यह कहानी एक आज़ाद ख़्याल मां की है. उसने बेटी पर फ़ब्तियां कसने वाले लड़कों से उसकी दोस्ती करा दी है. उन लड़कों का घर आना जाना शुरू हो गया है. उसकी बेटी और एक लड़के शेखर के बीच प्रेम पनप जाता है. इस प्रेम को मां कैसे देखती है? क्या आज़ाद ख़्यालात वाली मां, अब आज़ाद ख़्याल वाली रह पाएगी?
“घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बांधती भी है. स्कूल-कॉलेज जहां व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्त्वि को कुठित भी करते हैं… बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है.”
ये सब मैं किसी किताब के उदाहरण नहीं पेश कर रही. ऐसी भारी-भरकम किताबें पढ़ने का तो मेरा बूता ही नहीं. वे तो उन बातों और बहसों के टुकड़े हैं जो रात-दिन हमारे घर में हुआ करती हैं. हमारा घर, यानी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा. यहां सिगरेट के धूएं और कॉफ़ी के प्यालों के बीच बातों के बड़े-बड़े तुमार बांधे जाते हैं… बड़ी-बड़ी शाब्दिक क्रान्तियां की जाती हैं. इस घर में काम कम और बातें ज़्यादा होती हैं. मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं, पर अपने घर से यह लगता ज़रूर है कि बुद्धिजीवियों के लिए काम करना शायद वर्जित है. मातुश्री अपनी तीन घण्टे की तफ़रीहनुमा नौकरी बजाने के बाद मुक्त. थोड़ा बहुत पढ़ने-लिखने के बाद जो समय बचता है वह या तो बात-बहस में जाता है या फिर लेट लगाने में. उनका ख़्याल है कि शरीर के निष्क्रिय होते ही मन-मस्तिष्क सक्रिय हो उठते हैं और वे दिन के चौबीस घण्टों में से बारह घण्टे अपना मन-मस्तिष्क ही सक्रिय बनाए रखती हैं. पिताश्री और भी दो क़दम आगे. उनका बस चले तो वे नहाएं भी अपनी मेज़ पर ही.
जिस बात की हमारे यहां सबसे अधिक कताई होती है, वह है-आधुनिकता! पर ज़रा ठहरिए, आप आधुनिकता का ग़लत अर्थ मत लगाइए. यह बाल कटाने और छुरी-कांटे से खाने वाली आधुनिकता कतई नहीं है. यह है ठेठ बुद्धिजीवियों की आधुनिकता. यह क्या होती है सो तो ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानती पर हां, इसमें लीक छोड़ने की बात बहुत सुनाई देती है. आप लीक को दुलत्ती झाड़ते आइए, सिर-आंखों पर लीक से चिपककर आइए, दुलत्ती खाइए.
बहसों में यों तो दुनिया-जहान के विषय पीसे जाते हैं पर एक विषय शायद सब लोगों को बहुत प्रिय है और वह है शादी. शादी यानी बर्बादी. हल्के-फुल्के ढंग से शुरू हुई बात एकदम बौद्धिक स्तर पर चली जाती है- विवाह-संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… पति-पत्नी का सम्बन्ध बड़ा नकली और ऊपर से थोपा हुआ है… और फिर धुआंधार ढंग से विवाह की धज्जियां उड़ाई जाती हैं. इस बहस में अक्सर स्त्रियां एक तरफ़ हो जाती और पुरुष एक तरफ़. और बहस का माहौल कुछ ऐसा गरम हो जाया करता कि मुझे पूरा विश्वास हो जाता कि अब ज़रूर एक-दो लोग तलाक़ दे बैठेंगे. पर मैंने देखा कि ऐसा कोई हादसा कभी नहीं हुआ. सारे ही मित्र लोग अपने-अपने ब्याह को ख़ूब अच्छी तरह तह-समेटकर, उस पर जमकर आसन मारे बैठे हैं. हां, बहस की रफ्तार और टोन आज भी वही है.
अब सोचिए, ब्याह को कोसेंगे तो फ्री-लव और फ्री-सेक्स को तो पोसना ही पड़ेगा. इसमें पुरुष लोग उछल-उछलकर आगे रहते-कुछ इस भाव से मानो बात करते ही इसका आधा सुख तो वे ले ही लेंगे. पापा ख़ुद बड़े समर्थक. पर हुआ यों कि घर में हमेशा चुप-चुप रहने वाली दूर-दराज़ की एक दिदिया ने बिना कभी इन बहसों में भाग लिए ही इस पर पूरी तरह अमल कर डाला तो पाया कि सारी आधुनिकता आऽऽऽधम्! वह तो फिर मम्मी ने बड़े सहज ढंग से सारी बात को संभाला और निरर्थक विवाह के बंधन में बांधकर दिदिया का जीवन सार्थक किया हालांकि यह बात बहुत पुरानी है और मैंने तो बड़ी दबी-ढकी जुबान से इसका जिक्र ही सुना है.
वैसे पापा-मम्मी का भी प्रेम विवाह हुआ था. यों यह बात बिल्कुल दूसरी है कि होश संभालने के बाद मैंने उन्हें प्रेम करते नहीं केवल बहस करते ही देखा है. विवाह के पहले अपने इस निर्णय पर मम्मी को नाना से भी बहुत बहस करनी पड़ी थी और बहस का यह दौर बहुत लम्बा भी चला था शायद. इसके बावजूद यह बहस-विवाह नहीं प्रेम-विवाह ही है, जिसका जिक्र मम्मी बड़े गर्व से किया करती है. गर्व विवाह को लेकर नहीं, पर इस बात को लेकर है कि किस प्रकार उन्होंने नाना से मोर्चा लिया. अपने और नाना के बीच हुए संवादों को वे इतनी बार दोहरा चुकी हैं कि मुझे वे कंठस्थ-से हो गए हैं. आज भी जब वे उसकी चर्चा करती हैं तो लीक से हटकर कुछ करने का संतोष उनके चेहरे पर झलक उठता है.
बस, ऐसे ही घर में मैं पल रही हूं-बड़े मुक्त और स्वच्छन्द ढंग से. और पलते-पलते एक दिन अचानक बड़ी हो गई. बड़े होने का यह अहसास मेरे अपने भीतर से इतना नहीं फूटा, जितना बाहर से. इसके साथ भी एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है. हुआ यों कि घर के ठीक सामने एक बरसाती है. एक कमरा और उसके सामने फैली छत. उसमें हर साल दो-तीन विद्यार्थी आकर रहते… छत पर घूम-घूमकर पढ़ते, पर कभी ध्यान ही नहीं गया. शायद ध्यान जाने जैसी मेरी उम्र ही नहीं थी.
