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उधड़ी हुई कहानियां: अंधविश्वास और औरत की दास्तां (लेखिका: अमृता प्रीतम)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 6, 2023
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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उधड़ी हुई कहानियां: अंधविश्वास और औरत की दास्तां (लेखिका: अमृता प्रीतम)
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अंधविश्वास सबसे अधिक औरतों पर प्रहार करता है. उधड़ी हुई कहानियों में लेखिका अमृता प्रीतम अंधविश्वास के चंगुल में फंसकर निकली एक महिला की दास्तां सुनाती हैं.

मैं और केतकी अभी एक दूसरी की वाकिफ़ नहीं हुई थीं कि मेरी मुस्कराहट ने उसकी मुस्कराहट से दोस्ती गांठ ली.
मेरे घर के सामने नीम के और कीकर के पेड़ों में घिरा हुआ एक बांध है. बांध की दूसरी ओर सरसों और चनों के खेत हैं. इन खेतों की बाईं बगल में किसी सरकारी कॉलेज का एक बड़ा बगीचा है. इस बगीचे की एक नुक्कड़ पर केतकी की झोपड़ी है. बगीचे को सींचने के लिए पानी की छोटी-छोटी खाइयां जगह-जगह बहती हैं. पानी की एक खाई केतकी की झोंपड़ी के आगे से भी गुज़रती है.
इसी खाई के किनारे बैठी हुई कंतकी को मैं रोज़ देखा करती थी. कभी वह कोई हंडिया या परात साफ़ कर रही होती और कभी वह सिर्फ़ पानी की अंजुलियां भर-भरकर चांदी के गजरों से लदी हुई अपनी बांहें धो रही होती.
चांदी के गजरों की तरह ही उसके बदन पर ढलती आयु ने मांस की मोटी-मोटी सिलवटें डाल दी थीं. पर वह अपने गहरे सांवले रंग में भी इतनी सुन्दर लगती थी कि मांस की मोटी-मोटी सिलवटें मुझे उसकी उमर की सिंगार-सी लगती थीं. शायद इसीलिए कि उसके होंठों की मुस्कराहट में अजीब-सी भरपूरगी थी, एक अजीब तरह की सन्तुष्टि, जो आज के ज़माने में सबके चेहरों से खो गई है. मैं रोज़ उसे देखती थी और सोचती थी कि उसने जाने कैसे यह भरपूरता अपने मोटे और सांवले होंठों में सम्भालकर रख ली थी. मैं उसे देखती थी और मुस्करा देती थी. वह मुझे देखती और मुस्करा देती. और इस तरह मुझे उसका चेहरा बगीचे के सैकड़ों फूलों में से एक फूल जैसा ही लगने लगा था. मुझे बहुत-से फूलों के नाम नहीं आते, पर उसका नाम, मुझे मालूम हो गया था-“मांस का फूल.”
एक बार मैं पूरे तीन दिन उसके बगीचे में न जा सकी. चौथे दिन जब गई तो उसकी आंखें मुझसे इस तरह मिलीं जैसे तीन दिनों से नहीं, तीन सालों से बिछुड़ी हुई हों.
“क्या हुआ बिटिया! इतने दिन आई नहीं ?”
“सर्दी बहुत थी अम्मां! बस बिस्तर में ही बैठी रही.”
“सचमुच बहुत जाड़ा पड़ता है तुम्हारे देश में.”
“तुम्हारा कौन-सा गांव है अम्मां?”
“अब तो यहां झोंपड़ी डाल ली, यही मेरा गांव है.”
“यह तो ठीक है, फिर भी अपना गांव अपना गांव होता है.”
“अब तो उस धरती से नाता टूट गया बिटिया! अब तो यही कार्तिक मेरे गांव की धरती है और यही मेरे गांव का आकाश है.”
“यही कार्तिक” कहते हुए उसने झुग्गी के पास बैठे हुए अपने मर्द की तरफ़ देखा. आयु के कुबड़ेपन से झुका हुआ एक आदमी ज़मीन पर तीले और रस्सियां बिछाकर एक चटाई बुन रहा था. दूर पड़े हुए कुछ गमलों में लगे हुए फूलों को सर्दी से बचाने के लिए शायद चटाइयों की आड़ देनी थी.
