने की सुध, न सोने की. भाग से एक साधू द्वार पर आया. रानी मां की सूरत देखकर ही सारी बात समझ गया. वह कोई ऐसा-वैसा साधू भी नहीं, शीतला माई का भेजा हुआ साधू ही था. बोला,‘बेटी, तेरा बच्चा मौत के मुंह में है, पर तेरे प्रताप से ही बचेगा. सात दिन तू अन्न-जल का त्याग कर दे, तेरा बच्चा उठ खड़ा होगा.’ रानी मां के प्राण तो पहले ही आंखों में आए थे, उस पर सात दिन अन्न-जल का त्याग! सबने बहुत समझाया कि साधू की बातों में मत आओ, पर वह नहीं मानीं सो नहीं ही मानी. सात दिन बाद बच्चा तो उठ खड़ा हुआ, पर रानी मां जाती रहीं.’ काकी का गला भर्रा गया, पास बैठी फूलों ने आंचल से आंसू पोंछ डाले. धन्नी, जिसने अभी तक बच्चे की सूरत नहीं देखी थी, उसके मन में जाने कैसा शूल चुभने लगा. काकी ने टूटा सूत्र जोड़ते हुए कहा:
‘सारा गांव इकट्ठा हुआ उस देवी के दर्शन करने को, अरथी ऐसे उठी कि राजा-महाराजाओं की भी क्या उठेगी! नगर-सेठ ने बहू…’
बीच में ही बात काटकर फूलो बोली,‘केसर के छींटे की बात तो कही ही नहीं.’ फिर उसने कुछ इस भाव से धन्नी को देखा मानो कह रही हो, इस घटना की राई-रत्ती बात केवल काकी ही नहीं, वह भी जानती है.
‘हां बेटी, जब उसकी अरथी उठी तो आसमान से केसर की बूंदें बरसी थीं. और तमाशा देखो, इतनी भीड़ में से क्या मजाल जो एक छींटा भी दूसरे पर पड़ जाए, बस खाली अरथी पर ही पड़ रहे थे छींटे.…
‘फिर सेठजी ने अपने बगीचे में रानी मां की याद में एक चबूतरा बनवाया. हर पूरनमासी को नगर की औरतें वहां दीया जलाने जाती हैं, अपने बच्चों के लिए मनौती मानती हैं.’
रामी ने ज़रा काकी की ओर झुककर फुसफुसाते स्वर में कहा,‘धन्नी को भी इसीलिए बुलाया है काकी, कि कल इससे दीया जलवा दूं. ब्याह को चार साल होने आए, अभी तक कोख नहीं फली. एक-दो साल और बीत गया तो वह किसी और को घर में डाल लेगा.’
‘ज़रूर दीया जलवा, भगवान करेगा तो साल बीतते-न-बीतते गोद में बाल-गोपाल खेलने लगेगा. रानी मां का आशीर्वाद कभी अकारथ नहीं जाने का.’
धन्नी लजा गई, साथ उसने यह भी महसूस किया कि यहां आकर उसने अच्छा ही किया.
काकी से ज़रा दूर बैठा गोपाल, जो बस्ती का सबसे मसखरा जवान था, बोल उठा,‘काकी, मैं तो तुम्हारा और तुम्हारी रानी मां का कमाल तब मानूं, जब तुम गुलाबी को रास्ते पर लगा दो.’
‘नाम मत ले उस चुड़ैल का मेरे सामने. वह कोई मां हैं, कसाइन है कसाइन. नहीं तो रानी मां के चबूतरे में तो वह ताक़त है कि पत्थर में भी ममता उपज जाए. पर वह तो हेकड़ीवाली ऐसी कि कभी उधर मुंह भी नहीं करती. भगवान करे उसका सत्यानास हो जाए! सारी बस्ती पर किसी दिन पाप ला देगी.’