इस बार देखा, वहां दो लड़के आए हैं. थे तो वे दो ही, पर शाम तक उनके मित्रों का एक अच्छा-खासा जमघट हो जाता और सारी छत ही नहीं, सारा मोहल्ला तक गुलजार हंसी-मज़ाक, गाना-बजाना और आसपास की जो भी लड़कियां उनकी नज़र के दायरे में आ जाती, उन पर चुटीली फब्तियां. पर उनकी नज़रों का असली केन्द्र हमारा घर, और स्पष्ट कहूं तो मैं ही थी. बरामदे में निकलकर मैं कुछ भी करूं, उधर से एक न एक रिमार्क हवा में उछलता हुआ टपकता और मैं भीतर तक थरथरा उठती. मुझे पहली बार लगा कि मैं हूं और केवल हूं ही नहीं… किसी के आकर्षण का केन्द्र हूं. ईमानदारी से कहूं तो अपने होने का यह पहला अहसास बड़ा रोमांचक लगा और अपनी ही नज़रों में मैं नई हो उठी.. नई और बड़ी.
अजीब सी स्थिति थी. जब वे फब्तियां कसते तो मैं ग़ुस्से से भन्ना जाती–हालांकि उनकी फब्तियों में अशिष्टता कहीं नहीं थी. …थी तो केवल मन को सहलाने वाली एक चुहल. पर जब वे नहीं होते या होकर भी आपस में ही मशगूल रहते तो मैं प्रतीक्षा करती रहती… एक अनाम-सी बेचैनी भीतर ही भीतर कसमसाती रहती. आलम यह है कि हर हालत में ध्यान वहीं अटका रहता और मैं कमरा छोड़कर बरामदे में ही टंगी रहती.
पर इन लड़कों के इस हल्ले-गुल्ले वाले व्यवहार ने मोहल्ले वालों की नींद ज़रूर हराम कर दी. हमारा मोहल्ला यानी हाथरस. खुरजा के लालाओं की बस्ती. जिनके घरों में किशोरी लड़कियां थीं वे बांहें चढ़ा-चढ़ाकर दांत और लात तोड़ने की धमकियां दे रहे थे क्योंकि सबको अपनी लड़कियों का भविष्य खतरे में जो दिखाई दे रहा था. मोहल्ले में इतनी सरगर्मी और मेरे मम्मी-पापा को कुछ पता ही नहीं. बात असल में यह है कि इन लोगों ने अपनी स्थिति एक द्वीप जैसी बना रखी है. सबके बीच रहकर भी सबसे अलग.
एक दिन मैंने मम्मी से कहा,“मम्मी, ये जो सामने लड़के आए हैं, जब देखो मुझ पर रिमार्क पास करते हैं. मैं चुपचाप नहीं सुनुंगी, मैं भी यहां जवाब दूंगी.”
“कौन लड़के?” मम्मी ने आश्चर्य से पूछा.
कमाल है, मम्मी को कुछ पता ही नहीं. मैंने कुछ खीज और कुछ पुलक के मिले-जुले स्वर में सारी बात बतायी. पर मम्मी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया ही नहीं हुई.
“बताना कौन हैं ये लड़के…” बड़े ठण्डे लहजे में उन्होंने कहा और फिर पढ़ने लगीं. अपना छेड़ा जाना मुझे जितना सनसनीखेज़ लग रहा था, उस पर मम्मी की ऐसी उदासीनता मुझे अच्छी नहीं लगी. कोई और मां होती तो फेंटा कसकर निकल जाती और उनकी सात पुश्तों को तार देती. पर मां पर जैसे कोई असर ही नहीं.
दोपहर ढले लड़कों की मजलिस छत पर जमी तो मैंने मम्मी को बताया,“देखो, ये लड़के हैं जो सारे समय इधर देखते रहते हैं और मैं कुछ भी करूं उस पर फब्तियां कसते हैं,’’ पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था कि मम्मी एकटक मेरी ओर देखती रहीं फिर धीरे से मुस्कराईं. थोड़ी देर तक छत वाले लड़कों का मुआयना करने के बाद बोलीं,“कल शाम को इन लोगों को चाय पर बुला लेते हैं और तुमसे दोस्ती करवा देते हैं.”
मैं तो अवाक्!
“तुम इन्हें चाय पर बुलाओगी?” मुझे जैसे मम्मी की बात पर विश्वास ही नहीं आ रहा था.
“हां. क्यों, क्या हुआ? अरे, यह तो हमारे ज़माने में होता था कि मिल तो सकते नहीं, बस दूर से ही फब्तियां कस-कसकर तसल्ली करो. अब तो ज़माना बदल गया.”
मैं तो इस विचार-मात्र से ही पुलकित. लगा, मां सचमुच कोई ऊंची चीज़ हैं. ये लोग हमारे घर आएंगे और मुझसे दोस्ती करेंगे. एकाएक मुझे लगने लगा कि मैं बहुत अकेली हूं और मुझे किसी की दोस्ती की सख्त आवश्यकता है. इस मोहल्ले में मेरा किसी से विशेष मेल-जोल नहीं और घर में केवल मम्मी-पापा के दोस्त ही आते हैं.
दूसरा दिन मेरा बहुत ही संशय में बीता. पता नहीं मम्मी अपनी बात पूरी भी करती हैं या यों ही रौ में कह गईं और बात खत्म. शाम को मैंने याद दिलाने के लिए ही कहा,“मम्मी, तुम सचमुच ही इन लड़कों को बुलाने जाओगी?” शब्द मेरे यही थे, वरना भाव तो था कि मम्मी, जाओ न, प्लीज़.
और मम्मी सचमुच ही चली गईं. मुझे याद नहीं, मम्मी दो-चार बार से अधिक मोहल्ले में किसी के घर गई हों. मैं सांस रोककर उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रही. एक विचित्र सी थिरकन मैं अंग-प्रत्यंग में महसूस कर रही थी कि कहीं मम्मी साथ ही लेती आईं तो? कहीं वे मम्मी से भी बदतमीज़ी से पेश आए तो? पर नहीं, वे ऐसे लगते तो नहीं हैं. कोई घण्टे-भर बाद मम्मी लौटीं. बेहद प्रसन्न.
“मुझे देखते ही उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उन्हें अभी तक तो लोग अपने-अपने घरों से ही उनके लात-दांत तोड़ने की धमकी दे रहे थे, मैं जैसे सीधे घर ही पहुंच गई उनकी हड्डी पसली एक करने पर फिर तो इतनी खातिर की बेचारों ने कि बस! बड़े ही स्वीट बच्चे हैं. बाहर से आए हैं-होस्टल में जगह नहीं मिली इसलिए कमरा लेकर रह रहे हैं. शाम को जब पापा आएगे तब बुलवा लेंगे.”
