एक चीनी फेरी वाले की करुण कथा, जो लेखिका महादेवी वर्मा को भाई जैसा प्यारा हो गया था. क्या कुछ हुआ उनके इस चीनी भाई के साथ, जानने के लिए ज़रूर पढ़ें उसकी दर्दभरी कहानी.
मुझे चीनियों में पहचान कर स्मरण रखने योग्य विभिन्नता कम मिलती है. कुछ समतल मुख एक ही सांचे में ढले से जान पड़ते हैं और उनकी एकरसता दूर करने वाली, वस्त्र पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी नाक की गठन में भी विशेष अंतर नहीं दिखाई देता.
कुछ तिरछी अधखुली और विरल भूरी बरूनियों वाली आंखों की तरल रेखाकृति देख कर भ्रांति होती है कि वे सब एक नाप के अनुसार किसी तेज़ धार से चीर कर बनाई गई हैं. स्वाभाविक पीतवर्ण धूप के चरण चिह्नों पर पड़े हुए धूल के आवरण के कारण कुछ ललछौंहे सूखे पत्ते की समानता पर लेता है. आकार प्रकार वेशभूषा सब मिल कर इन दूर देशियों को यंत्र चालित पुतलों की भूमिका दे देते हैं, इसी से अनेक बार देखने पर भी एक फेरी वाले चीनी को दूसरे से भिन्न कर के पहचानना कठिन है.
पर आज उन मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे आर्द्र नीलिमामयी आंखों के साथ एक मुख स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है,’हम कार्बन की कापियां नहीं हैं. हमारी भी एक कथा है. यदि जीवन की वर्णमाला के संबंध में तुम्हारी आंखें निरक्षर नहीं तो तुम पढ़ कर देखो न!’
कई वर्ष पहले की बात है मैं तांगे से उतर कर भीतर आ रही थी कि भूरे कपड़े का गठ्ठर बाएं कंधे के सहारे पीठ पर लटकाए हुए और दाहिने हाथ में लोहे का गज घुमाता हुआ चीने फेरी वाला फाटक के बाहर आता हुआ दिखा. संभवत: मेरे घर को बंद पाकर वह लौटा जा रहा था. ‘कुछ लेगा मेमसाहब!’ दुर्भाग्य का मारा चीनी! उसे क्या पता कि वह संबोधन मेरे मन में रोष की सबसे तुंग तरंग उठा देता है. मइया, माता, जीजी, दिदिया, बिटिया आदि न जाने कितने संबोधनों से मेरा परिचय है और सब मुझे प्रिय हैं, पर यह विजातीय संबोधन मानो सारा परिचय छीन कर मुझे गाउन में खड़ा कर देता है. इस संबोधन के उपरांत मेरे पास से निराश होकर न लौटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है.
मैने अवज्ञा से उत्तर दिया-मैं फ़ॉरन (विदेशी) नहीं ख़रीदती.
‘हम क्या फ़ारन है? हम तो चाइना से आता है.’ कहने वाले के कंठ में सरल विस्मय के साथ उपेक्षा की चोट से उत्पन्न क्षोभ भी था. इस बार रुक कर उत्तर देने वाले को ठीक से देखने की इच्छा हुई. धूल से मटमैले सफ़ेद किरमिच के जूते में छोटे पैर छिपाए, पतलून और पाजामे का सम्मिश्रित परिणाम जैसा पाजामा और कुर्ता तथा कोट की एकता के आधार पर सिला कोट पहने, उधड़े हुए किनारों से पुरानेपन की घोषणा करते हुए हैट से आधा माथा ढके दाढ़ी मूछ विहीन दुबली नाटी जो मूर्ति खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी है. उसे सबसे अलग कर के देखने का प्रश्न जीवन में पहली बार उठा.
मेरी उपेक्षा से उस विदेशी को चोट पहुंची, यह सोच कर मैंने अपनी नहीं को और अधिक कोमल बनाने का प्रयास किया,’मुझे कुछ नहीं चाहिए भाई.’ चीनी भी विचित्र निकला,’हमको भाय बोला है, तुम ज़रूर लेगा, ज़रूर लेगा-हां?’