काका ने स्वर को ज़रा कोमल बनाकर कहा,‘क्यों कोस रही है जेठा की मां? बेचारी मुसीबत की मारी है.’
‘तुम्हारा तो दूध ही झरता रहता है उसके लिए. बड़ी मुसीबत-मारी है!’ गुलाबी के प्रति काका की इस सहानुभूति से चिढ़कर काकी बोली, ‘मुसीबत की मारी है तो सारी बस्ती मदद करने को तैयार है, पर वह तो हेकड़ीवाली ऐसी कि अपना ठेंगा ऊपर रखेगी. अरे, मैं तो कहूं, जो अपने आदमी को झाडू मारकर निकाल दे, वह किसकी सगी होगी?’
‘अब आदमी तो उसका था ही ऐसा कि मारकर निकाल दिया जाए. वह पसीना बहाकर कमाती और वह घर में बैठा दारू पीता. आखिर उसे दो बच्चे भी तो पालने थे.’ काका ने फिर गुलाबी का पक्ष लिया. काकी तैश में आ गई और बात रानी मां से सरककर गुलाबी पर आ लगी.
‘बड़े बच्चे पाल रही है मुंहझौंसी. सबेरे उस कालकोठरी में बंद करके जाती है तो शाम को आकर खोलती है.’
गुलाबी के बगल की कोठरी में रहनेवाली रामी बोली,‘काकी, धन्नी तो आज ही कह रही थी कि जीजी मुझे दिला दो एक बच्चा, मैं पाल लूंगी.’
‘वह क्यों देने लगी? वह तो उनको कोठरी में बंद करके मारेगी…’ काकी अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि दूर खड़ी एक छायाकृति पास आई और बोली,‘मारूंगी तो अपने बच्चे को मारूंगी. तेरे बच्चे को तो नहीं मारूंगी…तू क्यों मेरे बच्चों की चिंता में सूख रही है? खबरदार जो आगे से नाम लिया मेरे बच्चों का. बड़ी धर्मात्मा बनी बैठी है.’
गुलाबी की उपस्थिति से क्या स्त्रीवर्ग और क्या पुरुषवर्ग, दोनों ही ज़रा चौंक पड़े. काकी ने बात संभालते हुए कहा,‘क्यों बिगड़ रही है गुलाबी? हम तो तेरे भले की ही बात कह रहे हैं. बंद करके जाती है, कभी गरमी में अंदर-के-अंदर ही घुटकर मर गए तो?’
‘मर गए तो पांच पैसे का परसाद चढ़ाऊंगी, पर मरें भी तो. मेरी जान को लगे हुए हैं निगोड़े.’
‘तू तो परसाद चढ़ाएगी, पर सारी बस्ती को तो हत्या लगेगी. हमें क्यों पाप में सान रही है?’
‘आ हाऽऽ! बड़े आए बस्तीवाले! पहले कोठरी खोलकर जाती थी तो मेरा छोरा सरकते-सरकते मोरी में आकर गिर गया. किसी ने उठाया तो नहीं! बड़े अपने बनते हैं. छोरा भी तो जाने किस माटी का बना हुआ है, सारे दिन मोरी के सड़े पानी में सड़ता रहा, पर मरा नहीं; मर जाता तो पाप कटता.’ गुलाबी क्रोध में बड़बड़ाती गली के नल पर चली गई.
‘कहो काकी, कैसी रही?’ गोपाल ने छेड़ते हुए पूछा.
‘कौन मुंह लगे इस चुड़ैल के!’ पर काकी का मन इतना खिन्न हो उठा कि वे अपने बीजों की पोटली उठाकर चल दीं. धीरे-धीरे सभी उठ गए और चबूतरे की सभा विसर्जित हो गई.