प्रतीक्षा में समय इतना बोझिल हो जाता है, यह भी मेरा पहला अनुभव था. पापा आए तो मम्मी ने बड़े उमंगकर सारी बात बताई. सबसे कुछ अलग करने का सन्तोष और गर्व उनके हर शब्द में से जैसे छलका पड़ रहा था. पापा ही कौन पीछे रहने वाले थे. उन्होंने सुना तो वे भी प्रसन्न.
“बुलाओ लड़कों को. अरे, खेलने-खाने दो और मस्ती मारने दो बच्चों को.” मम्मी-पापा को अपनी आधुनिकता तुष्ट करने का एक ज़ोरदार अवसर मिल रहा था.
नौकर को भेजकर उन्हें बुलवाया गया तो अगले ही क्षण सब हाजिर. मम्मी ने बड़े कायदे से परिचय करवाया और ‘हलो….हाई’ का शुल्क आदि के रूप में लिया जानेवाले धन का आदान-प्रदान हुआ.
“तनु बेटे, अपने दोस्तों के लिए चाय बनाओ.”
धत्तेरे की. मम्मी के दोस्त आएं तब भी तनु बेटा चाय बनाए और उसके दोस्त आएं तब भी. पर मन मारकर उठी.
चाय-पानी होता रहा. ख़ूब हंसी-मज़ाक भी चली. ये सफ़ाई पेश करते रहे कि मोहल्ले वाले झूठ-मूठ ही उनके पीछे पड़े रहते हैं… वे तो ऐसा कुछ भी नहीं करते. ‘जस्ट फ़ॉर फ़न’ कुछ कर दिया वरना इस सबब का कोई मतलब नहीं.
पापा ने बढ़ावा देते हुए कहा,“अरे, इस उमर में तो यह सब करना ही चाहिए. हमें मौक़ा मिले तो आज भी करने से बाज़ न आएं.”
हंसी की एक लहर यहां से वहां तक दौड़ गई. कोई दो घण्टे बाद वे चलने लगे तो मम्मी ने कहा,“देखो, इसे अपना ही घर समझो. जब इच्छा हो चले आया करो. हमारी तनु बिटिया को अच्छी कम्पनी मिल जाएगी… कभी तुम लोगों से कुछ पढ़ भी लिया करेगी और देखो, कुछ खाने-पीने का मन हुआ करे तो बता दिया करना, तुम्हारे लिए बनवा दिया करूंगी…” और वे लोग पापा के खुलेपन और मम्मी की आत्मीयता और स्नेह पर मुग्ध होते हुए चले गए. बस, जिससे दोस्ती करवाने के लिए उन्हें बुलाया गया था वह बेचारी इस तमाशे की मात्र दर्शक-भर ही बनी रही.
उनके जाने के बाद बड़ी देर तक उनको लेकर ही चर्चा होती रही. अपने घर की किशोरी लड़की को छेड़ने वाले लड़कों को घर बुलाकर चाय पिलाई जाए और लड़की से दोस्ती करवाई जाए, यह सारी बात ही बड़ी थ्रिलिंग और रोमांचक लग रही थी. दूसरे दिन से मम्मी हर आने वाले से इस घटना का उल्लेख करती. वर्णन करने में पटु मम्मी नीरस से नीरस बात को भी ऐसा दिलचस्प बना देती हैं, फिर यह तो बात ही बड़ी दिलचस्प थी. जो सुनता वही कहता,“वाह, यह हुई न कुछ बात. आपका बड़ा स्वस्थ दृष्टिकोण है चीज़ों के प्रति. वरना लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे पर बच्चों को घोटकर रखेंगे और ज़रा सा शक-शुबह हो जाए तो बाकायदा जासूसी करेंगे.” और मम्मी इस प्रशंसा से निहाल होती हुई कहतीं,“और नहीं तो क्या? मुक्त रहो और बच्चों को मुक्त रखो. हम लोगों को बचपन में यह मत करो…यहां मत जाओ कह-कहकर कितना बांधा गया था. हमारे बच्चे तो कम से कम इस घुटने के शिकार न हों.
पर मम्मी का बच्चा उस समय एक दूसरी ही घुटन का शिकार हो रहा था और वह यह कि जिस नाटक की हीरोइन उसे बनना था, उसकी हीरोइन मम्मी बन बैठीं.
ख़ैर, इस सारी घटना का परिणाम यह हुआ कि उन लड़कों का व्यवहार एकदम ही बदल गया. जिस शराफ़त को मम्मी ने उन पर लाद दिया, उसके अनुरूप व्यवहार करना उनकी मजबूरी बन गया. अब जब भी वे अपनी छत पर मम्मी-पापा को देखते तो अदब में लपेटकर एक नमस्कार और मुझे देखते तो मुस्कान में पलटकर एक ‘हाई’ उछाल देते. फब्तियों की जगह बाकायदा हमारा वार्तालाप शुरू हो गया… बड़ा खुला और बेझिझक वार्तालाप. हमारे बरामदे और छत में इतना ही फासला था कि ज़ोर से बोलने पर बातचीत की जा सकती थी. हां, यह बात ज़रूर थी कि हमारी बातचीत सारा मोहल्ला सुन सकता था और काफ़ी दिलचस्पी से सुनता था.
जैसे ही हम लोग चालू होते, पास-पड़ोस की खिड़कियों में चार-छ: सिर और धड़ आकर चिपक जाते. मोहल्ले में लड़कियों के प्रेम-प्रसंग न हों ऐसी बात तो थी नहीं, बाकायदा लड़कियों के भागने तक की घटनाएं घट चुकी थीं. पर वह सब-कुछ बड़े गुप्त और छिपे ढंग से होता था. और मोहल्ले वाले जब अपनी पैनी नज़रों से ऐसे किसी रहस्य को जान लेते थे तो बड़ा सन्तोष उन्हें होता था. पुरुष मूंछों पर ताव देकर और स्त्रियां हाथ नचा-नचाकर ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर इन घटनाओं का यहां से वहां तक प्रचार करतीं. कुछ इस भाव से कि अरे, हमने दुनिया देखी है… हमारी आंखों में कोई नहीं धूल झोंक सकता. पर यहां स्थिति ही उलट गई थी. हमारी वार्तालाप इतने खुलेआम होता था कि लोगों को खिड़कियों की ओट में छिप-छिपकर देखना-सुनना पड़ता था और सुनकर भी ऐसा कुछ उनके हाथ नहीं लगता था जिससे वे कुछ आत्मिक संतोष पाते.
