‘कृषि के नारीवादी सिद्धांत’ को पाठकों से मिली सराहना, सकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद, ‘महिला किसान’श्रृंखला में सामाजिक चिंतक, लेखक और दयाल सिंह कॉलेज, करनाल के पूर्व प्राचार्य डॉ रामजीलाल आज चर्चा कर रहे हैं तेभागा किसान आंदोलन पर. इस आंदोलन में महिला किसानों की भूमिका और ख़ासकर बिमला माझी के साहसिक नेतृत्व की.
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सन् 1857 से लेकर सन् 1947 तक महिलाओं के अदम्य साहस, धैर्य, त्याग, बलिदान व शौर्य व योगदान का स्वर्णिम विवरण इतिहास के पन्नों में दर्ज है. भारतीय महिलाओं ने भारतीय कांग्रेस पार्टी व अन्य राजनीतिक दलों के द्वारा चलाए गए राष्ट्रीय आंदोलनों-गांधीवादी आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन, आज़ाद हिंद फौज, श्रमिकों, विद्यार्थियों तथा किसानों के आंदोलन में पितृसत्तात्मक समाज होने के बावजूद बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इनके अतिरिक्त महिलाओं ने साम्यवादी व वामवादी विचारधाराओं के किसान आंदोलनों में भी अग्रणीय भूमिका निभाई है. बंगाल का सन् 1946-47 का तेभागा किसान आंदोलन कुछ इसी कलेवर का था.
आदिवासी किसानों के संघर्ष: महिलाओं की भूमिका
भारत में राष्ट्रीय आंदोलन तथा उपनिवेशवाद विरोधी सशस्त्र आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है. इन किसान आंदोलनों में ताना आंदोलन (सन् 1912-सन् 1914), प्रथम महिला किसान संगठन किसानिन सभा, बिजौलिया किसान आंदोलन (सन्1924), बारदोली किसान आंदोलन (जून 1928), वर्ली आदिवासी किसान आंदोलन (1945), तेभागा किसान आंदोलन (सन् 1946-सन् 1947) तेलंगाना सशस्त्र किसान आंदोलन (सन् 1946-सन् 1951), नक्सलवादी आंदोलन (19 मई 1967 से आज तक) तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी इत्यादि के द्वारा चलाए गए किसान आंदोलनों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
तेभागा किसान आंदोलन (सन्1946-सन् 1947) की पृष्ठभूमि
साम्यवादी व वामपंथी आंदोलनों में सर्वप्रथम आंदोलन तेभागा आंदोलन (सन् 1946 सन् 1947) है. पबना किसान विद्रोह के पश्चात लगभग 70 वर्ष के दौरान बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, भारत का पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा) की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में मूलभूत परिवर्तन हुए. परंतु किसानों का शोषण जारी रहा. भारत सरकार अधिनियम 1935 के अंतर्गत सन् 1936 में प्रांतीय चुनाव हुए, इन चुनाव में बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी की विजय के पश्चात सन् 1937 फ़ज़लुल हक़ के नेतृत्व में सरकार का निर्माण हुआ. किसानों की भावनाओं की क़द्र करते हुए फ़ज़लुल हक़ की सरकार के द्वारा फ्रांसिस फ़्लाउड की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया. इस आयोग ने अपनी संस्तुतियों में कहा कि किसानों को फसल का दो तिहाई भाग तथा ज़मींदारों को एक तिहाई भाग मिलना चाहिए.
द्वितीय विश्वयुद्ध (सन्1939-सन्1945) के दौरान सन् 1943 का बंगाल का अकाल आधुनिक भारतीय इतिहास में एकमात्र ऐसा अकाल था, जो गंभीर सूखे के परिणामस्वरूप नहीं हुआ था. चर्चिल-युग की ब्रिटिश नीतियां तबाही में योगदान देने वाली एक महत्वपूर्ण कारक थीं. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार ग़रीब बंगालियों को खिलाने के लिए पर्याप्त आपूर्ति होनी चाहिए थी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ. यही कारण है कि बड़े पैमाने पर मौतें युद्धकालीन मुद्रास्फीति, सट्टा ख़रीद और घबराहट की जमाखोरी के संयोजन के रूप में हुईं, जिसने एक साथ क़ीमतों को धक्का दिया और भोजन ग़रीब बंगालियों की पहुंच से बाहर हो गया.
