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सोने की अंगूठी: पति-पत्नी की खट्टी-मीठी नोक-झोंक की कहानी (लेखक: मंटो)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 19, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Manto_ki_Kahani
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बाल कटाने को लेकर शुरू हुई एक पति-पत्नी की नोकझोंक बढ़ते-बढ़ते कहां पहुंच जाती है, जानने के लिए पढ़ें मंटो की यह दिलचस्प कहानी.

“छत्ते का छत्ता हो गया आपके सर पर मेरी समझ में नहीं आता कि बाल न कटवाना कहां का फ़ैशन है?”
“फ़ैशन वैशन कुछ नहीं तुम्हें अगर बाल कटवाने पड़ें तो क़दर-ए-आफ़ियत मालूम हो जाए.”
“मैं क्यों बाल कटवाऊं?”
“क्या औरतें कटवाती नहीं? हज़ारों बल्कि लाखों ऐसी मौजूद हैं जो अपने बाल कटवाती हैं बल्कि अब तो ये फ़ैशन भी चल निकला है कि औरतें मर्दों की तरह छोटे-छोटे बाल रखती हैं. ”
“लानत है उन पर.”
“किस की?”
“ख़ुदा की और किस की बाल तो औरत की ज़ीनत हैं समझ में नहीं आता कि ये औरतें क्यों अपने बाल मर्दों की मानिंद बनवा लेती हैं, फिर पतलूनें पहनती हैं न रहे इन का वजूद दुनिया के तख़्ते पर.”
“वजूद तो ख़ैर आप की इस बद-दुआ से उन नेक-बख़्त औरतों का दुनिया के इस तख़्ते से किसी हालत में भी ग़ायब नहीं होगा. वैसे एक चीज़ से मुझे तुम से कुल्ली इत्तिफ़ाक़ है कि औरत को पतलून जिसे सलेकस कहते हैं नहीं पहननी चाहिए और सिगरेट भी न पीने चाहिए.”
“और आप हैं कि दिन में पूरा एक डिब्बा फूंक डालते हैं.”
“इसलिए कि मैं मर्द हूं मुझे इस की इजाज़त है.”
“किस ने दी थी ये इजाज़त आप को मैं अब आइन्दा से हर रोज़ सिर्फ़ एक डिबिया मंगा कर दिया करूंगी.”
“और वो जो तुम्हारी सहेलियां आती हैं उन को सिगरेट कहां से मिलेंगे?”
“वो कब पीती हैं?”
“इतना सफ़ेद झूट न बोला करो. उनमें से जब भी कोई आती है तुम मेरा सिगरेट का डिब्बा उठा कर अंदर ले जाती हो साथ ही माचिस भी. आख़िर मुझे आवाज़ देकर तुम्हें बुलाना पड़ता है और मेरा डिब्बा मुझे वापिस मिलता है उस में से पांच छः सिगरेट ग़ायब होते हैं.”
“पांच छः सिगरेट झूट तो आप बोल रहे हैं वो तो बेचारियां मुश्क़िल से एक सिगरेट पीती हैं.”
“एक सिगरेट पीने में उन्हें मुश्क़िल क्या महसूस होती है?”
“मैं आप से बहस करना नहीं चाहती आप को तो और कोई काम ही नहीं, सिवाए बहस करने के.”
“हज़ारों काम हैं तुम कौन से हल चलाती हो सारा दिन पड़ी सोई रहती हो.”
“जी हां आप तो चौबीस घुटने जागते और वज़ीफ़ा करते रहते हैं.”
“वज़ीफ़े की बात ग़लत है अलबत्ता मैं ये कह सकता हूं कि मैं सिर्फ़ रात को छः घंटे सोता हूं.”
“और दिन को.”
“कभी नहीं बस आंखें बंद कर के तीन चार घंटे लेटा रहता हूं कि इस से आदमी को बहुत आराम मिलता है सारी थकन दूर हो जाती है.”
“ये थकन कहां से पैदा होती है आप कौन सी मज़दूरी करते हैं?”
“मज़दूरी ही तो करता हूं सुबह सवेरे उठता हूं अख़बार पढ़ता हूं एक नहीं सुपर फिर नाश्ता करता हूं नहाता हूं और फिर तुम्हारी रोज़मर्रा की चख़ चख़ के लिए तैय्यार हो जाता हूं.”
“ये मज़दूरी हुई और आप ये तो बताइए कि रोज़मर्रा की चख़ चख़ का इल्ज़ाम कहां तक दरुस्त है?”
“जहां तक उसे होना चाहिए शुरू-शुरू में मेरा मतलब शादी के बाद दो बरस तक बड़े सुकून में ज़िंदगी गुज़र रही थी, लेकिन फिर एक दम तुम पर कोई ऐसा दौरा पड़ा कि तुम ने हर रोज़ मुझ से लड़ना झगड़ना अपना मामूल बना लिया. पता नहीं उस की वजह क्या है?”