सवेरे सात बजे की सीटी बजी तो गुलाबी ने एक झटके के साथ अपनी कोठरी का दरवाज़ा बंद किया. उसे बगल की कोठरी में से रामी-धन्नी की फुसफुसाहट सुनाई दी. बिना पूरी बात सुने ही वह भभक उठी, ‘जितनी बातें बना सको, बना लो चुड़ैलों. मैं तुम्हारी दबैल नहीं जो डर जाऊंगी.’
रामी ने वहीं बैठे-बैठे हांक लगाई,‘अपने रस्ते लग गुलाबी. किसका हिया फूटा है, जो सवेरे-सवेरे तुझ नासपीटी का नाम लेगा!’ गुलाबी कुछ कहती उसके पहले ही उसके दो साल के बच्चे का क्रंदन कोठरी की दीवारों को चीरकर गली के सुनसान वातावरण में फैलने लगा. झल्लाकर उसने कोठरी खोली और अपनी नौ साल की लड़की मेवा की पीठ पर एक लात जमाते हुए बोली,‘नौ बरस की धींग हो गई, एक बच्चा नहीं रखा जाता. चल, उसे गोद में उठाकर रख.’ और उसी झल्लाहट में उसने कोठरी बंद कर दी और दौड़ पड़ी. सात की सीटी बज चुकी थी और वह जानती थी कि अब यदि वह सारा रास्ता दौड़कर ही पार नहीं करेगी तो ठेकेदार वहां बैठी अनेक उम्मीदवारों में से किसी को भी काम दे देगा और वह आज की मजदूरी से जाती रहेगी; फिर वह सत्तू नहीं ला सकेगी, दाल नहीं ला सकेगी…उसने गति और बढ़ा दी, उस समय वह भूल गई कि रामी ने उसे नासपीटी कहा है या कि उसका बच्चा रो रहा है.
शाम को वह लौटी तो क्लांत हाथों से उसने अपनी कोठरी का दरवाजा खोला. देखा, मेवा एक कोने में लुढ़की पड़ी सो रही है और दो साल का वह मांस का लोथड़ा मैले में सना हुआ मिमिया रहा था. रोने की ताक़त तो उसमें शायद रही भी नहीं थी. गुलाबी ने एक पूरे हाथ की धौल कोने में सोती हुई छोरी की पीठ पर जमाई… ‘पड़ी-पड़ी सो रही है चुड़ैल. चल, उठकर चूल्हा जला.’ और वह उस मैल में सने बच्चे को उठाकर गली के नल पर चली. बराबर उसके मुंह से गालियां बरस रही थीं. चबूतरे पर उस समय काका अकेले बैठे थे, गुलाबी को बड़बड़ाती हुई जाते देखा तो टोक दिया,‘किसे कोस रही है गुलाबी, अरे, कभी तो तू भी हंस-बोल लिया कर.’
‘हंस-बोलकर मुझे किसी को रिझाना नहीं है. बड़े आए हैं सीख देने वाले. तुम्हें तो नहीं कोस रही? कोस रही हूं उस दारूखोर को, जो मेरी जान को ये कीड़े-मकोड़े छोड़ गया.’
‘और मैं तो तेरे भले की बात कह रहा हूं. चार जनों के बीच आकर बैठा कर, तो तेरा भी मन बहल जाए, पर तू तो सबको काटने को दौड़ती है.’
‘हां, हां, मैं तो कटखनी हूं, क्यों मेरे मुंह लगते हो? ज़्यादा बकवास की तो दो-चार तुम्हें भी सुना दूंगी. बड़े आए हैं दरद दिखानेवाले.’ और वह भन्नाती हुई नल पर चली गई. छोकरे को धोया, कपड़ा धोया, और बड़बड़ाती अपनी कोठरी की ओर चल पड़ा. काका ने फिर उसे नहीं टोका.