पत्रकार मधुश्री मुखर्जी ने नवीनतम अध्ययनों के आधार पर सन् 2019 में लिखा कि बंगाल अकाल की दुखद और भयावह स्थिति के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की नीतियां उत्तरदाई थीं. भविष्य में आक्रमण की स्थिति में जापानी सेना को संसाधनों से वंचित करने के लिए बंगाल के तटीय क्षेत्रों से चावल की भारी आपूर्ति और हज़ारों नावों और बैल गाड़ियों को या तो जब्त कर लिया गया या नष्ट कर दिया गया. परिणाम स्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों तक भी चावल के खाद्यान्न की आपूर्ति बिल्कुल बंद हो गई .इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों के कारण मानव निर्मित अकाल में बंगाल में 30,00,000 (तीस लाख) से अधिक लोग मौत का शिकार हो गए और चारों ओर त्राहि-त्राहि मच रही थी. विमल मिश्रा ने कहा,“यह एक अनूठा अकाल था, जो किसी मानसून की विफलता के बजाय नीतिगत विफलता के कारण हुआ.’’
यूं भड़की तेभागा आंदोलन की चिंगारी
भुखमरी और मौतों के कारण जनता में रोष, आक्रोश और विरोध की भावना आकाश को छू रही थी. ऐसी स्थिति में जून 1944 में कृषक सभा ने अपने चौथे अधिवेशन (पंजिया) में फ्रांसिस फ़्लाउड कमीशन की संस्तुतियों को लागू करवाने का प्रस्ताव पास करके सरकार पर दबाव डालने की चेष्टा की . सन् 1945 के बाद समस्त भारत में अंग्रेज़ी सरकार और देसी रियासतों के विरुद्ध आज़ादी के लिए आंदोलनों का प्रभाव बंगाल के किसानों और मज़दूरों पर भी पड़ा. परिणाम स्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सन् 1946 में कृषक सभा ने अपनी मांगों को लेकर किसान आंदोलन अविभाजित बंगाल में चलाया, जिसे तेभागा आंदोलन (सन् 1946-सन्1947) के नाम से पुकारते हैं.
इस आंदोलन में दलितों, शोषितों, किसानों, किसान मज़दूरों, मध्यमवर्ग, मुसलमानों, हिंदुओं तथा महिलाओं की सक्रिय भागीदारी रही. महिलाओं के द्वारा सन् 1942 में महिला संगठन महिला आत्मरक्षा समिति (वुमेन सेल्फ़ डिफ़ेंस लीग) की स्थापना की गई तथा इसके अतिरिक्त एक अन्य संगठन “नारी वाहिनी’’ की स्थापना की गई. महिला संगठनों के द्वारा भारतीय सामंतवादी व्यवस्था व ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध आंदोलन में सक्रिय भाग लिया गया. केवल यही नहीं अपितु आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन, जीवन और जानवरों की रक्षा के लिए भी आंदोलन चलाए गए. उदाहरण के तौर पर वर्ली के आदिवासी किसानों के संघर्ष का नेतृत्व वामपंथी नेत्री गोदावरी भास्कर के द्वारा किया गया.
अगस्त 1946 में नोआखाली में भंयकर साम्प्रदायिक दंगों के पश्चात बंगाल में सितंबर 1946 में किसान सभा के नेतृत्व में उपज का दो तिहाई हिस्सा बटाईदारों को दिलवाने के लिए तेभागा आंदोलन चलाया गया. यह ज़मीदारों के विरुद्ध हिंदू तथा मुस्लिम बटईदारों, भूमिहीन किसानों, खेतिहर मज़दूरों व आदिवासी किसानों का संघर्ष था. नोआखाली (अगस्त 1946) के भयंकर साम्प्रदायिक दंगों के बावजूद इस आंदोलन में 50 लाख हिंदू तथा मुस्लिम बटईदारों, भूमिहीन किसानों, खेतिहर मज़दूरों व महिलाओं ने भाग लिया.