केतकी ने बहुत छोटे वाक्य में बहुत बड़ी बात कह दी थी. शायद बहुत बड़ी सच्चाइयों को अधिक विस्तार की ज़रूरत नहीं होती. मैं एक हैरानी से उस आदमी की तरफ़ देखने लगी जो एक औरत के लिए धरती भी बन सकता था और आकाश भी.
“क्या देखती हो बिटिया! यह तो मेरी ‘बिरंग चिट्ठी” है.”
“बैरंग चिट्ठी!”
“जब चिट्ठी पर टिक्कप नहीं लगाते तो वह बिरंग हो जाती है.”
“हां अम्मां! जब चिट्ठी पर टिकट नहीं लगी होती तो वह बैरंग हो जाती है.”
“फिर उसको लेने वाला दुगुना दाम देता है.”
“हां अम्मा! उसको लेने के लिए दुगने पैसे देने पड़ते हैं.’”
“बस यही समझ लो कि इसको लेने के लिए मैंने दुगने दाम दिए हैं. एक तो तन का दाम दिया और एक मन का.”
मैं केतकी के चेहरे की तरफ़ देखने लगी. केतकी का सादा और सांवला चेहरा ज़िन्दगी की किसी बड़ी फिलासफी से सुलग उठा था.
“इस रिश्ते की चिट्ठी जब लिखते हैं तो गांव के बड़े-बूढ़े इसके ऊपर अपनी मोहर लगाते हैं.”
“तो तुम्हारी इस चिट्ठी के ऊपर गांव वालों ने अपनी मोहर नहीं लगाई थी?”
“नहीं लगाई तो क्या हुआ! मेरी चिट्ठी थी, मैंने ले ली. यह कार्तिक की चिट्ठी तो सिर्फ़ केतकी के नाम लिखी गई थी.”
“तुम्हारा नाम केतकी है? कितना प्यारा नाम है. तुम बड़ी बहादुर औरत हो अम्मां!
“मैं शेरों के कबीले में से हूं.”
“वह कौन-सा कबीला है अम्मां?”
“यही जो जंगल में शेर होते हैं, वे सब हमारे भाई-बन्धु हैं. अब भी जब जंगल में कोई शेर मर जाए तो हम लोग तेरह दिन उसका मातम मनाते हैं. हमारे कबीले के मर्द लोग अपना सिर मुंडा लेते हैं, और मिट्टी की हंडिया फोड़कर मरने वाले के नाम पर दाल-चावल बांटते हैं.”
“सच अम्मा?”
“मैं चकमक टोला की हूं. जिसके पैरों में कपिल धारा बहती है.’’
“यह कपिल धारा क्या है अम्मां!”
“तुमने गंगा का नाम सुना है?”
“गंगा नदी?”
“गंगा बहुत पवित्र नदी है, जानती हो न?”
“जानती हूं.”
“पर कपिल धारा उससे भी पवित्र नदी है. कहते हैं कि गंगा मइया एक साल में एक बार काली गाय का रूप धारण कर कपिल धारा में स्नान करने के लिए जाती है.
“वह चकमक टोला किस जगह है अम्मां?”
“करंजिया के पास.”
“और यह करंजिया?”
“तुमने नर्मदा का नाम सुना है?”
“हां सुना है.”
“नर्मदा और सोन नदी भी नज़दीक पड़ती हैं.”
“ये नदियां भी बहुत पवित्र हैं?”
“उतनी नहीं, जितनी कपिल धारा. यह तो एक बार जब धरती की खेतियां सूख गई थीं, और लोग बचारे उजड़ गए थे तो उनका दुःख देखकर ब्रह्मा जी रो पड़े थे. ब्रह्माजी के दो आंसू धरती पर गिर पड़े. बस जहां उनके आंसू गिरे वहां ये नर्मदा नदी और सोन नदी बहने लगीं. अब इनसे खेतों को पानी मिलता है.”
“और कपिल धारा से?”