चूल्हे पर दाल चढ़ाकर, बच्चे को गोदी में लेकर वह सुस्ताने लगी. सारे दिन की क़ैद भोगकर मौका पाते ही मेवा कोठरी से बाहर भाग गई. जब दाल-सत्तू तैयार हो गया तो गुलाबी ने मेवा को खाने के लिए आवाज़ दी. मेवा आई तो उसके हाथों में कांच की हरी चूड़ियां चमक रही थीं. गुलाबी की नज़र पड़ते ही उसने पूछा,‘ये चूड़ियां कहां से लाई री?’
मेवा चुप.
‘मैं पूछती हूं ये चूड़ियां कहां से लाई?’
मेवा चुप.
‘सुनाई नहीं देता क्या, बहरी हो गई है?’ और तड़ातड़ चांटे पड़ गए उसके गाल पर. ‘चोरी करके लाई है न? आज सब तो चबूतरे पर दीया जलाने गए हैं, किसी के घर में से चुरा लाई क्यों? चोट्टी, हरामजादी.’ मुंह से गालियां और हाथों से चांटे पड़ने लगे.
मेवा ने चीख-चीखकर सारी गली को सिर पर उठा लिया. तभी दीया जलाकर लौटी हुई रामी-धन्नी आ पहुंची, ‘अरे-अरे, छोरी के प्राण लेगी क्या?’ मेवा को अपनी तरफ़ खींचती हुई रामी बोली.
‘मैं इसकी खाल खींचकर रख दूंगी. तू बीच में मत बोल रामी, नहीं तो सच कहती हूं, दो हाथ तेरे भी पड़ जाएंगे. मेरी छोरी चोरी करे-चोरी करे…?’ और उसका स्वर भिंच गया.
देखते-देखते खासी भीड़ जमा हो गई. ज़रा-सा अवसर मिलते ही गुलाबी फिर एक चांटा जड़ देती. बूढ़े काका मेवा को दूर ले गए, तब गुलाबी चिल्लाई,‘छोड़ दो काका, मेरी छोरी को ले गए तो ठीक नहीं होगा. आज तुम बचाने आए हो, कल तुम लोग ही उसे चोट्टी कहते फिरोगे.’
किसी ने स्थिति को संभालने के लिए कहा,‘चोरी नहीं की है उसने, वह तो रामेसुर ने उसे दी हैं, नाहक मार दिया बच्ची को.’
‘दी हैं तो क्यों दी हैं? हम क्या भिखमंगे हैं, जो किसी का दिया पहनेंगे? आज मेरे घर में कोई मूंछोंवाला नहीं बैठा है सो सब लोग भीख देने चले हैं. थू है उन पर! बड़े आए हैं दया दिखानेवाले.’
मेवा को काका के पास सुरक्षित समझकर सबने सोचा कि अब इस गुलाबी से बहस करना बेकार है, एक की चार सुनने को मिलेंगी, सो सब चुपचाप खिसक गए. धन्नी, जो आज रानी मां के चबूतरे पर दीया जलाकर जाने कैसी-कैसी आशाएं मन में संजोकर आई थी, बोली,‘जब यह किसी की बात सुनती ही नहीं, तो तुम लोग क्यों इसके पचड़ों में पड़ती हो, जीजी?’
‘लड़ाई-झगड़ा तो चलता ही रहता है. सवेरे नल पर देखा है न कैसी गाली-गलौज होती है, सिर फुटौवल की नौबत आ जाती है, पर सांझ को सब जैसे की तैसे. चार जने रहते हैं तो कहना-सुनना तो चलता ही रहता है बहन.’
गुलाबी ने कांच की चूड़ियों के टुकड़े बटोरकर अपने लिए जगह बनाई और बच्चे को लेकर सो गई. उस रात उसके यहां खाना-पीना नहीं हुआ. काका मेवा को लाकर छोड़ गए तब उसे मालूम पड़ गया, पर वह फिर कुछ बोली नहीं. एक बात ही उसके मन में घूम रही थी कि उसकी लड़की ने चोरी की… चोरी की.
