सत्ता के भ्रष्ट होने पर जनता के सामने क्या विकल्प बचते हैं? श्रीकांत वर्मा की कविता तीन विकल्प सुझा रही है.
मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे
जो थे
वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण
इस लायक नहीं रहे
कि उन्हें हम
मगध का शासक कह सकें
लगभग यही शोर है
अवंती में
यही कोसल में
यही विदर्भ में
कि शासक नहीं रहे
जो थे
उन्हें मदिरा, प्रमाद और आलस्य ने
इस लायक नहीं रखा
कि उन्हें हम अपना शासक कह सकें
तब हम क्या करें?
शासक नहीं होंगे
तो क़ानून नहीं होगा
क़ानून नहीं होगा
तो व्यवस्था नहीं होगी
व्यवस्था नहीं होगी
तो धर्म नहीं होगा
धर्म नहीं होगा
तो समाज नहीं होगा
समाज नहीं होगा
तो व्यक्ति नहीं होगा
व्यक्ति नहीं होगा
तो हम नहीं होंगे
हम क्या करें?
क़ानून को तोड़ दें?
धर्म को छोड़ दें?
व्यवस्था को भंग करें?
मित्रो
दो ही रास्ते हैं:
दुर्नीति पर चलें
नीति पर बहस
बनाए रखें
दुराचरण करें
सदाचार की
चर्चा चलाए रखें
असत्य कहें
असत्य करें
असत्य जिएं
सत्य के लिए
मर-मिटने की आन नहीं छोड़ें
अंत में,
प्राण तो
सभी छोड़ते हैं
व्यर्थ के लिए
हम
प्राण नहीं छोड़ें
मित्रो,
तीसरा रास्ता भी है
मगर वह
मगध,
अवन्ती
कोसल
या
विदर्भ
होकर नहीं जाता
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