“इससे तो मनुष्य की आत्मा को पानी मिलता है. मैंने कपिल धारा के जल में इशनान किया और कार्तिक को अपना पति मान लिया.”
“तब तुम्हारी उमर क्या होगी अम्मां?”
“सोलह बरस की होगी.”
“पर तुम्हारे मां-बाप ने कार्तिक को तुम्हारा पति क्यों न माना?”
“बात यह थी कि कार्तिक की पहले एक शादी हुई थी. इसकी औरत मेरी सखी थी. बड़ी भली औरत थी. उसके घर चुन्दरू-मुंदरू दो बेटे हुए. दोनों ही बेटे एक ही दिन जन्मे थे. हमारे गांव का ‘गुनिया’ कहने लगा कि यह औरत अच्छी नहीं है. इसने एक ही दिन अपने पति का संग भी किया था और अपने प्रेमी का भी. इसीलिए एक की जगह दो बेटे जन्मे हैं.’’
“उस बेचारी पर इतना बड़ा दोष लगा दिया?”
“पर गुनिया की बात को कौन टालेगा. गांव का मुखिया कहने लगा कि रोपी को प्रायश्चित करना होगा. उसका नाम रोपी था. वह बेचारी रो-रोकर आधी रह गई.”
“फिर?”
“फिर ऐसा हुआ कि रोपी का एक बेटा मर गया. गांव का गुनिया कहने लगा कि जो बेटा मर गया वह पाप का बेटा था इसीलिए मर गया है.
“फिर?”
“रोपी ने एक दिन दूसरे बेटे को पालने में डाल दिया और थोड़ी दूर जाकर महुए के फूल डलियाने लगी. पास की झाड़ी से भागता हुआ एक हिरन आया. हिरन के पीछे शिकारी कुत्ता लगा हुआ था. शिकारी कुत्ता जब पालने के पास आया तो उसने हिरन का पीछा छोड़ दिया और पालने में पड़े हुए बच्चे को खा लिया.”
“बेचारी रोपी.”
“अब गांव का गुनिया कहने लगा कि जो पाप को बेटा था उसकी आत्मा हिरन की जून में चली गई. तभी तो हिरन भागता हुआ उस दूसरे बेटे को भी खाने के लिए पालने के पास आ गया.”
“पर बच्चे को हिरन ने तो कुछ नहीं कहा था. उसको तो शिकारी कुत्ते ने मार दिया था.’’
“गुनिए की बात को कोई नहीं समझ सकता बिटिया! वह कहने लगा कि पहले तो पाप की आत्मा हिरन में थी, फिर जल्दी से उस कुत्ते में चली गई. गुनिया लोग बात की बात में मरवा डालते हैं. बसाई का नन्दा जब शिकार करने गया था. तो उसका तीर किसी हिरन को नहीं लगा था. गुनिया ने कह दिया कि ज़रूर उसके पीछे उसकी औरत किसी ग़ैर मरद के साथ सोई होगी, तभी तो उसका तीर निशाने पर नहीं लगा. नन्दा ने घर आकर अपनी औरत को तीर से मार दिया.”
“गुनिया ने कार्तिक से कहा कि वह अपनी औरत को जान से मार डाले. नहीं मारेगा तो पाप की आत्मा उसके पेट से फिर जनम लेगी और उसका मुख देखकर गांव की खेतियां सूख जाएंगी.”
“फिर?”
कार्तिक अपनी औरत को मारने के के लिए सहमत न हुआ. इससे गुनिया भी भी नाराज़ हो गया और गांव के लोग भी.”
“गांव के लोग नाराज़ हो जाते हैं तो क्या करते हैं ?”
“लोग गुनिया से बहुत डरते हैं. सोचते हैं कि अगर गुनिया जादू कर देगा तो सारे गांव के पशु मर जाएंगे. इसलिए उन्होंने कार्तिक का हुक्का-पानी बंद कर दिया.’’
“पर वे यह नहीं सोचते थे कि अगर कोई इस तरह अपनी औरत को मार देगा तो वह ख़ुद ज़िन्दा कैसे बचेगा?”
“क्यों, उसको क्या होगा?”
“उसको पुलिस नहीं पकड़ेगी?”