“वजह ही तो मर्दों की समझ से हमेशा बाला-तर रहती है. आप लोग समझने की कोशिश ही नहीं करते.”
“मगर तुम समझने की मोहलत भी दो. हर रोज़ किसी न किसी बात का शोशा छोड़ देती हो. भला आज क्या बात थी जिस पर तुम ने इतना चीख़ना चलाने शुरू कर दिया.”
“गोया ये कोई बात ही नहीं कि आप ने पिछले छः महीनों से बाल नहीं कटवाए! अपनी उचकनों के कालर देखिए मैले चीकट हो रहे हैं.”
“ड्राई कलीन करा लूं?”
“पहले अपना सर ड्राई कलीन कराए. वहशत होती है अल्लाह क़सम आप के बालों को देख कर जी चाहता है मिट्टी का तेल डाल कर उन को आग लगा दूं.”
“ताकि मेरा ख़ातमा ही हो जाए, लेकिन मुझे तुम्हारी इस ख़्वाहिश पर कोई भी एतराज़ नहीं. लाओ बावर्ची-ख़ाने से मिट्टी के तेल की बोतल आहिस्ता आहिस्ता मेरे सर में डालो और माचिस की तीली जला कर उस को आग दिखा दो ख़स कम जहां पाक.”
“ये काम आप ख़ुद ही कीजिए. मैंने आग लगाई तो आप यक़ीनन कहेंगे कि तुम्हें किसी काम का सलीक़ा नहीं.”
“ये तो हक़ीक़त है कि तुम्हें किसी बात का सलीक़ा नहीं. खाना पकाना नहीं जानती, सीना पिरोना तुम्हें नहीं आता. घर की सफ़ाई भी तुम अच्छी तरह नहीं कर सकतीं, बच्चों की परवरिश है तो उस का तो अल्लाह ही हाफ़िज़ है.”
“जी हां बच्चों की परवरिश तो अब तक माशा अल्लाह, आप ही करते आए हैं, मैं तो बिलकुल ही निकम्मी हूं.”
“मैं इस मुआमले में कुछ और नहीं कहना चाहता. तुम ख़ुदा के लिए इस बहस को बंद करो.”
“मैं बहस कहां कर रही हूं. आप तो मामूली बातों को बहस का नाम दे देते हैं.”
“तुम्हारे नज़दीक ये मामूली बातें होंगी! तुमने मेरा दिमाग़ चाट लिया है. मेरे सर पर हमेशा इतने ही बाल रहे हैं और तुम अच्छी तरह जानती हो कि मुझे इतनी फ़ुर्सत नसीब नहीं होती कि हज्जाम के पास जाऊं.”
“जी हां आप को अपनी अय्याशियों से फ़ुर्सत ही कहां मिलती है.”
“किन अय्याशियों से?”
“आप काम क्या करते हैं कहां मुलाज़िम हैं क्या तनख़्वाह पाते हैं. आप को तो हर वो काम बहुत बड़ी लानत मालूम होता है जिस में आप को मेहनत मशक़्क़त करनी पड़े.”
“मैं क्या मेहनत मशक़्क़त नहीं करता? अभी पिछले दिनों ईंटें स्पलाई करने का मैंने जो ठेका लिया था, जानती हो मैंने दिन रात एक कर दिया था.”
“गधे काम कर रहे थे. आप तो सोते रहे होंगे.”
“गधहों का ज़माना गया लारियां काम कर रही थीं और मुझे उन की निगरानी करना पड़ती थी दस करोड़ ईंटों का ठेका था मुझे सारी रात जागना पड़ता था.”
“मैं मान ही नहीं सकती कि आप एक रात भी जाग सकें.”
“अब इस का क्या ईलाज है कि तुम ने मेरे मुतअल्लिक़ ऐसी ग़लत राय क़ायम कर ली है और मैं जानता हूं कि तुम हज़ार सबूत देने पर भी मुझ पर यक़ीन नहीं करोगी.”
“मेरा यक़ीन आप पर से अर्सा हुआ उठ गया है. आप परलय दर्जे के झूठे हैं.”
“बुहतान तराशी में तुम्हारी हम-पल्ला और कोई औरत नहीं हो सकती. मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला.”
“ठहरिए परसों आपने मुझ से कहा कि आप किसी दोस्त के यहां गए थे, लेकिन जब शाम को आपने थोड़ी सी पी तो चहक चहक कर मुझे बताया कि आप एक एक्ट्रेस से मिल कर आए हैं.”
“वो एक्ट्रेस भी तो अपनी दोस्त है, दुश्मन तो नहीं. मेरा मतलब है अपने एक दोस्त की बीवी है.”
