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यादें: कहानी पुराने दुख-सुख की (लेखक: भीष्म साहनी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 2, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Bhishm-Sahani_Stories
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दो बूढ़ी महिलाएं लंबे समय बाद मिलती हैं. बातचीत की सिरा यहां से वहां भटकते रहता है. वे पुरानी बातों को याद करती हैं, पुराने दुख-सुख की यादें कुछ समय के लिए उनके मौजूदा दुख को भुला देती हैं.

ऐनक के बावजूद लखमी को धुंधला-धुंधला नजर आया. कमर पर हाथ रखे, वह देर तक सड़क के किनारे खड़ी रही. यहां तक तो पहुंच गई, अब आगे कहां जाय, किससे पूछे, क्या करे? सर्दी के मौसम को दोपहर ढलते देर नहीं लगती. अंधेरा हो गया, तो वह कहीं की नहीं रहेगी. इतने में दाईं ओर से एक धूमिल-सा पुंज उसकी ओर बढ़ता नजर आया, जो आगे बढ़ता जाता, और कुछ-कुछ स्पष्ट होता जाता था. कोई आदम है. इससे पूछ देखूं? परन्तु पुरुष की वह धूमिल-सी काया ऐन उसके सामने पहुंच कर, एक मकान की ओर घूम गई.
‘वीर जी, सुनो तो, बेटा…बाबू बनारसीदास का मकान कहां है?’
आदमी ठिठक गया. क्षण भर उसकी आंखें जर्जर बुढ़िया पर टिकी रहीं. फिर वह आगे बढ़ आया.
‘चाची लखमी?’
‘हाय, बच्चा, तूने मुझे झट से पहचान लिया. तू मेरी गोमा का बेटा है. तू मेरा रामलाल है न?’
और पतला हड़ियल हाथ उस आदमी के कंधे और चेहरे को सहलाने लगा.
‘हाय, मैंने अच्छे करम किए थे, जो तू मिल गया. मैं कहूं, अभी अंधेरा हो गया, तो मैं कहां मारी-मारी फिरूंगी? मेरे दिल को ठंड पड़ गई, बच्चा राजी-खुशी हो? महाराज तुम्हें सलामत रखे.’
बुढ़िया सिर ऊंचा उठा कर, बचे-खुचे दो दांतों से मुस्कराती, असीसें देने लगी.
‘सरीरों के लेखे, बेटा, दुनिया से जाने का वक्त आ गया. मैंने कहा, आंख रहते एक बार अपनी गोमा को तो देख लूं. कौन जाने, नसीब में फिर मिलना हो या न हो.’ फिर कमर पर हाथ रख कर, बड़े आग्रह से बोलीमुझे उसके पास ले चल, बेटा. घण्टे भर से यहां भटक रही हूं. कोई पूछने वाला नहीं. मैं कहूं, मिले बगैर तो मैं जाऊंगी नहीं.’
हाथ का सहारा दिये, रामलाल बुढ़िया को अंदर ले चला.
‘अरी गोमा, कहां छिपी बैठी है? देख तो, कौन आया है?’ घर के अंदर कदम रखते हुए, चाची लखमी बत्तख की तरह किकियायी, और खिलखिला कर हंस पड़ी.
‘कुछ नजर नहीं आता, बच्चा. आंखों में मोतियाबिंद हो गया है. एक आंख मारी गई है. सारे वक्त लगता है, धूल उड़ रही है.’
बुढ़िया सांस लेने के लिये रुकी. फिर रास्ता टटोलती,
धीरे-धीरे बराम्दा पार करने लगी. ‘डॉक्टर नरसिंगदास ने आंखों का ऑपरेशन किया. एक आंख ही मारी गई. मैंने कहा, चल माना, एक तो बच गई. भला हो डॉक्टर का, एक तो छोड़ दी. दोनों फोड़ देता, तो मैं कुछ कर सकती थी बेटा? आगे की क्या खबर? क्या मालूम, कल ही अंधी हो जाऊं? मैंने सोचा, आंख रहते तो अपनी गोमा को जरूर देख आऊंगी.’
बुढ़िया धीरे-धीरे चलती, कहीं अंधकार और कहीं प्रकाश के पुंजों को लांघती हुई, आगे बढ़ने लगी.