पिछले दो दिनों से चबूतरे की बैठक का विषय है, सरकार की ओर से खोला हुआ ‘शिशु-सुरक्षा केंद्र’. काका ने कहा,‘भगवान भला करें इस सरकार का. सरकारी स्कूल खोल दिए, जहां बच्चे मुफ्त में पढ़ लेते हैं. छोटे बच्चों के लिए यह केंद्र खोल दिया. अब औरतें भले ही काम करें. पांच रुपए महीने में दवाई-दारू भी कर देते हैं.’
‘हां, काका, मैं देखकर आई हूं. छोटे-छोटे पालने बने हैं, ढेर सारे खिलौने हैं, दाइयां हैं; बच्चों को शीशी से दूध पिलाया जाता है, पालनों में सुलाया जाता है. बड़े आराम से रखते हैं.’
धन्नी ने सोचा, उसको बच्चा होगा तब वह यहीं आकर रह जाएगी. उसके गांव में तो ऐसा होगा नहीं. अपने बच्चे को पालने में सुलाने और शीशी से दूध पिलाने का सपना उसकी आंखों में साकार होने लगा.
गोपाल बोला,‘गुलाबी से कहो काका कि अपने बच्चे को वहां भरती करवा दे.’
‘तू ही कह न. बड़ा आया है गुलाबी का हितू. याद नहीं है, जब मेवा को स्कूल में डालने को कहा था तो कैसी गुर्राई थी!’
‘तुम लोग तो बावलों-जैसी बातें करती हो. मेवा को वह स्कूल में डाल देती तो उस छोरे को कौन रखता?’
‘तो अच्छी तरह मना करती. वह तो बस काटने को दौड़ती है.’
‘अरे, धीरे बोल काकी, नहीं तो अभी कहीं से निकलकर बम गिराने लगेगी. जब उसकी बात करो तभी टपकी.
पर उस दिन गुलाबी नहीं टपकी.
दूसरे दिन जब चबूतरे पर बैठक लगी, तब भी इसी तरह की चर्चा चल रही थी. गुलाबी अपनी लड़की मेवा को ढूंढ़ती हुई आई तो काका ने बात चलाई,‘अरे गुलाबी, देख, तेरे छोरे के लिए सरकार ने केंद्र खोल दिया है. वहां नाम लिखा दे अपने बच्चे का.’
‘सरकार मेरी खसम है न, जो केंद्र खोल देगी मेरे लिए. ये सब तो पैसेवालों के चोचले हैं. मेरे कौन मरद कमानेवाला बैठा है जो पांच रुपये महीने दे दिया करेगा!’
‘बस्तीवाले चंदा कर देंगे री. तू जाकर नाम लिखा आ.’
‘किसी के दान-पुन पर पलनेवाली नहीं है गुलाबी. थूकती है तुम्हारे चंदे पर.’ और अपनी लड़की को घसीटती हुई गुलाबी वहां से चली गई.
‘लो और खाओ लड्डू,’ काकी ने चिढ़ाते हुए कहा,‘बिना गुलाबी से दो-चार झिड़कियां सुने इन्हें चैन नहीं.’
‘आज रामी नहीं आई’ बात का प्रसंग बदलने के लिए काका ने पूछा,‘धन्नो को विदा करने गई है.’ और इधर-उधर की बातें करके सभा समाप्त हुई.
दूसरे दिन गुलाबी ने उठकर उसकी कोठरी की दीवार पर लगाए हुए सुरक्षा केंद्र के विज्ञापन को फाड़ फेंका. जहां कहीं भी उसे विज्ञापन दिखाई देता, वह उसे फाड़ डालती. लोग देखते तो हंसते.