पर बात को बढ़ना था और बात बढ़ी. हुआ यह कि धीरे-धीरे छत की मजलिस मेरे अपने कमरे में जमने लगी. रोज़ ही कभी दो, तो कभी तीन या चार लड़के आकर जम जाते और दुनियाभर के हंसी-मज़ाक और गपशप का दौर चलता. गाना-बजाना भी होता और चाय-पानी भी. शाम को मम्मी-पापा के मित्र आते तो इन लोगों में से कोई न कोई बैठा ही होता. शुरू में जिन लोगों ने ‘मुक्त रहो और मुक्त रखो’ की बड़ी प्रशंसा की थी, उन्होंने मुक्त रहने का जो रूप देखा तो उनकी आंखों में भी कुछ अजीब-सी शंकाएं तैरने लगीं. मम्मी की एकाध मित्र ने दबी जुबान में कहा भी,‘तनु तो बढ़ी फ़ास्ट चल रही है.’ मम्मी का अपना सारा उत्साह मन्द पड़ गया था और लीक से हटकर कुछ करने की थ्रिल पूरी तरह झड़ चुकी थी. अब तो उन्हें इस नंगी सच्चाई को झेलना था कि उनकी निहायत कच्ची और नाज़ुक उम्र की लड़की तीन-चार लड़कों के बीच, घिरी रही है. और मम्मी की स्थिति यह थी कि वे न इस स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर पा रही थीं और न अपने ही द्वारा बड़े जोश में शुरू किए इस सिलसिले को नकार ही पा रही थीं.
आख़िर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाकर कहा,“तनु बेटे, ये लोग रोज़-रोज़ यहां आकर जम जाते हैं. आख़िर तुमको पढ़ना-लिखना भी तो है. मैं तो देख रही हैं कि इस दोस्ती के चक्कर में तेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हुई जा रही है. इस तरह तो यह सब चलेगा नहीं.”
“रात को पढ़ती तो हूं.” लापरवाही से मैंने कहा.
“खाक पढ़ती है रात को, समय ही कितना मिलता है? और फिर यह रोज़-रोज़ की धमा-चौकड़ी मुझे वैसे भी पसन्द नहीं. ठीक है, चार-छः दिन में कभी आ गए, गपशप कर ली, पर यहां तो एक न एक रोज़ ही डटा रहता है.” मम्मी के स्वर में आक्रोश का पुट गहराता जा रहा था.
मम्मी की यह टोन मुझे अच्छी नहीं लगी, पर मैं चुप.
“तू तो उनसे बहुत खुल गई है. कह दे कि वे लोग भी बैठकर पढ़े और तुझे भी पढ़ने दें. और तुझसे न कहा जाए तो मैं कह दूंगी.”
पर किसी के भी कहने की नौबत नहीं आई. कुछ तो पढ़ाई के डर से, कुछ दिल्ली के दूसरे आकर्षणों से खिचकर होस्टल वाले लड़कों का आना कम हो गया. पर सामने के कमरे से शेखर रोज़ ही आ जाता… कभी दोपहर में तो कभी शाम को. तीन-चार लोगों की उपस्थिति में उसकी जिस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया, वही बात अकेले में सबसे अधिक उजागर होकर आई. वह बोलता कम था, पर शब्दों के परे बहुत कुछ कहने की कोशिश करता था और एकाएक ही मैं उसकी अनकही भाषा समझने लगी थी… केवल समझने ही नहीं लगी थी, प्रत्युत्तर भी देने लगी थी. जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि शेखर और मेरे बीच प्रेम जैसी कोई चीज़ पनपने लगी है. यों तो शायद मैं समझ ही नहीं पाती, पर हिन्दी फ़िल्में देखने के बाद इसको समझने में ख़ास मुश्क़िल नहीं हुई.
जब तक मन में कहीं कुछ नहीं था, सब कुछ बड़ा खुला था पर जैसे ही ‘कुछ’ हुआ तो उसे औरों की नज़र से बचाने की इच्छा भी साथ ही आई. जब कभी दूसरे लड़के आते तो सीढ़ियों से ही शोर करते आते… ज़ोर-ज़ोर से बोलते, लेकिन शेखर जब भी आता रेंगता हुआ आता और फुसफुसाकर हम बातें करते. वैसे बातें बहुत ही साधारण होती थीं-स्कूल की, कॉलेज की. पर फुसफुसाकर करने में ही वे कुछ विशेष लगती थीं. प्रेम को कुछ रहस्यमय, कुछ गुपचुप बना दो तो वह बड़ा थ्रिलिंग हो जाता है वरना तो एकदम सीधा-सपाट! पर मम्मी के पास घर और घरवालों के हर रहस्य को जान लेने की एक छठी इन्द्रिय है और जिससे पापा भी काफ़ी त्रस्त रहते हैं… उससे उन्हें यह सब समझने में ज़रा भी देर नहीं लगी. शेखर कितना ही दब-छिपकर आता और मम्मी घर के किसी कोने में होतीं… फट, से प्रकट हो जातीं या फिर वहीं से पूछतीं,“तनु, कौन है तुम्हारे कमरे में?”
मैंने देखा कि शेखर के इस रवैये से मम्मी के चेहरे पर एक अजीब-सी परेशानी झलकने लगी है. पर मम्मी इस बात को लेकर यों परेशान हो उठेंगी, यह मैं सोच भी नहीं सकती थी. जिस घर में रात-दिन तरह-तरह के प्रेम-प्रसंग ही पीसे जाते रहे हों-कुंआरों के प्रेम-प्रसंग, विवाहितों के प्रेम-प्रसंग, दो तीन प्रेमियों से एक साथ चलने वाले प्रेम-प्रसंग-उस घर के लिए तो यह बात बहुत ही मामूली होनी चाहिए. जब लड़कों से दोस्ती की है तो एकाध से प्रेम भी हो ही सकता है. मम्मी ने शायद समझ लिया था कि यह सारी स्थिति आजकल की कलात्मक फ़िल्मों की तरह चलेगी-जिनकी वे बड़ी प्रशंसक और समर्थक हैं-पर जिनमें शुरू से लेकर आख़िर तक कुछ भी सनसनीखेज़ घटता ही नहीं.
जो भी हो, मम्मी की इस परेशानी ने मुझे भी कहीं हल्के से विचलित ज़रूर कर दिया. मम्मी मेरी मां ही नहीं, मित्र और साथिन भी हैं. दो घनिष्ठ मित्रों की तरह ही हम दुनिया-जहान की बातें करते हैं-हंसी-मज़ाक करते हैं. मैं चाहती थी कि वे इस बारे में भी कोई बात करें, पर उन्होंने कोई बात नहीं की. बस, जब शेखर आता तो वे अपनी स्वभावगत लापरवाही छोड़कर बड़े सहज भाव से मेरे कमरे के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती.
