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हालात ऐसे हैं कि मदद करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है: उपासना झा

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
May 6, 2021
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, मुलाक़ात
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हालात ऐसे हैं कि मदद करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है: उपासना झा
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कोविड-19 की दूसरी लहर हमारे देश के हर हिस्से में कहर ढा रही है, लोग असहाय से अपने क़रीबियों को लेकर अस्पतालों का चक्कर लगा रहे हैं. बेड्स, ऑक्सिजन, दवाइयां, प्लाज़्मा आदि की आवश्यकताओं के लिए भटक रहे हैं, ऐसे में सोशल मीडिया ने लोगों को थोड़ी राहत दी है. क्योंकि कई लोग इसके ज़रिए पैन इंडिया लेवल पर लोगों की मदद कर रहे हैं, उन तक सही सूचनाएं पहुंचा रहे हैं. अपने जॉब, घर के काम के साथ-साथ ये कुछ लोग, जो दिन-रात सत्यापित सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने में लगे हैं, हमारी स्व-स्फूर्त कोरोना योद्धा सीरज़ में हम आपकी इन कोरोना योद्धाओं से मुलाक़ात करवाएंगे.

महामारी से बचने को कोरोना कर्फ्यू तो अब भी जारी है. जब कोरोना की दूसरी लहर ने अपना कहर बरपाना शुरू किया था, तब न तो अस्पताल तैयार थे, न प्रशासन. लोगों में अफ़रा-तफ़री का माहौल था, जो कई तरह की क़िल्लतों के साथ आज भी जारी है. तब कुछ लोग ऐसे भी थे, जो सोच रहे थे कि हम मदद कैसे कर सकते हैं? अभूतपूर्व समस्या और मदद का कोई अनुभव नहीं, बावजूद इसके वे सबकुछ छोड़कर फ़ेसबुक, वॉट्सऐप और ट्विटर के ज़रिए लोगों की मदद को आगे आए और कई लोगों के लिए राहत का सबब बने. बिहार के समस्तिपुर कॉलेज में हिंदी की प्रोफ़ेसर हैं उपासना झा भी उन्हीं लोगों में से एक हैं. यहां पेश हैं, उनके साथ बातचीत के अंश

आपने मदद की शुरुआत कैसे की?
मैं छह-आठ महीने से सोशल मीडिया का बहुत कम इस्तेमाल कर रही थी, लेकिन जब देखा कि लोगों को बहुत ज़रूरत है, ये असहाय हैं और सबकुछ अस्त-व्यस्त है तो वापस लौट आई. वैज्ञानिक कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी दे रहे थे, नए वेरिएंट की बात कर रहे थे तब भी सरकार इसका ठीक-ठीक आकलन नहीं कर पाई. बीच में कोरोना पूरी तरह चला नहीं गया था, बल्कि मामले केवल कम हुए थे. सेकेंड वेव आने से ठीक पहले लोगों ने भी चीज़ों को हल्के में लेना शुरू कर दिया था, जैसे सबकुछ नॉर्मल हो. न मास्क पहनना, न सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना. वहीं सरकार ने भी बहुत ढिलाई की.
जब कोविड के मामले बढ़ने लगे तो सबसे ज़्यादा दिल तोड़ने वाली बात ये थी कि तब तक हॉस्पिटल बेड्स, वेंटिलेटर, ऑक्सिजन आदि की कोई व्यवस्था नहीं की गई. यहां तक कि सरकारी हेल्प लाइन भी काम नहीं कर रही थी. लोग लाचार थे. पत्रकार रवीश कुमार, लेखक अशोक कुमार पांडे, राजनेता दिलीप पांडे, श्रीनिवास आदि ने अपनी पहुंच के साथ लोगों की मदद करना शुरू किया और फिर हम सबने यह काम शुरू किया. जब इतनी दीन दशा सामने आने लगी तो इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं था कि जिन लोगों को थोड़े-बहुत लोग जानते हैं, लोगों से परिचय है उसके चलते यदि लोगों को कुछ मदद कर सकें तो करें.