होम करते हाथ जला वाली कहावत हो गई. विवश होकर कहना पड़ा,’देखूं, तुम्हारे पास है क्या.’ चीनी बरामदे में कपड़े का गठ्ठा उतारता हुआ कह चला,’भोत अच्छा सिल्क आता है सिस्तर! चाइना सिल्क क्रेप. . .’ बहुत कहने सुनने के उपरांत दो मेज़पोश ख़रीदना आवश्यक हो गया. सोचा-चलो छुट्टी हुई, इतनी कम बिक्री होने के कारण चीनी अब कभी इस ओर आने की भूल न करेगा.
पर कोई पंद्रह दिन बाद वह बरामदे में अपनी गठरी पर बैठ कर गज को फ़र्श पर बजा-बजा कर गुनगुनाता हुआ मिला. मैंने उसे कुछ बोलने का अवसर न दे कर, व्यस्त भाव से कहा,’अब तो मैं कुछ न लूंगी. समझे?’ चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से बोला,’सिस्तर आपका वास्ते ही लाता है, भोत बेस्त सब सेल हो गया. हम इसको पाकेट में छिपा के लाता है.’
देखा-कुछ रूमाल थे ऊदी रंग के डोरे भरे हुए, किनारों का हर घुमाव और कोनों में उसी रंग से बने नन्हें फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी चीनी नारी की कोमल उंगलियों की कलात्मकता ही नहीं व्यक्त कर रही थी, जीवन के अभाव की करुण कहानी भी कह रही थी. मेरे मुख के निषेधात्मक भाव को लक्ष्य कर अपनी नीली रेखाकृत आंखों को जल्दी-जल्दी बंद करते और खोलते हुए वह एक सांस में ‘सिस्तर का वास्ते लाता है, सिस्तर का वास्ते लाता है!’ दोहराने लगा.
मन में सोचा, अच्छा भाई मिला है! बचपन में मुझे लोग चीनी कह कर चिढ़ाया करते थे. संदेह होने लगा, उस चिढ़ाने में कोई तत्व भी रहा होगा. अन्यथा आज एक सचमुच का चीनी, सारे इलाहाबाद को छोड़ कर मुझसे बहन का संबंध क्यों जोड़ने आता! पर उस दिन से चीनी को मेरे यहां जब तब आने का विशेष अधिकार प्राप्त हो गया है. चीन का साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी कला के संबंध में विशेष अभिरुचि रखता है इसका पता भी उसी चीनी की परिष्कृत रुचि में मिला.
नीली दीवार पर किस रंग के चित्र सुंदर जान पड़ते हैं, हरे कुशन पर किस प्रकार के पक्षी अच्छे लगते हैं, सफ़ेद पर्दे के कोने में किस बनावट के फूल पत्ते खिलेंगे आदि के विषय में चीनी उतनी ही जानकारी रखता था, जितनी किसी अच्छे कलाकार से मिलेगी. रंग से उसका अति परिचय यह विश्वास उत्पन्न कर देता था कि वह आंखों पर पट्टी बांध देने पर भी केवल स्पर्श से रंग पहचान लेगा.
चीन के वस्त्र, चीन के चित्र आदि की रंगमयता देखकर भ्रम होने लगता है कि वहां की मिट्टी का हर कण भी इन्हीं रंगों से रंगा हुआ न हो. चीन देखने की इच्छा प्रकट करते ही ‘सिस्तर का वास्ते हम चलेगा’ कहते-कहते चीनी की आंखों की नीली रेखा प्रसन्नता से उजली हो उठती थी.
अपनी कथा सुनाने के लिए वह विशेष उत्सुक रहा करता था. पर कहने सुनने वाले की बीच की खाई बहुत गहरी थी. उसे चीनी और बर्मी भाषाएं आती थीं, जिनके संबंध में अपनी सारी विद्या बुद्धि के साथ मैं ‘आंख के अंधे नाम नयनसुख’ की कहावत चरितार्थ करती थी. अंग्रज़ी की क्रियाहीन संज्ञाओं और हिंदुस्तानी की संज्ञाहीन क्रियाओं के सम्मिश्रण से जो विचित्र भाषा बनती थी, उसमें कथा का सारा मर्म बंध नहीं पाता था. पर जो कथाएं हृदय का बांध तोड़ कर दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती हैं, प्राय: करुण होती हैं और करुणा की भाषा शब्दहीन रह कर भी बोलने में समर्थ है. चीनी फेरीवाले की कथा भी इसका अपवाद नहीं.