“पुलिस नहीं पकड़ सकती. पुलिस तो तब पकड़ती है जब गांववाले गवाही देते हैं. पर जब गांववाले किसी को मारना ठीक समझते हैं तो पुलिस को पता नहीं लगने देते.”
“फिर क्या हुआ”
“बेचारी रोपी ने तंग आकर महुए के पेड़ से रस्सी बांध ली और अपने गले में डालकर मर गई.”
“बेचारी बेगुनाह रोपी!”
“गांववालों ने तो समझा कि ख़तम हो गई. पर मुझे मालूम था कि बात ख़त्म नहीं हुई. क्योंकि कार्तिक ने अपने मन में ठान लिया था कि वह गुनिया को जान से मार डालेगा. यह तो मुझे मालूम था कि गुनिया जब मर जाएगा तो मरकर राखस बनेगा.”
“वह तो जीते जी भी राक्षस था!”
“जानती हो राखस क्या होता है?’’
“क्या होता है?”
“जो आदमी दुनिया में किसी को प्रेम नहीं करता, वह मरकर अपने गांव के दरखतों पर रहता है. उसकी रूह काली हो जाती है, और रात को उसकी छाती से आग निकलती है. वह रात को गांव की लड़कियों को डराता है.”
“फिर?”
“मुझे उसके मरने का तो गम नहीं था. पर मैं जानती थी कि कार्तिक ने अगर उसको मार दिया तो गांव वाले कार्तिक को उसी दिन तीरों से मार देंगे.’’
“फिर ?”
“मैंने कार्तिक को कपिल धारा में खड़े होकर वचन दिया कि मैं उसकी औरत बनूंगी. हम दोनों इस देश से भाग जाएंगे. मैं जानती थी कि कार्तिक उस देश में रहेगा तो किसी दिन गुनिया को ज़रूर मार देगा. अगर वह गुनिया को मार देगा तो गांववाले उसको मार देंगे.”
“तो कार्तिक को बचाने के लिए तुमने अपना देश छोड़ दिया?”
“जानती हूं, वह धरती नरक होती है जहां महुआ नहीं उगता. पर क्या करती? अगर वह देश न छोड़ती तो कार्तिक ज़िन्दा न बचता और जो कार्तिक मर जाता तो वह धरती मेरे लिए नरक बन जाती. देश-देश इसके साथ घूमती रही. फिर हमारी रोपी भी हमारे पास लौट आई.”
“रोपी कैसे लौट आई?”
“हमने अपनी बिटिया का नाप रोपी रख दिया था. यह भी मैंने कपिल धारा में खड़े होकर अपने मन से वचन लिया था कि मेरे पेट से जब कभी कोई बेटी होगी, मैं उसका नाम रोपी रखूंगी. मैं जानती थी कि रोपी का कोई कसूर नहीं था. जब मैंने बिटिया का नाम रोपी रखा तो मेरा कार्तिक बहुत ख़ुश हुआ.”
“अब तो रोपी बहुत बड़ी होगी?”
“अरी बिटिया! अब तो रोपी के बेटे भी जवान होने लगे. बड़ा बेटा आठ बरस का है और छोटा बेटा छः बरस का. मेरी रोपी यहां के बड़े माली से ब्याही है. हमने दोनों बच्चों के नाम चुन्दरू-मुन्दरू रखे हैं.”
“वही नाम जो रोपी के बच्चों के थे?”
“हां, वही नाम रखे हैं. मैं जानती हूं, उनमें से कोई भी पाप का बच्चा नहीं था.”
मैं कितनी देर केतकी के चेहरे की तरफ़ देखती रही.
कार्तिक की वह कहानी जो किसी गुनिए ने अपने निर्दयी हाथों से उधेड़ दी थी, केतकी अपने मन के सुच्चे रेशमी धागे से उस उधड़ी हुई कहानी को फिर से सी रही थी.
यह एक कहानी की बात है. और मुझे भी मालूम नहीं, आपको भी मालूम नहीं कि दुनिया के ये ‘गुनिए’ दुनिया की कितनी कहानियों को रोज़ उधेड़ते हैं.

Illustration: Pinterest

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