***
एक दिन मम्मी के साथ बाहर जाने के लिए मैं नीचे उतरी तो दरवाज़े पर ही पड़ोस की एक भद्र महिला टकरा गई. नमस्कार और कुशल-क्षेम के शुल्क आदि के रूप में लिया जानेवाले धन के आदान-प्रदान के बाद वे बात के असली मुद्दे पर आईं.
“ये सामने की छत वाले लड़के आपके रिश्तेदार हैं क्या?”
“नहीं तो.”
“अच्छा? शाम को रोज़ ही आपके घर बैठे रहते हैं तो सोचा आपके ज़रूर कुछ लगते होंगे.”
“तनु के दोस्त हैं.” मम्मी ने कुछ ऐसी लापरवाही और निसंकोच भाव से यह वाक्य उछाला कि बेचारी तीर निशाने पर न लगने का गम लिए ही लौट गई.
वे तो लौट गईं पर मुझे लगा कि इस बात का सूत्र पकड़कर ही मम्मी अब जरूर मेरी थोड़ी धुनाई कर देंगी. कहने वाली का तो कुछ न बना, पर मेरा कुछ बिगाड़ने का हथियार तो मम्मी के हाथ में आ ही गया. बहुत दिनों से उनके अपने मन में भी कुछ उमड़-घुमड़ तो रहा ही है पर मम्मी ने इतना ही कहा,“लगता है, इनके अपने घर में कोई धन्धा नहीं है. …जब देखो दूसरे के घर में चोंच गड़ाए रहते हैं.”
मैं आश्वस्त ही नहीं हुई, बल्कि मम्मी की ओर से हरा सिगनल समझकर मैंने अपनी रफ़्तार कुछ और तेज़ कर दी. पर इतना ज़रूर किया कि शेखर के साथ तीन घण्टों में से एक घण्टा ज़रूर पढ़ाई में गुज़ारती. वह बहुत मन लगाकर पढ़ाता और मैं बहुत मन लगाकर पढ़ती. हां, बीच-बीच में वह काग़ज़ की छोटी-छोटी पर्चियों पर कुछ ऐसी पंक्तियां लिखकर थमा देता कि मैं भीतर तक झनझना जाती. उसके जाने के बाद भी उन पंक्तियों के वे शब्द, शब्दों के पीछे के भाव मेरी रग-रग में सनसनाते रहते और मैं उन्हीं में डूबी रहती.
मेरे भीतर अपनी ही एक दुनिया बनती चली जा रही थी. बड़ी भरी-पूरी और रंगीन. आजकल मुझे किसी की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. लगता जैसे मैं अपने में ही पूरी हूं. हमेशा साथ रहने वाली मम्मी भी आउट होती जा रही है और शायद यही कारण है कि इधर मैंने मम्मी पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है. रोज़मर्रा की बातें तो होती हैं, पर केवल बातें ही होती हैं-उसके परे कहीं कुछ नहीं.
दिन गुज़रते जा रहे थे और मैं अपने में ही डूबी, अपनी दुनिया में और गहरे धंसती जा रही थी-बाहर की दुनिया से एक तरह से बेख़बर-सी.
एक दिन स्कूल से लौटी, कपड़े बदले. शोर-शराबे के साथ खाना मांगा, मीन-मेख के साथ खाया और जब कमरे में घुसी तो मम्मी ने लेटे-लेटे ही बुलाया,“तनु इधर आओ.”
पास आई तो पहली बार ध्यान गया कि मम्मी का चेहरा तमतमा रहा है. मेरा माथा ठनका. उन्होंने साइड टेबल पर से एक किताब उठाई और उसमें से काग़ज़ की पांच-छ: पर्चियां निकालकर सामने कर दी. ‘तौबा.’ मम्मी से कुछ पढ़ना था तो जाते समय उन्हें अपनी किताब दे गई थी. ग़लती से शेखर की लिखी पर्चियां उसी में रह गईं.
“तो इस तरह चल रही है शेखर और तुम्हारी दोस्ती? यही पढ़ाई होती है यहां बैठकर…. यही सब करने के लिए आता है वह यहां?”
मैं चुप. जानती हूं, ग़ुस्से में मम्मी को जवाब देने से बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं.
“तुमको छूट दी… आज़ादी दी, पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम उसका नाजायज़ फ़ायदा उठाओ.”
मैं फिर चुप.
“बिते-भर की लड़की और करतब देखो इनके. जितनी छूट दो उतने ही पैर पसरते जा रहे हैं इनके. एक झापड़ दूंगी तो सारा रोमांस झड़ जाएगा दो मिनट में…”
इस वाक्य पर मैं एकाएक तिलमिला उठी. तमककर नज़र उठाई और मम्मी की तरफ़ देखा- पर यह क्या यह तो मेरी मम्मी नहीं है. न यह तेवर मम्मी का है, न यह भाषा. फिर भी ये सारे वाक्य बहुत परिचित-से लगे. लगा, यह सब मैंने कहीं सुना है और सटाक से मेरे मन में कौंधा- नाना. पर नाना को मरे तो कितने साल हो गए, ये फिर ज़िंदा कैसे हो गए? और वह भी मम्मी के भीतर… जो होश संभालने के बाद हमेशा उनसे झगड़ा ही करती रहीं… उनकी हर बात का विरोध ही करती रहीं.
मम्मी का ‘नानई’ लहजे वाला भाषण काफ़ी देर तक चालू रहा, पर वह सब मुझे कहीं से भी छू नहीं रहा था.. बस, कोई बात झकझोर रही थी तो यही कि मम्मी के भीतर नाना कैसे आ बैठे?
और फिर घर में एक विचित्र-सा तनावपूर्ण मौन छा गया. ख़ासकर मेरे और मम्मी के बीच. नहीं, मम्मी तो घर में रही ही नहीं, मेरे और नाना के बीच. मैं मम्मी को अपनी बात समझा भी सकती हूं, उनकी बात समझ भी सकती हूं- पर नाना? मैं तो इस भाषा से भी अपरिचित हूं और इस तेवर से भी-बात करने का प्रश्न ही कैसे उठता? पापा ज़रूर मेरे दोस्त हैं, पर बिलकुल दूसरी तरह के. शतरंज खेलना, पंजा लड़ाना और जो फ़र्माइश मम्मी पूरी न करें, उनसे पूरी करवा लेना. बचपन में उनकी पीठ पर लदी रहती थी और आज भी बिना किसी झिझक के उनकी पीठ पर लदकर अपनी हर इच्छा पूरी करवा लेती हूं. पर इतने ‘माई डियर दोस्त’ होने के बावजूद अपनी निजी बातें मैं मम्मी के साथ ही करती आई हूं. और वहां एकदम सन्नाटा-मम्मी को पटखनी देकर नाना पूरी तरह उन पर सवार जो हैं.