जब उनके माता पिता ने माडले (बर्मा) आकर चाय की छोटी दुकान खोली तब उसका जन्म नहीं हुआ था. उसे जन्म देकर और सात वर्ष की बहन के संरक्षण में छोड़ कर जो परलोक सिधारी उस अनदेखी मां के प्रति चीनी की श्रद्धा अटूट थी.
संभवत: मां ही ऐसी प्राणी है जिसे कभी न देख पाने पर भी मनुष्य ऐसे स्मरण करता है जैसे उसके संबंध में जानना बाक़ी नहीं. यह स्वाभाविक भी है.
मनुष्य को संसार में बांधने वाला विधाता माता ही है इसी से उसे न मान कर संसार को न मानना सहज है. पर संसार को मानकर उसे मानना असंभव ही रहता है.
पिता ने जब दूसरी बर्मी चीनी स्त्री को गृहणी पद पर अभिषिक्त किया तब उन मातृहीनों की यातना की कठोर कहानी आरंभ हुई. दुर्भाग्य इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सका क्यों कि उसके पांचवें वर्ष में पैर रखते-रखते एक दुर्घटना में पिता ने भी प्राण खोए.
अब अबोध बालकों के समान उसने सहज ही अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया पर बहन और विमाता में किसी प्रस्ताव को लेकर जो वैमनस्य बढ़ रहा था वह इस समझौते को उत्तरातर विषाक्त बनाने लगा. किशोरी बालिका की अवज्ञा का बदला उसको नहीं उसके अबोध भाई को कष्ट देकर भी चुकाया जाता था. अनेक बार उसने ठिठुरती हुई बहन की कंपित उंगलियों में अपना हाथ रख उसके मलिन वस्त्रों में अपने आंसुओं से धुला मुख किया और उसी की छोटी-सी गोद में सिमट कर भूख भुलाई थी. कितनी ही बार सवेरे आंख मूंद कर बंद द्वार के बाहर दीवार से टिकी हुई बहन को ओस से गीले बालों में अपनी ठिठुरती हुई उंगलियों को गर्म करने का व्यर्थ प्रयास करते हुए उसने पिता के पास जाने का रास्ता पूछा था. उत्तर में बहन के फीके गाल पर चुपचाप ढुलक आने वाले आंसू की बड़ी बूंद देख कर वह घबरा कर बोल उठा था,‘उसे कहवा नहीं चाहिए, वह तो पिता को देखना भर चाहता है.’
कई बार पड़ोसियों के यहां रकाबियां धोकर और काम के बदले भात मांग कर बहन ने भाई को खिलाया था. व्यथा की कौन-सी अंतिम मात्रा ने बहन के नन्हें हृदय का बांध तोड़ डाला, इसे अबोध बालक क्या जाने पर एक रात उसने बिछौने पर लेट कर बहन की प्रतीक्षा करते-करते आधी आंख खोली और विमाता को कुशल बाज़ीगर की तरह मैली कुचैली बहन का काया पलट करते हुए देखा. उसके सूखे होंठों पर विमाता की मोटी उंगली ने दौड़-दौड़ कर लाली फेरी, उसके फीके गालों पर चौड़ी हथेली ने घूम-घूम कर सफ़ेद गुलाबी रंग भरा, उसके रुखे बालों को कठोर हाथों ने घेरे-घेर कर संवारा और तब नए रंगीन वस्त्रों में सजी हुई उस मूर्ति को एक प्रकार से ठेलती हुई विमाता रात के अंधकार में बाहर अंतरनिहित हो गई.
बालक का विस्मय भय में बदल गया और भय ने रोने में शरण पाई. कब वह रोते-रोते सो गया इसका पता नहीं, पर जब वह किसी के स्पर्श से जागा तो बहन उस गठरी बने हुए भाई के मस्तक पर मुख रख कर सिसकियां रोक रही थी. उस दिन उसे अच्छा भोजन मिला दूसरे दिन कपड़े तीसरे दिन खिलौने-पर बहन के दिनों-दिन विवर्ण होने वाले होंठों पर अधिक गहरे रंग की आवश्यकता पड़ने लगी, उसके उत्तरोतर फीके पड़ने वाले गालों पर देर तक पाउडर मला जाने लगा.