‘अरी गोमा, देख तो, तुझसे कौन मिलने आया है. मक्कर साधे कहां बैठी है?’
अपने आगमन की स्वयं सूचना देते हुए, चाची लखमी किकियायी, और फिर हंसने लगी. उसकी आवाज मकान के कमरों में से गूंज कर लौट आई. कोई जवाब नहीं आया.
‘बालकराम सेठी की सलिहाज है न. बेचारी बड़ी अच्छी है. मुझे टांगे पर बिठाकर यहां तक छोड़ गई. मैं परबस जो हुई, बेटा. बूढ़ा आदमी परबस हो जाता है.’
रामलाल ने बुढ़िया को रसोईघर की बगल में एक छोटी-सी कोठरी के सामने ला कर खड़ा कर दिया, और पांव की ठोकर से दरवाजा खोल दिया.
कोठरी में घुप्प अंधेरा था. रामलाल ने आगे बढ़ कर, बिजली का बटन दबाया. एक अंधा-सा बल्ब टिमटिमाने लगा.
‘अरी गोमा, मचली बनी बैठी है? बोलती क्यों नहीं?’
कोठरी की सामने वाली दीवार के सहारे एक बूढ़ी औरत खाट पर से पांव लटकाये बैठी थी. पर वह लखमी को अभी तक नजर नहीं आई. कोठरी में खाट के पायताने के साथ जुड़ा हुआ एक कमोड रखा था, और साथ में एक टीन का डिब्बा. बुढ़िया ने एक पटरे पर पांव रखे थे. टांगों पर, जो सूजन के कारण बोझिल हो रही थीं, दो-दो जोड़े फटे मोजों के बढ़े थे. कोठरी में से पेशाब, मैंले कपड़ों और बुढ़ापे की गंध आ रही थी. इन लोगों के अंदर आ जाने पर, दो चूहे जो बुढ़िया की खाट पर ऊधम मचा रहे थे, भाग कर अपने बिलों में घुस गए.
‘कौन है?’ धीमी-सी आवाज आई.
‘पहचान तो, कौन है?’ लखमी बोली.
बुढ़िया चुप रही. फिर सहसा घुटनों पर से दोनों हाथ उठा कर, आगे की ओर बढ़ाते हुए बोली’आवाज तो लखमी की लगती है. लखमी, तू आई है?’
‘और कौन होगा?’
अंधे बल्ब की रोशनी में लखमी की आंख के सामने गोमा का आकार उभरने में काफी देर लगी. स्थूल देह, उलझे हुए इने-गिने सफेद बाल, चौड़ा झुर्रियों-भरा चेहरा, जिसमें से दो कांतिहीन आंखें सामने की ओर देखे जा रही थीं.
लखमी के कांपते हाथ हवा को टटोलते हुए, गोमा के
कंधों तक जा पहुंचे. और दोनों स्त्रियां एक-दूसरे से चिपट गयीं.
जब अलग हुई, तो देर तक अपने दुपट्टों में नाक सुड़कती, और आंखें पोंछती रहीं. रामलाल ने आगे बढ़ कर, कोने में रखा एक पीढ़ा उठाया, और मां की खाट के सामने रख दिया.
‘बैठो, चाची!’ और लखमी को दोनों कंधों से पकड़ कर, धीरे से पीढ़े पर बिठा दिया.
‘मैं उठ नहीं सकती, लखमी. खाट के साथ जुड़ी हूं. तू देख ही रही है. जाना मुझे था, चले वह गए. मेरा धागा लम्बा है. जल्दी टूटता नजर नहीं आता. पिछले काम अभी भोगने बाकी हैं.’
दोनों औरतें देर तक आमने-सामने बैठी, दुपट्टों में सिसकती रहीं.
‘मैं कहती हूं, हे भगवान, अब तुझे मुझ से क्या लेना है? इतनी बड़ी दुनिया है तेरी. मुझे यहां तेरा कौन-सा काम करना रह गया है? तू मुझे संभाल क्यों नहीं लेता. पर नहीं, वह नहीं सुनता. तब मैं कहती हूं, अच्छा, कर ले जो करना चाहता है. कभी तो मुझ पर तरस खायेगा.’