शेखर को मैंने इशारे से ही लाल झंडी दिखा दी थी सो वह भी नहीं आ रहा और शाम का समय है कि मुझसे काटे नहीं कटता.
कई बार मन हुआ कि मम्मी से जाकर बात करूं और साफ़-साफ़ पूछूं कि तुम इतना बिगड़ क्यों रही हो? मेरी और शेखर की दोस्ती के बारे में जानती तो हो. मैंने तो कभी कुछ छिपाया नहीं. और दोस्ती है तो यह सब तो होगा ही. तुम क्या समझ रही थीं कि हम भाई-बहन की तरह… पर तभी ख़्याल आता कि मम्मी है ही कहां, जिनसे जाकर यह सब कहूं.
चार दिन हो गए, मैंने शेखर की सूरत तक नहीं देखी. मेरे हलके से इशारे से ही उस बेचारे ने तो घर क्या, छत पर आना भी छोड़ दिया. होस्टल में रहने वाले उसके साथी भी छत पर न दिखाई दिए, न घर ही आए. कोई आता तो कम से कम उसका हालचाल ही पूछ लेती. मैं जानती हूं, वह बेवकूफी की हद तक भावुक है. उसे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि आख़िर यहां हुआ क्या है? लगता है, मम्मी के ग़ुस्से की आशंका मात्र से ही सबके हौसले पस्त हो गए थे.
वैसे कल से मम्मी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला ज़रूर हुआ है. तीन दिन से जमी हुई सख़्ती जैसे पिघल गई हो. पर मैंने तय कर लिया है कि बात अब मम्मी ही करेंगी.
सवेरे नहा-धोकर मैं दरवाजे के पीछे अपनी यूनिफ़ॉर्म प्रेस कर रही थी. बाहर मेज पर मम्मी चाय बना रही थीं और पापा अख़बार में सिर गड़ाए बैठे थे. मम्मी को शायद मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कब नहाकर बाहर निकल आई. वे पापा से बोलीं,“जानते हो, कल रात को क्या हुआ? पता नहीं, तब से मन बहुत ख़राब हो गया-उसके बाद मैं तो सो ही नहीं पाई.”
मम्मी के स्वर की कोमलता से मेरा हाथ जहां का तहां थम गया और कान बाहर लग गए.
“आधी रात के क़रीब मैं बाथरूम जाने के लिए उठी. सामने छत पर घुप्प अंधेरा छाया हुआ था. अचानक एक लाल सितारा-सा चमक उठा. मैं चौकी. गौर से देखा तो धीरे-धीरे एक आकृति उभर आई. शेखर छत पर खड़ा सिगरेट पी रहा था. मैं चुपचाप लौट आई. कोई दो घण्टे बाद फिर गई तो देखा, वह उसी तरह छत पर टहल रहा था. बेचारा… मेरा मन जाने कैसा हो आया. तनु भी कैसी बुझी-बुझी रहती है…” फिर जैसे अपने को ही धिक्कारती-सी बोली,“पहले तो छूट दो और फिर जब आगे बढ़े तो खींचकर चारों खाने चित कर दो. यह भी कोई बात हुई भला.”
राहत की एक गहरी नि:श्वास मेरे भीतर से निकल पड़ी. जाने कैसा आवेग मन में उमड़ा कि इच्छा हुई दौड़कर मम्मी के गले से लग जाऊं. लगा जैसे अरसे के बाद मेरी मम्मी लौट आई हों. पर मैंने कुछ नहीं कहा. बस, अब खुलकर बात करूंगी. चार दिन से न जाने कितने प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे. अब क्या, अब तो मम्मी हैं और उनसे तो कम से कम सब कहा-पूछा जा सकता है.
पर घर पहुंचकर जो देखा तो अवाक. शेखर हथेलियों में सिर थामे कुर्सी पर बैठा है और मम्मी उसी कुर्सी के हत्थे पर बैठी उसकी पीठ और माथा सहला रही हैं. मुझे देखते ही बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में बोलीं,“देखा इस पगले को. चार दिन से ये साहब कॉलेज नहीं गए हैं. न ही कुछ खाया-पिया है. अपने साथ इसका भी खाना लगवाना.”
और फिर मम्मी ने ख़ुद बैठकर बड़े स्नेह से मनुहार कर-करके उसे खाना खिलाया. खाने के बाद कहने पर भी शेखर ठहरा नहीं. मम्मी के प्रति कृतज्ञता के बोझ से झुका-झुका ही वह लौट गया और मेरे भीतर ख़ुशी का ऐसा ज्वार उमड़ा कि अब तक के सोचे सारे प्रश्न उसी में बिला गए.
सारी स्थिति को समय पर आने में समय तो लगा, पर आ गई. शेखर ने भी अब एक दो दिन छोड़कर आना शुरू किया और आता भी तो अधिकतर हम लिखाई-पढ़ाई की ही बातें करते. अपने किए पर शर्मिन्दगी प्रकट करते हुए उसने मम्मी से वायदा किया कि वह अब कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे मम्मी को शिकायत हो. जिस दिन वह नहीं आता, मैं दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए अपने बरामदे से ही बात कर लिया करती. घर की अनुमति और सहयोग से यों सरेआम चलने वाले इस प्रेम-प्रसंग में मोहल्ले वालों के लिए भी कुछ नहीं रह गया था और उन्होंने इस जानलेवा ज़माने के नाम दो-चार लानतें भेजकर, किसी गुल खिलने तक के लिए अपनी दिलचस्पी को स्थगित कर दिया.
लेकिन एक बात मैंने ज़रूर देखी. जब भी शेखर शाम को कुछ ज़्यादा देर बैठ जाता या दोपहर में भी आ जाता तो मम्मी के भीतर नाना कसमसाने लगते और उसकी प्रतिक्रिया मम्मी के चेहरे पर झलकने लगती. मम्मी भरसक कोशिश करके नाना को बोलने तो नहीं देती, पर उन्हें पूरी तरह हटा देना भी शायद मम्मी के बस की बात नहीं रह गई थी.
हां, यह प्रसंग मेरे और मम्मी के बीच में अब रोज़मर्रा की बातचीत का विषय ज़रूर बन गया था. कभी वे मज़ाक में कहतीं,“यह जो तेरा शेखर है न, बड़ा लिज़लिज़ा-सा लड़का है. अरे, इस उम्र में लड़कों को चाहिए घूमें, फिरें… मस्ती मारें. क्या मुहर्रमी-सी सूरत बनाए मजनू की तरह छत पर टंगा सारे समय इधर ही ताकता रहता है.”