बहन के छीजते शरीर और घटती शक्ति का अनुभव बालक करता था, पर वह किससे कहे, क्या करे, यह उसकी समझ के बाहर की बात थी. बार-बार सोचता था पिता का पता मिल जाता तो सब ठीक हो जाता. उसके स्मृति पट पर मां की कोई रेखा नहीं परंतु पिता का जो अस्पष्ट चित्र अंकित था उनके स्नेहशील होने में संदेह नहीं रह जाता. प्रतिदिन निश्चित करता कि दुकान में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पिता का पता पूछेगा और एक दिन चुपचाप उनके पास पहुंचेगा और उसी तरह चुपचाप उन्हें घर लाकर खड़ा कर देगा-तब यह विमाता कितनी डर जाएगी और बहन कितनी प्रसन्न होगी.
चाय की दुकान का मालिक अब दूसरा था, परंतु पुराने मालिक के पुत्र के साथ उसके व्यवहार में सहृदयता कम नहीं रही, इसीसे बालक एक कोने में सिकुड़ कर खड़ा हो गया और आने वालों से हकला-हकला कर पिता का पता पूछने लगा. कुछ ने उसे आश्चर्य से देखा, कुछ मुस्करा दिए, पर एक दो ने दुकानदार से कुछ ऐसी बात कही जिससे वह बालक को हाथ पकड़ कर बाहर ही छोड़ आया. इस भूल की पुनरावृत्ति होने पर विमाता से दंड दिलाने की धमकी भी दे गया. इस प्रकार उसकी खोज का अंत हो गया.
बहन का संध्या होते ही कायापलट, फिर उसका आधी रात बीत जाने पर भारी पैरों से लौटना, विशाल शरीर वाली विमाता का जंगली बिल्ली की तरह हल्के पैरों से बिछौने से उछल कर उतर आना, बहन के शिथिल हाथों से बटुए का छिन जाना और उसका भाई के मस्तक पर मुख रख कर स्तब्ध भाव से पड़े रहना आदि क्रम ज्यों के त्यों चलते रहे.
पर एक दिन बहन लौटी ही नहीं. सवेरे विमाता को कुछ चिंतित भाव से उसे खोजते देख बालक सहसा किसी अज्ञात भय से सिहर उठा. बहन-उसकी एकमात्र आधार बहन! पिता का पता न पा सका और अब बहन भी खो गई. जैसा था वैसा ही बहन को खोजने के लिए गली-गली में मारा-मारा फिरने लगा. रात में वह जिस रूप में परिवर्तित हो जाती उसमें दिन को उसे पहचान सकना कठिन था इससे वह जिसे अच्छे कपड़े पहने हुए जाती देखता उसके पास पहुंचने के लिए सड़क के एक ओर से दूसरी ओर दौड़ पड़ता. कभी किसी से टकरा कर गिरते-गिरते बचता, कभी किसी से गाली खाता, कभी कोई दया से प्रश्न कर बैठता,‘क्या इतना ज़रा-सा लड़का भी पागल हो गया है?’
इसी प्रकार भटकता हुआ वह गिरहकटों के गिरोह के हाथ लगा और तब उसकी शिक्षा आरंभ हुई. जैसे लोग कुत्ते को दो पैरों से बैठना, गर्दन ऊंची कर खड़ा होना, मुंह पर पंजे रख कर सलाम करना आदि क़रतब सिखाते हैं उसी तरह वे सब उसे तंबाकू के धुएं और दुर्गंध मांस से भरे और फटे चीथड़े, टूटे बर्तन और मैले शरीर से बसे हुए कमरे में बंद कर कुछ विशेष संकेतों और हंसने रोने के अभिनय में पारंगत बनाने लगे.
कुत्ते के पिल्ले के समान ही वह घुटनों के बल खड़ा रहता और हंसने रोने की विविध मुद्राओं का अभ्यास करता. हंसी का स्त्रोत इस प्रकार सूख चुका था कि अभिनय में भी वह बार-बार भूल करता और मार खाता. पर क्रंदन उसके भीतर इतना अधिक उमड़ा रहता था कि ज़रा मुंह के बनाते ही दोनों आंखों से दो गोल-गोल बूंदें नाक के दोनों ओर निकल आतीं और पतली समानांतर रेखा बनाती और मुंह के दोनों सिरों को छूती हुई ठुड्डी के नीचे तक चली जातीं. इसे अपनी दुर्लभ शिक्षा का फल समझ कर रोओं से काले उदर पर पीला-सा रंग बांधने वाला उसका शिक्षक प्रसन्नता से उठ कर उसे लात जमा कर पुरस्कार देता.