भरी दुपहरी में गुलाबी रेत की तगारियां उठा-उठाकर पकड़ा रही थी. कुछ औरतें एक देहाती गीत गा रही थीं और छत कूट रही थीं. ठेकेदार रह-रहकर कुछ आदेश देता जा रहा था. गुलाबी का ध्यान अपने काम में था, पर अचानक ठेकेदार का स्वर उसके कान में पड़ा. पूरी बात तो वह नहीं सुन पाई, बस इतना सुना,‘इसी तरह तो ज़रा से आंधी-पानी से घरों की छतें टूट जाती हैं. ज़रा अच्छी तरह…’ उसने आसमान की तरफ़ देखा. कहीं बादल नहीं थे, फिर भी उसका हाथ रुक गया और उसके सामने उसकी कोठरी की टूटी-फूटी छत घूम गई. यदि किसी दिन छत गिर जाए तो…?
‘हाथ चलाए न?’ कड़ककर बगलवाली औरत ने कहा. वह कबसे रेत की तगारी लिए खड़ी थी. एकाएक गुलाबी को होश आया. ‘चला तो रही हूं. कौन तेरे बाप की नौकर हूं, जो हुकुम चला रही है?’
शाम को गुलाबी जब घर लौटी तो ठेकेदार से थोड़ी-सी सीमेंट और चूना मांग लाई. खा-पीकर जब सब सो गए तो गुलाबी के घर से खटर-पटर की आवाज़ शुरू हुई. गली में सोए हुए गोपाल ने पूछा,‘आधी रात को क्या कर रही है गुलाबी?’
‘तेरी कबर खोद रही हूं. जाने कैसे लोग हैं इस बस्ती के कि गुलाबी के काम में टांग अड़ाए बिना इस ससुरों की रोटी हजम नहीं होती.’
‘मर चुड़ैल.’ और गोपाल सो गया. उस दिन सारी रात कोठरी में कुछ-न-कुछ होता ही रहा.
दूसरे दिन रामी ने आकर चबूतरे की बैठक पर सूचना दी कि गुलाबी काम से लौटी, खाया-पिया और फिर बच्चों को बंद करके कहीं चली गई. जब रामी ने पूछा तो गुर्राकर बोली,‘जा रही हूं अपने खसम से याराना करने. तू भी चलेगा क्या?’ साथ ही रामी ने यह भी बताया कि उस बात को घंटा-भर हो गया है, पर अभी तक गुलाबी नहीं लौटी. बच्चे दोनों बंद पड़े हैं. कुछ कौतुहल और कुछ उपेक्षा मिश्रित क्रोध से सारी बैठक गूंजने लगी. ‘क्यों गई, कहां गई, इस तरह तो बच्चे मर जाएंगे, ये कैसी मां है’ आदि अनेक बातें उठीं और खतम हो गईं. जानने की इच्छा सबके मन में थी, पर किसी में साहस नहीं था, जो आने पर उससे पूछ सके.
गुलाबी का यह काम जब दैनिक हो गया, तब तो कौतुहल का निवारण परम आवश्यक हो गया. बिना उस बात को जाने सबका जीना जैसे दूभर हो गया. काका ने अनुमान से कहा,‘कहीं चौका-बरतन का काम करने जाती होगी, और कहां जाएगी बेचारी!’
‘तुम्हारे लिए होगी बेचारी.’ काकी ने गुर्राते हुए कहा,‘हत्यारिन कहीं की. क्यों जाती है चौका-बरतन करने? मजदूरी में क्या गुज़र नहीं होती? मुझे तो इसके लच्छन अच्छे नहीं नजर आते. बच्चों की जान ले-लेकर धन कमाएगी. क्या करना है उसे पैसे का?’ .
‘क्यों परनिंदा करती हो! उसकी वह जाने.’ बाहर से आते हुए गोपाल ने कहा,‘काका चलो, तुम्हें सिनेमा दिखा लाऊं.’ पर काकी को इस समय यह मज़ाक नहीं भाया. वह गुलाबी की ही बात सोच रही थी. उसने धीरे से रामी से कहा,‘तू तो उसके पासवाली कोठरी में रहती है. ज़रा नज़र रखा कर न उधर. दस-बारह दिन हो गए और यह पता नहीं लगा कि आखिर वह चुड़ैल बच्चों को बंद करके जाती कहां है?’