मैं केवल हंस देती.
कभी बड़ी भावुक होकर कहतीं,“तू क्यों नहीं समझती बेटे, कि तुझे लेकर कितनी महत्वाकांक्षाएं हैं मेरे मन में. तेरे भविष्य को लेकर कितने सपने संजो रखे हैं मैंने.”
मैं हंसकर कहती,“मम्मी, तुम भी कमाल करती हो. अपनी ज़िन्दगी को लेकर भी तुम सपने देखो और मेरी ज़िन्दगी के सपने भी तुम्हीं देख डालो… कुछ सपने मेरे लिए भी तो छोड़ दो.”
कभी वे समझाने के लहजे में कहतीं,“देखो तनु, अभी तुम बहुत छोटी हो. अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाओ और दिमाग़ से ये उलटे-सीधे फितूर निकाल डालो. ठीक है बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी. मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ने वाली नहीं हूं-अपने-आप ही ढूंढ़ना, पर इतनी अक्ल तो आ जाए कि ढंग का चुनाव कर सको.”
अपने चुनाव के रिजेक्शन को मैं समझ जाती और पूछती,“अच्छा मम्मी, बताओ, जब तुमने पापा को चुना था तो नाना को वह पसन्द था?”
“मेरा चुनाव! अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई ख़त्म करके पच्चीस साल की उमर में चुनाव किया था मैंने- ख़ूब सोच-समझकर और अक्ल के साथ, समझीं.”
मम्मी अपनी बौखलाहट को ग़ुस्से में छिपाकर कहती. उम्र और पढ़ाई-लिखाई-ये दो ही तो ऐसे मुद्दे हैं जिनपर मम्मी मुझे जब तब धौंसती रहती हैं. पढ़ने लिखने में मैं अच्छी थी और रहा, उम्र का सवाल, सो उसके लिए मन होता कि कहूं,‘मम्मी, तुम्हारी पीढ़ी जो काम पच्चीस साल की उम्र में करती थी, हमारी उसे पन्द्रह साल की उम्र में ही करेगी, इसे तुम क्यों नहीं समझतीं.’ पर चुप रह जाती. नाना का ज़िक्र तो चल ही पड़ा है, कहीं वे ही जाग उठे तो?
छमाही परीक्षाएं पास आ गई थीं और मैंने सारा ध्यान पढ़ने में लगा दिया था. सबका आना और गाना-बजाना एकदम बन्द. इन दिनों मैंने इतनी जमकर पढ़ाई की कि मम्मी का मन प्रसन्न हो गया. शायद कुछ आश्वस्त भी. आखिरी पेपर देने के पश्चात् लग रहा था कि एक बोझ था, जो हट गया है. मन बेहद हलका होकर कुछ मस्ती मारने को कर रहा था.
मैंने मम्मी से पूछा,“मम्मी, कल शेखर और दीपक पिक्चर जा रहे हैं, मैं भी साथ चली जाऊं?” आज तक मैं इन लोगों के साथ कभी घूमने नहीं गई थी, पर इतनी पढ़ाई करने के बाद अब इतनी छूट तो मिलनी ही थी.
मम्मी एक क्षण मेरा चेहरा देखती रहीं, फिर बोलीं- इधर आ, यहां बैठ. तुझसे कुछ बात करनी है.”
मैं जाकर बैठ गई, पर यह न समझ आया कि इसमें बात करने को क्या है-हां कहो या ना. लेकिन मम्मी को बात करने का मर्ज़ जो है. उनकी तो हां-ना भी पचास-साठ वाक्यों में लिपटे बिना नहीं निकल सकती.
“तेरे इम्तिहान ख़तम हुए हैं, मैं तो ख़ुद पिक्चर का प्रोग्राम बना रही थी. बोल, कौन-सी पिक्चर देखना चाहती है?”
‘‘क्यों, उन लोगों के साथ जाने में क्या है?” मेरे स्वर में इतनी खीज भरी हुई थी कि मम्मी एकटक मेरा चेहरा ही देखती रह गई.
“तनु, तुझे पूरी छूट दे रखी है बेटे, पर इतना ही तेज़ चल कि मैं भी साथ तो चल सकूं.”
“तुम साफ़ कहो न, कि जाने दोगी या नहीं? बेकार की बातें… मैं भी साथ चल सकूं-तुम्हारे साथ चल सकने की बात भला कहां से आ गई.”
मम्मी ने पीठ सहलाते हुए कहा,“साथ तो चलना ही पड़ेगा. कभी औंधे मुंह गिरी तो कोई उठाने वाला भी तो चाहिए न?”
मैं समझ गई कि मम्मी नहीं जाने देंगी, पर इस तरह प्यार से मना करती हैं तो झगड़ा भी तो नहीं किया जा सकता. बहस करने का सीधा-सा मतलब है कि उनका बघारा हुआ दर्शन सुनो-यानी पचास मिनट की एक क्लास. पर मैं कतई नहीं समझ पाई कि जाने में आख़िर हर्ज क्या है? हर बात में ना-नुकुर. कहां तो कहती थीं कि बचपन में, यह मत करो, यहां मत जाओ कहकर हमको बहुत डांटा गया था और ख़ुद अब वही सब कर रही हैं. देख लिया इनकी बड़ी-बड़ी बातों को. मैं उठी और दनदनाती हुई अपने कमरे में आ गई. हां, एक वाक्य ज़रूर थमा आई,“मम्मी जो चलेगा, वह गिरेगा भी और जो गिरेगा, वह उठेगा भी और ख़ुद ही उठेगा, उसे किसी की ज़रूरत नहीं है.”
पता नहीं, मेरी बात की उन पर प्रतिक्रिया हुई या उनके मन में ही कुछ जागा कि शाम को उन्होंने ख़ुद शेखर और उसके कमरे पर आए तीनों-चारों लड़कों को बुलवाकर मेरे ही कमरे में मजलिस जमवाई और ख़ूब गरम-गरम खाना खिलवाया. कुछ ऐसा रंग जमा कि मेरा दोपहर वाला आक्रोश धुल गया.
इम्तिहान ख़तम हो गए थे और मौसम सुहाना था. मम्मी का रवैया भी अनुकूल था सो दोस्ती का स्थगित हुआ सिलसिला फिर शुरू हो गया और आजकल तो जैसे उसके सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था. पर फिर एक झटका.
उस दिन मैं अपनी सहेली के घर से लौटी तो मम्मी की सख़्त आवाज़ सुनाई दी,“तनु, इधर आओ तो.”
आवाज़ से ही लगा कि खतरे का सिगनल है. एक क्षण को मैं सकते में आ गई. पास गई तो चेहरा पहले की तरह सख्त.