वह दल बर्मी, चीनी, स्यामी आदि का सम्मिश्रण था. इसी से ‘चोरों की बारात में अपनी अपनी होशियारी’ के सिद्धांत का पालन बड़ी सतर्कता से हुआ करता. जो उसपर कृपा रखते थे उनके विरोधियों का स्नेहपात्र होकर पिटना भी उसका परम कर्तव्य हो जाता था. किसी की कोई वस्तु खोते ही उस पर संदेह की ऐसी दृष्टि आरंभ होती कि बिना चुराए ही वह चोर के समान कांपने लगता और तब उस ‘चोर के घर छिछोर’ की जो मरम्मत होती कि उसका स्मरण कर के चीनी की आंखें आज भी व्यथा और अपमान से भक भक जलने लगती थीं.
सबके खाने के पात्र में बचा उच्छिष्ट एक तामचीनी के टेढ़े बर्तन में सिगार से जगह जगह जले हुए काग़ज़ से ढक कर रख दिया जाता था जिसे वह हरी आंखों वाली बिल्ली के साथ खाता था.
बहुत रात गए तक उसके नरक के साथी एक-एक कर आते रहते और अंगीठी के पास सिकुड़ कर लेटे हुए बालक को ठुकराते हुए निकल जाते. उनके पैरों की आहट को पढ़ने का उसे अच्छा अभ्यास हो चला था. जो हल्के पैरों को जल्दी-जल्दी रखता आता है उसे बहुत कुछ मिल गया है. जो शिथिल पैरों को घसीटता हुआ लौटता वह खाली हाथ है. जो दीवार को टटोलता हुआ लड़खड़ाते पैरों से बढ़ता वह शराब में सब खोकर बेसुध आया है. जो दहली से ठोकर खाकर धम धम पैर रखता हुआ घुसता है उसने किसी से झगड़ा मोल ले लिया है आदि का ज्ञान उसे अनजान में ही प्राप्त हो गया था.
यदि दीक्षांत संस्कार के उपरांत विद्या के उपयोग का श्रीगणेश होते ही उसकी भेंट पिता के परिचित एक चीनी व्यापारी से नहीं हो जाती तो इस साधना से प्राप्त विद्वत्ता का अंत क्या होता यह बताना कठिन है. पर संयोग ने उसके जीवन की दिशा को इस प्रकार बदल दिया कि वह कपड़े की दुकान पर व्यापारी की विद्या सीखने लगा.
प्रशंसा का पुल बांधते-बांधते वर्षो पुराना कपड़ा सबसे पहले उठा लाना, गज़ से इस तरह नापना कि जो रत्ती बराबर भी आगे न बढे, चाहे अंगुल भर पीछे रह जाए. रुपए से ले के पाई तक को ख़ूब देख भाल कर लेना और लौटाते समय पुराने, खोटे पैसे विशेष रूप से खनखा-खनका कर दे डालना आदि का ज्ञान कम रहस्यमय नहीं था. पर मालिक के साथ भोजन मिलने के कारण बिल्ली के उच्छिष्ट सहभोज की आवश्यकता नहीं रही और दुकान में सोने की व्यवस्था होने से अंगीठी के पास ठोकरों से पुरस्कृत होने की विशेषता जाती रही. चीनी छोटी अवस्था में ही समझ गया था कि धन संचय से संबंध रखने वाली सभी विद्याएं एक-सी हैं, पर मनुष्य किसी का प्रयोग प्रतिष्ठापूर्वक कर सकता है और किसी का छिपा कर.
कुछ अधिक समझदार होने पर उसने अपनी अभागी बहन को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उसका पता न पा सका. ऐसी बालिकाओं का जीवन ख़तरे से ख़ाली नहीं रहता. कभी वे मूल्य देकर ख़रीदी जाती हैं और कभी बिना मूल्य के ग़ायब कर दी जाती हैं. कभी वे निराश हो कर आत्महत्या कर लेती हैं और कभी शराबी ही नशे में उन्हें जीवन से मुक्त कर देते हैं. उस रहस्य की सूत्रधारिणी विमाता भी संभवत: पुर्नविवाह कर किसी और को सुखी बनाने के लिए कहीं दूर चली गई थी. इस प्रकार उस दिशा में खोज का मार्ग ही बंद हो गया.