‘कोशिश तो करती हूं काकी, पर पता नहीं लगता. एक दिन तो मन हुआ कि पीछे-पीछे जाऊं, पर उस मुंहौंसी का क्या भरोसा, पलटकर हाथ ही चला दे.’
पंद्रह दिन और बीत गए, पर कोई नहीं जान सका कि गुलाबी कहां जाती है. कुछ तो रहस्य का उद्घाटन न होने के कारण, और कुछ बच्चों की यातना देखकर सबका आक्रोश बढ़ता जा रहा था. पर गुलाबी से पूछने का साहस किसी को नहीं होता. उस दिन भी बैठक में यही बातें हो रही थीं कि रामी ने आते ही खुशख़बरी सुनाई,‘देखा काकी, रानी मां के चबूतरे पर जलाया दीया कभी अकारथ नहीं जा सकता. धन्नी के गांव से चिट्ठी आई है, उसका बांझपन आखिर दूर हुआ.’
काकी ने श्रद्धावश रानी मां के आगे हाथ जोड़ दिए. गोपाल जब भी काकी को इस मुद्रा में देखता है, मज़ाक करने के लिए उसका मन मचलने लगता है. बोला,‘काकी, सारी बस्ती पर तेरा इतना रौब है, तू गुलाबी से दीया नहीं जलवा सकती है? कल पूनो है, दीया जलवा दे तो तेरा रौब मानूं.’
‘वह जाए ही नहीं तो मैं क्या करूं?’ झल्लाकर काकी ने कहा.
‘तू कहे तो मैं कंधे पर उठाकर ले जाऊं.’ हंसते हुए गोपाल ने कहा.
जाने कबसे गुलाबो वहां खड़ी थी. यह बात सुनी तो आग बरसाने लगी,‘आया है बड़ा गुलाबो को ले जानेवाला. हाथ तो लगाकर देख. असल मरद का बच्चा हो तो आ जाना कल.’ फिर औरतों को लक्ष्य करके बोली,‘तुम्हीं मां बन-बनकर लाड़ लड़ाओ अपने बच्चों के और दीया जलाओ चबूतरे पर. मैं तो कसाइन हूं, हत्यारिन हूं. जब ये नास-पीटे मर जाएंगे तो उस दिन इकट्ठा ही दीया जलाऊंगी. बड़ी सब गुलाबी की चिंता कर-करके मरी जा रही हैं चुड़ैल!’ और वह अंधेरे में ही ग़ायब हो गई.
दूसरे दिन जब सब घरों में चबूतरे पर जाने की तैयारियां हो रही थीं, गुलाबी अपनी कोठरी में बैठकर बच्चों के लिए सत्तू घोल रही थी. सत्तू घोलकर उसने मेवा के सामने सरका दिया. मेवा ने पूछा,‘तू क्या खाएगी?’
‘मुझे भूख नहीं है, चुपचाप खा ले.’
‘कल भी तो तूने कुछ नहीं खाया था मां?’
‘कह रही हूं, खा ले चुपचाप, सो नहीं होता. जीभ लड़ाए जा रही है बैठी-बैठी.’
‘तू जो आजकल ज़रा-सा ही सत्तू लाती है मां. अपने लिए नहीं लाती?’
गुलाबी ने तड़ाक्-से एक चांटा जड़ दिया. ‘सत्तू खाती है कि मार खिलाऊं?’
दोनों बच्चे जब खाना-पीना समाप्त कर चुके तो गुलाबी ने हंडिया से पैसे निकाले. बड़ी सावधानी से उन्हें आंचल में बांधा, और जैसे ही मुड़ी तो देखा, रामी दरवाजे पर खड़ी उधर ही देख रही है. बिना एक शब्द बोले उसने दरवाजा बंद किया और वह चली गई.