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ये काम कैसे किया आपने?
दिन-रात सही जानकारियां जुटाते हुए यह काम कर रही हूं. पिछले 10-15 दिनों में परिचतों से तो बात हुई ही पर लोगों की मदद के सिलसिले में इतने अपरिचित लोगों से बातचीत हुई है कि क्या बताऊं, जबकि मैं बहुत रिज़र्व नेचर की हूं. दोस्तों से भी कम ही बात करती हूं. इस क्राइसिस में इस तरह से मदद करने के अलावा कोई उपाय ही नहीं था. जिससे जितना हो सकता है, वो उतना कर रहा है. कोई खाना बना के पहुंचा रहा है, कोई दवाइयां. कोई अपनी गाड़ियां दे रहा है, ताकि लोग अस्पताल पहुंच सकें. समय ऐसा है कि हम सब को उठ के खड़ा होना ही था.
सरकारी वेबसाइट्स तो क्राइसिस के शुरू होने के कुछ दिनों बाद सक्रिय हुई हैं, बीच में एक गैप था. तब कई प्राइवेट वेंडर्स के नंबर मदद के लिए सोशल मीडिया पर फ़्लोट होत थे. यदि मदद के लिए किसी का मैसेज आया तो उसे दोस्तों के, पत्रकारों के ग्रुप पर शेयर करते. जान-पहचान के लोगों को भेजते. मदद के लिए मैं एक दिन में बहुत सारे केस हाथ में नहीं लेती, ज़्यादा से ज़्यादा तीन ही केस का काम देखती हूं. फिर मैं पर्सनली फ़ॉलोअप करती हूं. उन्हें कॉल कर के उनकी समस्या और ज़रूरत समझती हूं, फिर जो भी लीड्स हमारे पास आते हैं उन नंबर्स पर कॉल कर के ये वेरिफ़ाई करती हूं कि ये नंबर सही हैं या नहीं, इनके पास आवश्यक चीज़ें हैं या नहीं. हम विधायकों, मंत्रियों और अधिकारियों तक से बात करते हैं, ताकि कैसे भी हेल्प मिल जाए. कई बार हम सफल होते हैं, कई बार असफल होते हैं.

इस तरह मदद करने का आपका अनुभव कैसा रहा?
मदद करते समय तीन तरह की चीज़ें होती हैं, एकदम ज़रूरतमंद लोग मिलते हैं, जिन्हें चीज़ों की तत्काल ज़रूरत होती है. उनके अटेंडेंट्स तुरतं फ़ोन उठाते हैं और तत्परता से काम करते हैं. दूसरी श्रेणी के वे लोग हैं, जिनके परिजन उतने बीमार नहीं हैं, पर वे पैनिक कर रहे हैं. स्थिति का आकलन नहीं कर पा रहे हैं. घबरा रहे हैं और वे प्रिवेंटिव मेज़र्स लेना चाहते हैं. पहले से ही ऑक्सिजन ले कर रख रहे हैं कि इसका इस्तेमाल करना है. साथ ही, वे अस्पतालों में बेड भी ढूंढ़ रहे हैं. तीसरी कैटेगरी ऐसी है, जिसके लिए आप पूरे दिन मेहनत करते हैं, सारा काम करने के बाद आपको पता चलता है कि इसे तो इतनी मदद की ज़रूरत ही नहीं थी. तब लगता है कि वक़्त ज़ाया हो गया और इतने समय में हम किसी ज़्यादा ज़रूरतमंद की मदद कर सकते थे. लेकिन आप उनसे कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि इससे और वक़्त जाएगा.

मदद की गुहार लगा रहे लोगों से आप कुछ कहना चाहेंगी?
यदि आप मदद मांग रहे हैं तो अपने पेशेंट की एक्चुअल कंडिशन के बारे में सबसे पहले डॉक्टर से पूछें, ख़ुद डॉक्टर न बनें और अनुमान न लगाएं. डॉक्टर की सलाह पर अमल कीजिए, पैनिक मत कीजिए. यदि आप ज़्यादा पैनिक करेंगे तो मरीज़ भी करेगा और उसका ऑक्सिजन लेवल अप-डाउन होता रहेगा. दूसरी चीज़ ये कि आपको ख़ुद भी पता होता है कि मरीज़ को सचमुच किस चीज़ की ज़रूरत है तो मदद मांगते वक़्त केवल उसी का ज़िक्र करें. आपको ऑक्सिजन चाहिए, आईसीयू बेड चाहिए, प्लाज़्मा चाहिए, दवाई चाहिए तो वही लिखिए. यदि आप डर गए हैं और केवल किसी से बात करना चाहते हैं तो वो भी लिखिए, पर जो चाहिए केवल वह बताइए. तीसरी बात ये कि कई लोग केवल इस बात का अनुमान लगाकर कि आगे उन्हें ऑक्सिजन सिलेंडर की ज़रूरत पड़ सकती है, सिलेंडर को स्टोर कर रहे हैं. आपने बिना ज़रूरत इसे स्टोर कर लिया है और दूसरा व्यक्ति, जिसे सचमुच ज़रूरत थी, वह ऑक्सिजन न मिलने से मर गया तो आप एक हत्या में भागीदार हुए. ऐसा मत कीजिए, प्लीज़!

फ़ोटो: गूगल

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शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

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