“तुम शेखर के कमरे पर जाती हो?” मम्मी ने बन्दूक दागी. समझ गई कि पीछे गली में से किसी ने अपना करतब कर दिखाया.
“कब से जाती हो?”
मन तो हुआ कि कहूं जिसने जाने की ख़बर दी है, उसने बाकी बातें भी बता दी होंगी… कुछ जोड़-तोड़कर ही बताया होगा. पर मम्मी जिस तरह भभक रही थीं, उसमें चुप रहना ही बेहतर समझा. वैसे मुझे मम्मी के इस ग़ुस्से का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था. दो-तीन बार यदि मैं थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शेखर के कमरे पर चली ही गई तो ऐसा क्या गुनाह हो गया? पर मम्मी का हर काम सकारण तो होता नहीं… बस, वे तो मूड पर ही चलती हैं.
अजीब मुसीबत थी-ग़ुस्से में मम्मी से बात करने का मतलब नहीं… और मेरी चुप्पी मम्मी के ग़ुस्से को और भड़का रही थी.
“याद नहीं है, मैंने शुरू में ही तुम्हें मना कर दिया था कि तुम उनके कमरे पर कभी नहीं जाओगी. तीन-तीन घण्टे वह यहां धूनी रमाकर बैठता है, उसमें जी भरा नहीं तुम्हारा?”
दुःख, क्रोध और आतंक की परतें उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही थीं और मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे उन्हें सारी स्थिति समझाऊं?
“वह तो बेचारे सामने वालों ने मुझे बुलाकर आगाह कर दिया-जानती है, यह सिर आज तक किसी के सामने झुका नहीं, पर वहां मुझसे आंख नहीं उठाई गईं. मुंह दिखाने लायक मत रखना हमको कभी भी. सारी गली में थू-थू हो रही है. नाक कटाकर रख दी.”
ग़ज़ब इस बार तो सारा मोहल्ला ही बोलने लगा मम्मी के भीतर से. आश्चर्य है कि जो मम्मी आज तक अपने आसपास से बिल्कुल कटी हुई थीं… जिसका मज़ाक ही उड़ाया करती थीं… आज कैसे उसके सुर में सुर मिलाकर बोल रही हैं.
मम्मी का भाषण बदस्तूर चालू… पर मैंने तो अपने कान के स्विच ही ऑफ कर लिए. जब ग़ुस्सा ठंडा होगा… मम्मी अपने में लौट आएंगी तब समझा दूंगी- मम्मी, इस छोटी-सी बात को तुम नाहक इतना तूल दे रही हो.
पर जाने कैसी डोज लेकर आई हैं इस बार कि उनका ग़ुस्सा ठंडा ही नहीं हो रहा और हुआ यह है कि अब उनके ग़ुस्से से मुझे ग़ुस्सा चढ़ने लगा.
फिर घर में एक अजीब सा तनाव बढ़ गया. इस बार मम्मी ने शायद पापा को भी सब-कुछ बता दिया है. कहा तो उन्होंने कुछ नहीं, वे शुरू से ही इस सारे मामले में आउट ही रहे… पर इस बार उनके चेहरे पर भी एक अनकहा-सा तनाव दिखाई दे रहा है.
कोई दो महीने पहले जब इस तरह की घटना हुई थी तो मैं भीतर तक सहम गई थी, पर इस बार मैंने तय कर लिया है कि इस सारे मामले में मम्मी को यदि नाना बनकर ही व्यवहार करना है तो मुझे भी फिर मम्मी की तरह ही मोर्चा लेना होगा उनसे… और मैं ज़रूर लूंगी. दिखा तो दूं कि मैं तुम्हारी ही बेटी हूं और तुम्हारे ही नक्शो-क़दम पर चली हूं. ख़ुद तो लीक से हटकर चली थीं… सारी जि़न्दगी इस बात की घुट्टी पिलाती रहीं, पर मैंने जैसे ही अपना पहला कदम रखा, घसीटकर मुझे अपनी ही खींची लीक पर लाने के दंद-फंद शुरू हो गए.
मैंने मन में ढेर-ढेर तर्क सोच डाले कि एक दिन बाकायदा मम्मी से बहस करूंगी. साफ़-साफ़ कहूंगी कि मम्मी, इतने ही बन्धन लगाकर रखना था तो शुरू से वैसे पालतीं. क्यों झूठ-मूठ आज़ादी देने की बातें करती-सिखाती रहीं. पर इस बार मेरा भी मन सुलगकर इस तरह राख हो गया था कि मैं गुमसुम-सी अपने ही कमरे में पड़ी रहती. मन बहुत भर आता तो रो लेती. घर में सारे दिन हंसती-खिलखिलाती रहने वाली मैं एकदम चुप होकर अपने में ही सिमट गई थी. हां, एक वाक्य ज़रूर बार-बार दोहरा रही थी,‘मम्मी, मुझे अच्छी तरह समझ लो कि मैं भी अपने मन की ही करूंगी.’ हालांकि मेरे मन में क्या है, इसकी कोई भी रूपरेखा मेरे सामने न थी.
मुझे नहीं मालूम कि इन तीन-चार दिनों में बाहर क्या हुआ. घर-बाहर की दुनिया से कटी, अपने ही कमरे में सिमटी, मैं मम्मी से मोर्चा लेने के दांव सोच रही थी.
पर आज दोपहर मुझे कतई-कतई अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब मैंने मम्मी को अपने बरामदे से ही चिल्लाते हुए सुना,“शेखर, कल तो तुम लोग छुट्टियों में अपने घर चले जाओगे, आज अपने दोस्तों के साथ खाना इधर ही खाना.”
नहीं जानती, किस जद्दोजहद से गुजरकर मम्मी इस स्थिति पर पहुंची होंगी.
और रात को शेखर, दीपक और रवि के साथ खाने की मेज पर डटा हुआ था. मम्मी उतने ही प्रेम से खाना खिला रही थी… पापा वैसे ही खुले ढंग से मज़ाक कर रहे थे, मानो बीच में कुछ घटा ही न हो. अगल-बगल की खिड़कियों में दो-चार सिर चिपके हुए थे. सब कुछ पहले की तरह बहुत सहज-स्वाभाविक हो उठा था…
केवल मैं इस सारी स्थिति से एकदम तटस्थ होकर यही सोच रही थी कि नाना पूरी तरह नाना थे-शत-प्रतिशत और इसी से मम्मी के लिए लड़ना कितना आसान हो गया होगा. पर इन मम्मी से लड़ा भी कैसे जाए जो एक पल नाना होकर जीती हैं तो एक पल मम्मी होकर.
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