जब सब औरतें वहां इकट्ठी हो गईं तो रामी बोली,‘दैया रे, आज गुलाबी ढेर सारे पैसे आंचल में बांधकर गई है. वापस लौट आए तो समझना.’
‘पैसे बांधकर?’
‘हां, हां, मैंने अपनी आंखों से देखा है. मुझे तो लगता है चौका-बरतन की आड़ में कोई और ही लीला चल रही है.’
‘कौन उस पर नीयत बिगाड़ेगा, सूखा छुहारा तो है.’
‘मरदों का कोई भरोसा नहीं, जो न कर गुजरें सो थोड़ा.’ रामी मुस्कराई.
जब दीया जलाकर औरतें लौटीं तो देखा कि गुलाबी की कोठरी वैसे ही बंद थी. जल्दी-जल्दी कपड़े उतारकर चबूतरे पर बैठक हुई. सारी बातें बढ़ा-चढ़ाकर बताई गईं. ‘रोज़ कब तक लौट आती थी?’ काका ने पूछा. ‘इस समय तक तो लौट आती थी.’ रामी ने कहा.
‘आज तो वह नहीं लौटने की, सारी बस्ती का मुंह काला कर गई चुड़ैल.’
‘उसके बच्चों को कौन पालेगा अब?’
‘चूल्हे में जाएं उसके बच्चे. मां होकर जब उसे ही दरद नहीं आया तो हमें ही क्या पड़ी है?’
गोपाल ने कहा,‘चाहे कुछ भी खरच हो जाय, कल ही जाकर रानी मां के चबूतरे के पास ही एक गुलाबी का चबूतरा बनवाऊंगा. जब वहां दीया जलाने जाओ, तो लगे हाथ ही गिन-गिनकर दस जूते इसके चबूतरे पर भी मार आया करना.’
तभी काका ने सबका ध्यान गली के मोड़ की ओर आकृष्ट किया. चांदनी के प्रकाश में सबने देखा कि गली के ही दो आदमी गुलाबी के अचेत शरीर को उठाकर ला रहे हैं. चबूतरे की सारी भीड़ उस ओर दौड़ पड़ी.
‘क्या हुआ’, ‘कहां थी’, ‘बेहोश कैसे हो गई? प्रश्नों की झड़ी-सी लग गई. सबको वहीं छोड़कर काकी और रामी ने उसके अचेत शरीर को संभाला और रामी की कोठरी में लिटा दिया. काका अंदर आ गए, बाकी भीड़ को बाहर ही रखा.
‘पानी के छींटे डालो और हवा करो.’ ‘काका ने कहा. रामी उठकर पानी लाई और काकी हवा करने लगी, उसका आंचल हटाया तो बोली, ‘हाय राम, इसका पेट तो पीठ से चिपक रहा है, लगता है मानो दो-तीन दिन से कुछ खाया ही नहीं है. रामी, थोड़ा सत्तू हो तो घोलकर ला.’
देख रही हो,’ काका ने अपनी नजर गुलाबी के सूखे-मुर्झाये चेहरे पर टिकाये हुए कहा,‘एक महीने में क्या से क्या हो गई! जैसे बुढ़ापा आ गया हो. एक महीने से मैंने इसे पास से ही नहीं देखा था. और देखो, इसके कपड़े ढीले कर दो, उमस भी तो कितनी है.’
काकी ने अंगिया के बंद ढीले कर दिये तो अंगिया में से कागज़ की एक पुड़िया सरककर, जमीन पर गई. काका ने कहा-
‘देखें, क्या है?’
काकी ने पुड़िया पकड़ा दी. काका ने दीये के धीमे प्रकाश में पुड़िया को खोला तो देखा, कांच की दो छोटी-छोटी हरी चूड़ियां और शिशु-सुरक्षा केंद्र की पांच रुपए की रसीद थी.
Illustration: Pinterest

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