इसी बीच में मालिक के काम से चीनी रंगून आया फिर दो वर्ष कलकत्ता में रहा और अन्य साथियों के साथ उसे इसी ओर आने का आदेश मिला. यहां शहर में एक चीनी जूते वाले के घर ठहरा है और सवेरे आठ से बारह और दो से छे बजे तक फेरी लगा कर कपड़े बेचता रहता है.
चीनी की दो इच्छाएं हैं, ईमानदार बनने की और बहन को ढूंढ़ लेने की- जिनमें से एक की पूर्ति तो स्वयं उसी के हाथ में है और दूसरी के लिए वह प्रतिदिन भगवान बुद्ध से प्रार्थना करता है.
बीच-बीच में वह महीनों के लिए बाहर चला जाता था, पर लौटते ही ‘सिस्तर का वास्ते ई लाता है’ कहता हुआ कुछ लेकर उपस्थित हो जाता. इस प्रकार देखते-देखते मैं इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि जब एक दिन वह ‘सिस्तर का वास्ते’ कह कर और शब्दों की खोज करने लगा तब मैं उसकी कठिनाई न समझ कर हंस पड़ी. धीर-धीरे पता चला-बुलावा आया है, यह लड़ने के लिए चाइना जाएगा. इतनी जल्दी कपड़े कहां बेचे और न बेचने पर मालिक को हानि पहुंचा कर बेइमान कैसे बने? यदि मैं उसे आवश्यक रुपया देकर सब कपड़े ले लूं, तो वह मालिक का हिसाब चुका कर तुरंत देश की ओर चल दे.
किसी दिन पिता का पता पूछे जाने पर वह हकलाया था-आज भी संकोच से हकला रहा था. मैंने सोचने का अवकाश पाने के लिए प्रश्न किया,‘तुम्हारे तो कोई है ही नहीं, फिर बुलावा किसने भेजा?’ चीनी की आंखें विस्मय से भर कर पूरी खुल गईं,‘हम कब बोला हमारा चाइना नहीं है? हम कब ऐसा बोला सिस्तर?’ मुझे स्वयं अपने प्रश्न पर लज्जा आई, उसका इतना बड़ा चीन रहते वह अकेला कैसे होगा!
मेरे पास रुपया रहना ही कठिन है, अधिक रुपए की चर्चा ही क्या! पर कुछ अपने पास खोज ढूंढ़ कर और कुछ दूसरों से उधार लेकर मैंने चीनी के जाने का प्रबंध किया. मुझे अंतिम अभिवादन कर जब वह चंचल पैरों से जाने लगा, तब मैंने पुकार कर कहा,‘यह गज तो लेते जाओ!’ चीनी सहज स्मित के साथ घूमकर ‘सिस्तर का वास्ते’ ही कह सका. शेष शब्द उसके हकलाने में खो गए.
और आज कई वर्ष हो चुके हैं-चीनी को फिर देखने की संभावना नहीं. उसकी बहन से मेरा कोई परिचय नहीं, पर न जाने क्यों वे दोनों भाई बहन मेरे स्मृतिपट से हटते ही नहीं.
चीनी की गठरी में से कई थान मैं अपने ग्रामीण बालकों के कुर्ते बना-बना कर ख़र्च कर चुकी हूं परंतु अब भी तीन थान मेरी अलमारी में रखे हैं और लोहे का गज दीवार के कोने में खड़ा है. एक बार जब इन थानों को देख कर एक खादी भक्त बहन ने आक्षेप किया था-जो लोग बाहर विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं वे भी विदेशी रेशम के थान ख़रीद कर रखते है, इसी से तो देश की उन्नति नहीं होती-तब मैं बड़े कष्ट से हंसी रोक सकी.
वह जन्म का दुखियारा मातृ पितृ हीन और बहन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह के एकमात्र आधार चीन में पहुंचने का आत्मतोष पा गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं-पर मेरा मन यही कहता है.
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