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तीतरी: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
January 4, 2022
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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तीतरी: डॉ संगीता झा की कहानी
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कई बार अंधविश्वास और मान्यताएं हमारे दिमाग़ में इस क़दर घर बना लेते हैं कि उनके चक्कर में हम किसी के साथ ऐसा व्यवहार करने लगते हैं, जो एक सभ्य समाज में किसी भी पढ़े-लिखे और औसत दिमाग़ और सोचवाले वाले को नहीं करना चाहिए. तीतरी बेटी और तीतरे बेटे से जुड़े अंधविश्वास को करारा तमाचा लगाती है डॉ संगीता झा की यह दिल छू लेनेवाली कहानी.

सचमुच ये तीतरी ही है तितली नहीं. बचपन से दिमाग़ में भरी हुई चीज़ें आसानी से दिमाग़ से निकलती नहीं हैं. बचपन में अम्मा कहती थी नए कपड़े सिर्फ़ बुधवार, गुरुवार या शुक्रवार को ही पहनना चाहिए क्योंकि,‘शनि जारे ,रवि फारे ,सोम करे उदास, मंगल जी से मारे.’ इसका मतलब अगर शनिवार को नए कपड़े पहने जाए तो जलने का डर रहता है और रविवार को फटने का. सोमवार उदास कर देता है और मंगलवार मानो मन को ही ख़त्म कर देता है. बचपन से लेकर आज तक भी यही फ़ॉर्मूला अपनाती आ रही हूं. ठीक उसी तरह दादी कहती थी ‘तीतरा बेटा राज कराए, तीतरी बेटी भीख मंगाए.’ जिसका अर्थ था तीन बहनों के बाद होने वाला तीतरा और तीन भाइयों के बाद होने वाली तीतरी बेटी कहलाती है. इस तरह और भी कई चीज़ें बेटों को लेकर जैसे,‘एक आंख आंख नहीं’ या फिर ‘एक बैल बैल नहीं दोनों की जोड़ी ज़रूरी है’. दो बेटों की जोड़ी बनाने के चक्कर में कइयों के चार बेटियां हो जाती थीं.
हमारे घर पर ऐसा नहीं था, क्योंकि एक तो अम्मा पढ़ी लिखीं थीं. दूसरा भैय्या के तुरंत बाद मैं पैदा हो गई. हम दोनों ही ऑपरेशन से पैदा हुए थे, इससे अम्मा ने फ़ैमिली प्लानिंग का ऑपरेशन भी करवा लिया था. बहुत बड़े तक मैं समझती थी कि परियां ही घर पर बच्चे छोड़ जाती हैं. कभी कुछ प्रश्न भी दिमाग़ में आते तो अम्मा फट से अपने पेट में चीरे का निशान दिखा मेरी जन्मस्थली भी मुझे दिखा देती. जो बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम वाले थे उनके अनुसार स्टोर्क या सारस ये काम करते थे. ख़ैर तीतरी की बात करते करते हम कहां आ गए.
हमारे एक पड़ोसी थे खरे अंकल और आंटी. उनकी छोटी बेटी नीता मेरी सहेली थी और बड़ी दीदी मीता हमसे तीन साल बड़ी थी और उनके यहां दादी भी साथ रहती थी इससे बेटे की आस बनी हुई थी. नीता मेरी सहेली ज़रूर थी, पर वो पूरा परिवार बड़ा सीक्रेटिव था. क्या मजाल कि उनके घर की कोई बात भी हमें पता चल जाए. एक दिन मैं और नीता खेल रहे थे तभी अचानक एक बच्चे के रोने की आवाज़ आई. मैंने अपनी जासूस बुद्धि का इस्तेमाल कर ये जानने की कोशिश कि ये आवाज़ कहां से आ रही है. नीता ने धीरे से बताया कि उसकी मम्मी ने तीन महीने पहले एक बच्ची को जन्म दिया है. मैंने पूछा,“हाय राम परियां तुम्हारे घर आई! हम लोग भी ना फूटे नसीब, काश… हमारे यहां भी आती.’’
वो बेचारी चुप रही, क्योंकि उसके यहां तो तीसरी बेटी का मातम पसरा था. उसकी दादी ही बड़ी ख़ुश थी कि बेटी हो गई, इसके बाद जो बेटा आएगा, वो तीतरा बेटा होगा और उन सब लोगों को राज कराएगा.
मैंने छोटी बच्ची से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की. वो चुपके से मुझे अंदर ले गई. घर पर सब उस पर चिल्लाने लगे और बच्ची को छुपा दिया. मेरे पूछने पर उसकी दीदी ने जवाब दिया,“अरे परी वापस ले गई.”