लखमी ने मुंह पर से दुपट्टा हटाते हुए कहा’जब से दिल्ली आई हूं, दिल तड़पता रहा है, कि कब गोमा से मिलूंगी, कब गोमा से मिलूंगी.’
देर तक दोनों औरतें सिर हिलाती और आहें भरती रहीं. फिर गोमा अपने बेटे की ओर सिर घुमा कर बोली’बेटा, लखमी तेरी चाची है. पहचाना इसे, या नहीं?’
इस पर लखमी हुमक कर बोल उठी’हाय, इसी ने तो मुझे पहचाना. मैं अंधी क्या पहचानूंगी? यही तो मुझे अंदर लाया.’
‘मैंने झट पहचान लिया, मां. कुशल्या के ब्याह पर मिली थी. बहुत मुद्दत हो गई.’
‘बेटा, लखमी के साथ मैंने बड़े अच्छे दिन बिताये हैं.’
‘इसे क्या मालूम? यह तब पैदा ही कहां हुआ था?’
रामलाल के बाल कनपटियों पर सफेद हो रहे थे, और एक छोटी-सी गोल-मटोल तोंद पतलून की पेटी में कसी, बाहर निकलने के लिये हांफ रही थी. अपनी बलगामी खांसी के कारण रामलाल सारे वक्त मुंह से सांस लेता था.
‘उस वक्त तेरी गोद में शामा थी, और मेरी विद्या बस यही चार पांच साल की रही होगी. क्यों, लखमी?’
‘हाय, विद्या मेरी आंखों के सामने आ गईबिलकुल गुड़िया जैसी. कैसी खिडुली थी.’कहते हुए, लखमी दुपट्टे के छोटे से फिर आंखें पोंछने लगी.
‘कोई किस-किस को याद करें? तेरी सुरसती किसी से कम थी? यों हंसती-हंसती चली गई. शामा किसी से कम थी?’
‘छोटी कहां है?’
‘वह जालन्धर में रहती है. वहां उसका घरवाला नौकरी करता है.’
‘उसका भी घर-बाहर अब भरा-पूरा होगा?’
‘उसके घर दो बेटे, दो बेटियां हैं.’
‘अच्छा है, सुख से रहें! भगवान अपनी दया बनाये रखें.’
गोमा ने फिर अपने बेटे की ओर मुंह फेरा. ‘बेटा, हमने बड़े अच्छे दिन बिताये हैं. गली-मुहल्लेवालियां कहें, ‘अरी, तुम सगी बहिनें हो, रिश्ते की हो, कौन हो, जो तुम्हारा आपस में इतना प्यार है?’ मैं जवाब दूं, ‘हम बहिनें ही नहीं, बहिनों से भी ज्यादा हैं.’ खाट पर बैठी गोमा ने चहक कर कहा, और अपने सूखे झुर्रियों-भरे मुंह पर हाथ फेरने लगी. मानों हंसने से अकड़ी हुई झुर्रियां खुलने लगी हों.
‘हम एक ही घर में रहती थीं. एक तरफ मेरी रसोई थी, दूसरी तरफ इसकी. सामने आंगन में छोटा-सा कुआं था. पर हम सदा कुएं के पास बैठ कर रसोई करती थीं.’
कुएं की बात सुन कर, लखमी उचक कर बोली’ऐसा मीठा पानी था उसका, कि तुम्हें क्या बताऊं? छोटी-सी कुंई थीइतनी सी. बैठे-बैठे मैं उसमें से डोलची लटका कर, पानी निकाल लेती थी.’
बुढ़िया गोमा ने हाथ उठा कर, एक सूखी सफेद लट पीछे हटायी, जो उत्तेजना में माथे पर लुढ़क आई थी.
‘दोपहर को इसका मालिक बैंक से आता, और तेरे पिता जीस्वर्ग में बासा हो उनकादफ्तर से आते. खाना खाने बैठते, तो दोनों एक-दूसरे से कुश्तियां करते. खाना परोसने में थोड़ी-सी भी देर हो जाती, तो थालियां खनकाने लगते.’
गोमा फिर हंसने लगी. उसकी स्थूल देह थिरक-थिरक गई. हंसने पर उसकी छाती में से उठने वाली खर्र-खर्र की आवाज और ऊंची हो गई.