“आप के दोस्तों की बीवियां उमूमन या तो एक्ट्रेस होती हैं, या तवाइफ़ें?”
“इस में मेरा क्या क़ुसूर?”
“क़ुसूर तो मेरा है?”
“वो कैसे?”
“ऐसे कि मैंने आप से शादी कर ली में एक्ट्रेस हूं न तवाइफ़.”
“मुझे एक्ट्रेसों और तवाइफ़ों से सख़्त नफ़रत है. मुझे उन से कोई दिलचस्पी नहीं वो औरतें नहीं सलेटें हैं जिन पर कोई भी चंद हुरूफ़ या लंबी चौड़ी इबारत लिख कर मिटा सकता है ”
“तो उस रोज़ आप क्यों इस एक्ट्रेस के पास गए ”
“मेरे दोस्त ने बुलाया मैं चला गया उस ने एक एक्ट्रेस से जो पहले चार शादियां कर चुकी थी, नया नया ब्याह रचाया था मुझे इस से मुतआरिफ़ कराया गया.”
“चार शादियों के बाद भी वो ख़ासी जवान दिखाई देती थी बल्कि मैं तो ये कहूंगा कि वो आम कुंवारी जवान लड़कियों के मुक़ाबले में हर लिहाज़ से अच्छी थी.”
“वो एक्ट्रेसें किस तरह ख़ुद को चुस्त और जवान रखती हैं.”
“मुझे इस के मुतअल्लिक़ कोई ज़्यादा इल्म नहीं, बस इतना सुना है कि वो अपने जिस्म और जान की हिफ़ाज़त करती हैं.”
“मैंने तो सुना है कि बड़ी बद-किर्दार होती हैं अव्वल दर्जे की फ़ाहिशा.”
“अल्लाह बेहतर जानता है. मुझे इस के बारे में कोई इल्म नहीं.”
“आप ऐसी बातों का जवाब हमेशा गोल कर जाते हैं.”
“जब मुझे किसी ख़ास चीज़ के मुतअल्लिक़ कुछ इलम ही ना हो तो मैं जवाब क्या दूं? मैं तुम्हारे मिज़ाज के मुतअल्लिक़ भी वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता. घड़ी में तौला घड़ी में माशा.”
“देखिए! आप मेरे मुतअल्लिक़ कुछ न कहा कीजिए. आप हमेशा मेरी बे-इज़्ज़ती करते रहते हैं मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकती.”
“मैंने तुम्हारी बे-इज़्ज़ती कब की है?”
“ये बे-इज़्ज़ती नहीं कि पंद्रह बरसों में आप मेरा मिज़ाज नहीं जान सके. इस का मतलब ये हुआ कि में मख़्बत-उल-हवास हूं. नीम पागल हूं, जाहिल हूं उजड्ड हूं.”
“ये तो ख़ैर तुम नहीं लेकिन तुम्हें समझना बहुत मुश्क़िल है. अभी तक मेरी समझ में नहीं आया कि तुम ने मेरे बालों की बात किस ग़र्ज़ से शुरू की इसलिए कि जब भी तुम कोई बात शुरू करती हो उस के पीछे कोई ख़ास बात ज़रूर होती है.”
“ख़ास बात क्या होगी बस आप से सिर्फ़ यही कहना था कि बाल इतने बढ़ गए हैं, कटवा दीजिए हज्जाम की दुकान यहां से कितनी दूर है, ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगी जाईए मैं पानी गर्म करती हूं.”
“जाता हूं ज़रा एक सिगरेट पी लूं.”
“सिगरेट विगरीट आप नहीं पियेंगे लीजिए. अब तक ठहरिए मैं डिब्बा देख लूं. मेरे अल्लाह बीस सिगरेट फूंक चुके हैं आप बीस.”
“ये तो कुछ ज़्यादा न हुए बारह बजने वाले हैं.”
“ज़्यादा बातें मत कीजिए सीधे हज्जाम के पास जाइए. और ये अपने सर का बोझ उतरवाएं.”
“जाता हूं. कोई और काम हो तो बता दो?”
“मेरा कोई काम नहीं. आप इस बहाने से मुझे टालना चाहते हैं?”
“अच्छा तो मैं चला.”
“ठहरिए.”
“ठहर गया फ़रमाइए.”
“आप के बटवे में कितने रुपए होंगे.”
“पांच सौ के क़रीब.”
“तो यूं कीजिए बाल कटवाने से पहले अनार कली से सोने की एक अंगूठी ले आइए. आज मेरी एक सहेली की सालगिरा है. दो ढाई सौ रुपए की हो.”
“मेरी तो वहीं अनार कली ही में हजामत हो जाएगी. मैं जाता हूं.”

Illustration: Pinterest

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