तब मैं और नीता दोनों दस साल के थे. उन दिनो भी अमूमन दस साल के अंतराल के बाद किसी के बच्चे नहीं होते थे. अगर बधाई हो मूवी जैसा कोई वाक़या ना हो. जब मैंने घर आकर परियों के बेबी देने और वापस ले जाने वाली बात बताई तो सब हंसने लगे. मां ने पापा से कहा,“अभी एक महीने ही मिसेस खरे को देख. था कहीं से नहीं लगा कुछ.’’
मैंने बताया परियों ने तीन महीने पहले बेबी रखा था. धीरे-धीरे बात पूरे मोहल्ले में बिजली की तरह फैल गई और बेचारे अंकल आंटी हंसी का पात्र बन गए. लेकिन उस परिवार ख़ासकर दादी को तो एक और बच्चे की आस थी वो भी तीतरा बेटा. तीन साल बाद मोहित का जन्म हुआ. अब हम सब बच्चे परी कथा से बाहर आ गए थे. इससे हमें मालूम चल गया था कि ना तो परियां और ना ही सारस बच्चे लाते हैं बल्कि बच्चे आने का तरीक़ा कुछ अलग ही होता है.
मीता दी तो जैसे छोटे भाई-बहन जिन्हें हम तीतरी तीतरा बुलाते थे की मां बन चुकी थी. घर पर उनका और लाड़ले बेटे तीतरा का ही राज चलता था. मेरी सहेली नीता और रीता यानी तीतरी बेचारे घर के सारे काम करते ख़ास कर तीतरी तो ज़्यादा किसी से मिलती भी नहीं थी. अम्मा बार बार समझाती कि,“वो तीतरी नहीं है, जो तीन बेटों के बाद पैदा होती है, उसे तीतरी कहते है. तुम लोग भी ना बेकार में, हां बेटा ज़रूर तीतरा है. तीन बेटियों के बाद पैदा हुआ है. देखना राज कराएगा अपने मां-बाप को.’’
मैं तब तक तेरह साल की हो गई थी और भैय्या चौदह के यानी थोड़ी समझ आ चुकी थी. हमने भी अम्मा की चुटकी ली,“कहीं आप भी तो राज करने की नहीं सोच रही हो.’’ अम्मा ने हमें डांटा,“थोड़ा पढ़ लिख लिया तो क्या मां-बाप की इज़्ज़त करना भी भूल गए. मां से क्या इस तरह छेड़खानी की जाती है?’’
समय बीतता जा रहा था हम सब अपने भविष्य की प्लानिंग यानी क्या बना जाए में लग गए थे. तीतरी दिमाग़ से पूरी उतर गई थी. वैसे भी बेचारी खरे अंकल की बेटी कम नौकरानी ज़्यादा दिखती थी. अम्मा हॉस्टल से छुट्टियों पर घर आने पर बताती थीं कि मोहित यानी खरे साहेब का बेटा लाड़ प्यार में बहुत बिगड़ गया है और मीता और नीता की शादी में तो जैसे उनका दीवाला ही निकल गया है. खरे आंटी बीमार ही रहती हैं और बाहर और घर का सारा काम रीता ही करती है. इतना काम करने के बाद भी पढ़ाई-लिखाई में काफ़ी अच्छी है. बेचारी तीतरी अपने अन्दर एक तूफ़ान लिए चलती थी. एक बार वो मुझसे कुछ पूछने भी आई थी मैंने उसके सुंदर और मासूम चेहरे से ज़्यादा उसके फटे कुर्ते पर नज़र डाली. उसके बारहवीं में बड़े अच्छे नम्बर आए पर उसने इसी शहर में बीएससी जॉइन कर ली. उसके बाद भी एकाध बार मुझे वो आते जाते दिखी भी पर मैंने उसे घास ही नहीं डाली. मेरी मेडिकल की पढ़ाई चल रही थी और भाई डॉक्टर बन आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया था. एक दिन खरे अंकल अपनी सारी रिपोर्ट ले अपनी छोटी बेटी के साथ घर मुझे दिखाने आए. रिपोर्ट दिखाने के बाद तीतरी यानी रीता का हाथ पकड़ बोले,“याद है तुम्हें, मैं और तुम्हारी आंटी इसके जन्म पर रोए थे और तो और हमने इसके जन्म की सूचना किसी को नहीं दी थी. लेकिन आज ये हमारे बुढ़ापे की लाठी है. मेरी दवाइयां मेरा खाना और अपनी पढ़ाई सब साथ-साथ करती है. घर के ख़र्चे में भी छोटे बच्चों की ट्यूशन लेकर पूरे कर रही है.’’ बोलते-बोलते बेचारे अंकल रोने लगे थे. उस दिन मेरे दिल ने भी मुझे धिक्कारा कि मैंने भी ना…बेचारी के दर्द को बढ़ाया ही था. उसके बाद कभी मुलाक़ात ही नहीं हुई. मेरी शादी में अंकल-आंटी नहीं आ पाए. मैंने भी अपनी मसरूफ़ियत में कभी अपने पड़ोसियों की कैफ़ियत नहीं ली.