‘इधर उनके आने का वक्त होता, उधर हम भागती हुई रोटियां लगवाने चली जातीं. हमारे घर से तीन, गलियां छोड़ कर एक झूरी बैठती थी. क्या नाम था उसका लखमी?’
खाट पर से लटकती टांगें, जिन पर फटे हुए मोजे चढ़े थे, उत्साह से हिलने लगीं. फर्श पर एक कोने में एक चूहे ने बिल में से सिर निकाला, और इधर-उधर झांकने लगा.
‘बन्तो नाम था उसका. मर-खप गई होगी. अब कहां बैठी होगी? ‘बन्तो, बन्तो’ कह कर सभी बुलाते थे उसे.’
‘हां, बन्तो! हाय, कैसी आंखों के सामने आ गई है.’ रोज लखमी की और मेरी दौड़ लग जाती, कि तंदूर तक पहले कौन पहुंचती है. यह मुझ से ज्यादा फुर्तीली थी. तब भी बड़ी पतली थी. चंगेरे बगल में दबाये, हम ऐसी भागतीं, कि हवा से बातें करती जातीं. बन्तो कहती, ‘अरी, शरम बेच खायी है, जो गलियों में नंगे सिर भागती फिरती हो?’ गोमा कहे जा रही थी’यह हरे रंग की घंघरी पहनती थी, जिस के नीचे सफेद गोटा लगा रहता था. क्यों, लखमी? और मैं हमेशा काले-रंग की घंघरी पहनती थी. हम हंसती-बतियाती गली-गली जातीं, और सारे शहर का चक्कर लगा आती थीं. शहर का चक्कर लगा आती थीं.’ इस पर लखमी ने आगे झुक कर कहा’अरी गोमा, याद है, जब भागसुद्दी के घर से भांग पी आई थी?’ और दुपट्टे की ओट में अपने दो दांतों को छिपाती हुई हंसने लगी.
गोमा भी हंसने लगी. हंसते-हंसते गोमा को खांसी आ गई, और खांसी का दौरा देर तक उसे परेशान करता रहा. फिर आंखें पोंछ कर, लखमी की ओर उंगली से इशारा करते हुई, अपने बेटे से कहने लगी-’इसे हर वक्त शरारतें ही सूझती रहती थीं. इसी ने मुझे भांग पिलायी थी. चल, चुप रह, नहीं तो तेरा सारा पोल खोल दूंगी.’
लखमी मुंह पर हाथ रखे, बत्तख की तरह किकियाये जा रही थी.
‘यह मुझे भागसुद्दी के घर ले गई,’ गोमा कहने लगी’मुझ से बोली, ‘आ तुझे साग के पकौड़े खिलाऊं.’ मुझे क्या मालूम, कि उनमें क्या भरा था? खाने की देर थी, कि मैं तो तरह-तरह के तमाशे करने लगी. कभी गाती, कभी हाथ मटकाती. फिर मैं हंसने लगी. हंसने क्या लगी, कि मेरी हंसी रुके ही नहीं. हंसती ही जाती थी. मेरी हंसी यों भी एक बार शुरू हो जाय, तो बंद होने को नहीं आती थी. मुझे नहीं मालूम, कि मैं कब भागसुद्दी के घर से निकली. मुझे इतना याद है, कि मुझे गली में रुक्मणी मिली. रुक्मणी याद है, लखमी? वही ट्रंकों वाले शामलाल की घर वालीकहने लगी, ‘हाय री गोमा, तुझे क्या हो गया है? पागलों की तरह हंसे जा रही है?’ बस, जी, उसका यह कहना था, कि मेरी हंसी बंद हो गई. ‘हाय, मुझे क्या हो गया है? हाय, मुझे क्या हो गया है?’ मैं बोलने लगी. और अंदर-ही अंदर मेरा दिल गोते खाने लगा. ऐसी बुरी मेरी हालत हुई, कि तुम्हें क्या बताऊं? और इस सारी शरारत की जड़ तेरी यह चाची थी, जो तेरे सामने बैठी है.’
‘तू कौन-सी कम थी? नहले पर दहला थी. शेखों के खेत में से मूलियां कौन तोड़ता था? मुझ से न बुलवा, नहीं तो तेरे बेटे के सामने तेरी सारी करतूतें गिना दूंगी.’
‘बता दे, अब छिपा कर क्या करेगी?’ गोमा ने हंस कर कहा. फिर रस ले-लेकर सुनाने लगी’चौबीस घण्टे हम एक साथ रहती थीं. सवेरे मुंह-अंधेरे तालाब पर नहाने जातीं. कुछ नहीं, तो तीन मील दूर रहा होगा तालाब. फिर सतगुर की धर्मशाला में माथा टेकने जातीं. और साग-सब्ज ले कर पौ फटने तक घर भी पहुंच जातीं.’
रामलाल कभी एक के मुंह की ओर कभी दूसरी के मुंह की ओर देखता हुआ, सोच रहा था, कि ‘ये किन लोगों की चर्चा किए जा रही हैं? कौन थी वह, जो भागती हुई गलियां लांघ जाती थी, और हंसने लगती, तो हंसती ही जाती थी, हंसती ही जाती थी?’
चाची लखमी कुछ कहने जा रही थी, जब रामलाल बीच में बोल उठा’चाय पियोगी, चाची लखमी? चाय मंगवाऊं?’
‘हाय, क्यों नहीं पियूंगी? तेरे घर आकर चाय नहीं पियूंगी?’ कहते-कहते लखमी भाव-विह्वल हो उठी’तेरी तो राह देख-देख कर आंखें थक गई थीं हमारी. तुझे तो हमने तरस-तरस कर लिया है, बेटा. लाखों पर तेरी कलम हो! तूने हमें बहुत इंतजार करवाया. आ तो, तेरा मुंह चूम लूं. आ, मेरे बच्चे.’
लखमी उठ खड़ी हुई, और रास्ता टटोलती हुई, रामलाल की ओर बढ़ आई. फिर लार-सने होंठ कभी रामलाल के नाक को, कभी माथे को, कभी गालों को चूमने लगे. ‘तेरी मां ने कैसे-कैसे दिन देखे हैं, बेटा, तुझे क्या मालूम? चार बहिनों के बाद तू आया था. हर बार जब मेरी मां प्रसूत में होती, तो तेरा ताऊ बाहर खाट बिछा कर बैठ जाता, और हर बार गालियां बकता हुआ उठ जाया करता. बड़ा गुस्सैल आदमी था. एक-एक कर के चारों का दाना-पानी दुनिया से उठ गया. तब तू आया. सलामत रहो, बेटा! जुग-जुग जियो.’
रामलाल दीवार के साथ पीठ लगाये खड़ा, सिर हिलाता रहा. फिर लखमी के दोनों कंधे पकड़, धीरे-से उसे पीढ़े पर बिठा दिया, और कुछ खाने का सामान लाने बाहर चला गया. जब लौट कर आया, तो दोनों सहेलियां गा रही थीं. लखमी की किकियाती आवाज और गोमा की खरखराती आवाज से कोठरी गूंज रही थी. खाट पर बैठी उसकी मां आंखें बंद किए, दोनों हाथों से अपने सूजे हुए घुटनों पर ताल दे रही थी.
‘जेठ माया दा माण न करिये,
माया काग बन्देरे दा,
पल विच आवे, छिन विच जावे,
सैर करे चौफेरे दा…
पर दो ही पंक्तियां गाने के बाद गोमा का दम फूलने लगा, और उसे खांसी आ गई.
‘हाय, नहीं गाया जाता,’ उसने कहा.
पर खांसी रुकने पर, वह फिर अगली पंक्ति गाने लगीः
‘हाड़ होश कर दिल विच बंदे,
काल नगार वजदा ई,
ए दुनिया भांडे दी न्यायीं,
जो घड़िया सो भजदा ई…
सहसा दोनों रुक गयीं. गीत का बहुत हिस्सा दोनों को भूल चुका था.
‘छोड़, गोमा. मुझे विराग के गीत अच्छे नहीं लगते. चल, वह गीत गायें, जो सुखदेई गाया करती थी. हाय, कैसा मीठा गाती थी.’ लखमी ने कहा, और नया राग छेड़ दिया.
गोमा कुछ देर तक अपनी फूली सांस को ठिकाने पर लाने के लिए रुकी रही. फिर वह भी साथ गाने लगी.