आज मेरी बेटियां भी बड़ी हो गई हैं. मैं कभी-कभी अपने बचपन की बातों के साथ तीतरी का ज़िक्र करना नहीं भूलती. वो लोग भी जानना चाहते थे कि तीतरे बेटे ने मां-बाप की ज़िंदगी बदली या नहीं. मैंने उन्हें बताया कि मेरी पढ़ाई के बीच ही अम्मा-पापा ने वो कम्पनी का घर छोड़ दिया. इसलिए मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि उन लोगों के साथ क्या हुआ. कई बार फ़ेसबुक में भी मीता दी और नीता को ढूंढ़ने की कोशिश की, पर निराशा ही हाथ लगी. मैं भी अब शहर की बड़ी डॉक्टर बन चुकी थी. दोनों बेटियां भी डॉक्टरी पढ़ रही थीं. एक बार मज़ाक़ मज़ाक़ में मेरी बड़ी बेटी ने पूछ. भी,“मॉम आपको भी तो कहीं तीतरा बेटा नहीं चाहिए था. राज करतीं आप महारानी.”
एक दिन मुझे सेक्रेटेरिएट से चीफ़ सेक्रेटरी के पीए का फ़ोन आया कि उसके बॉस की वाइफ़ मुझसे कन्सल्ट करना चाहती है, कुछ गाइनैक प्रॉब्लम है. दूसरे दिन लाल बत्ती वाली गाड़ी में एक बड़ी एलीगेंट गोल्डन चश्मा लगाए एक प्यारी सी महिला आईं. उनके साथ दो एस्कॉर्ट भी थे. पूरे शहर में मिसेज़ सिन्हा के एलीगेन्स की चर्चा थी. मैंने तो सिर्फ़ अब तक सुना था पहली बार मिल रही थी. उसके आते साथ ही हवा में एक महीन ख़ुशबू सी आई. हमारी आंखें टकराईं बीते समय की एक पहचान हवा में उभर कर आई. मैं जहां शुक्ला से पांडे हो गई थी, वहीं वो भी खरे से सिन्हा. अतीत हममें कुछ बाक़ी ही नहीं रहा था. जहां मैं चिल्लाई तीतरी, उसने जवाब दिया,“हां दी आपकी तीतरी!” अपनी उस हाई प्रोफ़ाइल एलीगेंट मरीज़ को मैंने जम के गले लगा लिया.
मैंने दोनों बेटियों को बुला लिया और फिर रीता मैम यानी मेरी तीतरी ने हमें पूरी कथा सुनाई. बेटियों ने भी मेरे मुंह से तीतरी नाम सुना था, इसलिए उन्हें भी मेरे बचपन से मिल अच्छा ही लगने वाला था. रीता यानी तीतरी ने बताया कि खरे साहेब के प्यार ने तीतरे को पूरी तरह से नकारा और आवारा बना दिया था. दोनों बड़ी बहनें अपने ससुराल की परेशानियों में उलझ गईं. रीता यानी हमारी तीतरी के ट्युशन और खरे साहेब की पेन्शन की वजह से किसी तरह घर चल रहा था. रीता के विवाह की तो वो सोच भी नहीं सकते थे. रीता अविनाश की छोटी बहन को मैथ्स पढ़ाती थी और उस समय श्रीमान अविनाश सिन्हा जी यूपीएससी की तैय्यारी कर रहे थे और रीता ने साइंस सब्जेक्ट्स पढ़ने में उनकी जी जान से मदद की उसी दौरान दोनों क़रीब आ गए. फिर क्या था आगे की कहानी सामने थी और तो और अंकल-आंटी के दिन भी तीतरी ने ही बदले.
रीता की बात सुन सारा बचपन आंखों के आगे घूम गया. कहां उसे हम तीतरी कह उसकी हंसी उड़ाते थे और उसने तो मानो सबको मात दे दी. जिस बेटे से राज कराने की उम्मीद थी, वो भी तीतरी के ही रहमो करम पर था. काश…उसकी दादी, मेरी दादी आज होतीं, तो शायद समझ पातीं कि उनकी कुछ मान्यताएं ग़लत भी होती हैं. तीतरी के जाने के बाद भी कमरा उसकी भीनी-भीनी ख़ुशबू से महक रहा था और मेरे ज्ञानचक्षु मुझे धिक्कार रहे थे काश…मैंने उसे तीतरी तीतरी बुला नकारा ना होता.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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