गाना सुन कर घर जाग गया. रामलाल का छोटा बेटा अपने एक दोस्त का हाथ पकड़े, दरवाजे के बाहर पहुंच गया, और सहमी आंखों से कभी दादी की ओर, तो कभी दूसरी बुढ़िया की ओर देखने लगा. रसोई का नौकर, जो अभी-अभी दोपहर की छुट्टी बिता कर घर लौटा था, दरवाजे की ओट में खड़ा, पूरी बत्तीसी निकाले गाना सुनने लगा.
गोमा को बार-बार खांसी आने लगती. वह खांसती भी जाती, और बीच-बीच में गाती भी जाती. आखिर उसका दम फिर फूल गया, और वह चुप हो गई.
खोखली, खरज आवाज़ें सहसा बंद हो जाने से घर भर में मौन छा गया. बच्चे एक-दूसरे की ओर देख कर हंसे, और खेलने के लिए बाहर भाग गए.
सहसा लखमी बोल उठी’हाय, मेरी कैसी मत मारी गई है. शाम पड़ गई, तो मैं कहीं की न रहूंगी. जिसके आसरे आई हूं, वह छोड़ कर चली गई, तो मेरा क्या बनेगा?’ फिर रामलाल की ओर मुंह कर के, बड़े आग्रह से बोली’बच्चा, मुझे बालकराम सेठी के घर तक छोड़ आयेगा? इधर तेरे ही मुहल्ले में उसका घर है न?’
‘छोड़ आऊंगा चाची. पर बैठो न. अभी तो आई हो.’
‘नहीं, बच्चा, अब बहुत देर हो गई है. अंधेरे से मैं बहुत डरती हूं.’ और घुटनों से हाथों को दबाये, ‘हाय राम जी’ कह कर, उठ खड़ी हुई. ‘मैं तीन बार हड्डियां तुड़वा चुकी हूं, बच्चा. एक दिन सड़क पर जा रही थी. पीछे से किसी साइकल वाले ने आकर टक्कर मार दी. मैं औंधें मुंह जा गिरी. भला हो लोगों का, जो उन्होंने मुझे खाट पर डाल कर घर पहुंचा दिया. कुछ न पूछो. अपने बस की बात थोड़े ही है. घर वाले सारा वक़्त कहते रहते हैं, ‘लखमी, तेरे पांव घर पर नहीं टिकते. तेरा मरना एक दिन सड़क पर होगा…’
बुढ़िया किकियायी. फिर गोमा की ओर देख कर बोली’गोमा, तू भी अंग हिलाती रहा कर. बैठ गई, तो बैठ ही जायेगी.’
गोमा सिर हिला कर बोली’अंग न हिलाऊं, तो दो दिन न जी पाऊं, लखमी. इस हालत में भी मैंने कुछ नहीं तो दस सेर रुई कात कर दी है. पूछ ले इसी से. तेरे सामने खड़ा है.’
लखमी पैर घसीटती कोठरी के बीचोबीच पहुंच गई, और रामलाल की ओर हाथ बढ़ा कर बोली’रात पड़ गई है, बच्चा. मैं रात से बहुत डरती हूं. रात बूढ़ों की दुश्मन होती है. मुझे बालकराम सेठी के घर तक छोड़ आ.’ फिर गोमा की ओर घूम गई, और हाथ जोड़ कर बोली,‘अच्छा, गोमा, अब संजोगी मेले. अब मैं फिर नहीं आऊंगी. अब अगले जन्म में मिलेंगी. मेरा कहा-सुना माफ़ करना, बहिन.’ और आगे बढ़ कर, फिर उसकी छाती से चिपट गई.
थोड़ी देर बाद रामलाल लखमी का हाथ थामे, उसे बाहर ले जाने लगा. लखमी की अब भी सांस फूल रही थी, और टांगें लरज-लरज जाती थीं.
कोठरी में से बाहर निकलते हुए, रामलाल ने बिजली बुझा दी, और दरवाजा बंद कर दिया. कोठरी में फिर घुप्प अंधेरा छा गया, और सूना मौन फिर चारों ओर से घिरने लगा. दोनों चूहे फिर बिल में से निकल गए, और गोमा के बिस्तर पर ऊधम मचाने लगे.

Illustration: Pinterest

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