तेभागा आंदोलन में महिलाओं की अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष भूमिका
अप्रत्यक्ष रूप में प्रारंभ में इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका गौण तथा सहायक के रूप में रही. महिलाओं के द्वारा किए गए कार्यों में फसलों की कटाई में ग्रामीण महिलाओं मदद करना व उनका विश्वास जीतना, नेताओं के लिए खाना बनाना, पहरेदारी करना, खतरे की स्थिति में अलार्म बजाना इत्यादि मुख्य हैं.
प्रत्यक्ष रूप में कार्य और समय उजागर हुए जब कम्युनिस्ट पार्टी का पुरुष नेतृत्व सशस्त्र आंदोलन करने से संकोच कर रहा था. महिलाओं ने दृढ़ निश्चय करके आंदोलन की कमान सम्भाली. महिलाओं ने इस आंदोलन में लाल झंडे, झाड़ू, मिर्ची पाउडर तथा कृषि व ऱसोई उपकरणों का प्रयोग शस्त्रों के रूप में किया. जब स्थानीय पुलिस तथा ज़मींदारों के पैरा-मलिशिया के द्वारा संघर्षरत किसानों को घेर लिया तो महिला मलिशिया (महिला दस्तों) संख्या की अधिक होने कारण उन्हें खदेड़ दिया गया. इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं.
तेभागा आंदोलन में केवल पुरुषों की ही नहीं अपितु महिलाओं की अग्रणीय भूमिका रही है. तेभागा किसान आंदोलन में जिन महिलाओं का मुख्य योगदान रहा है उनमें बिमला माझी, रानी मित्रा दासगुप्ता, मनी कुंतल सेन, रेणु चक्रवर्ती इत्यादि का नाम उल्लेखनीय हैं. परंतु इन सब में सर्वाधिक प्रसिद्ध महिला बिमला माझी हैं. बिमला माझी को पुलिस के द्वारा घेर लिया गया और एक महीने तक उन्हें पिंजरे में तब तक बंद रखा जब तक उन पर 140 मुकदमें दायर नहीं हुए. इन मुकदमों में बिमला माझी को ढाई वर्ष की जेल की सज़ा मिली.
यद्यपि यह आंदोलन पितृसत्तात्मक सत्ता को समाप्त करने में सफल सिद्ध नहीं हुआ. इसके बावजूद बिमला माझी के नेतृत्व में यह आंदोलन महिलाओं में राजनीतिक चेतना फैलाने और लामबंद में सफल हुआ.
कौन थीं बिमला माझी?
बिमला माझी एक बाल विधवा थीं. बिमला का विवाह लगभग तेरह वर्ष की उम्र में एक डकैत परिवार में हुआ था. ससुराल में उन्हें दुर्व्यवहार और दमन का सामना करना पड़ा. कुछ ही समय बाद उनके पति का निधन हो गया. 1943 के बंगाल अकाल के दौरान एक महिला किसान कार्यकर्ता के रूप में उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई. वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उच्च जाति, मध्यम वर्ग की महिला मणिकुंतला सेन के नेतृत्व में महिला आत्म रक्षा समिति (MARS) में शामिल हुईं. अकाल के वर्षों के दौरान सक्रिय MARS ने महिलाओं को संगठित करने और उन्हें भुखमरी और यौन शोषण के दोहरे नुक़सान के ख़िलाफ़ आत्मरक्षा में प्रशिक्षित करने की दिशा में काम किया. जब तेभागा आंदोलन शुरू हुआ, तो MARS के नेताओं ने किसान महिलाओं से बड़ी संख्या में आंदोलन में शामिल होने की अपील की. तेभागा आंदोलन से बिमला अविभाजित मेदिनीपुर का चेहरा बन गई थीं. उस दौर में वे लड़कियों के लिए आत्मनिर्भरता का प्रतीक थीं. इस आंदोलन ने केवल बंगाल में ही नहीं, अपितु देश के अन्य भागों में होनेवाले महिला किसान आंदोलनों अथवा महिला आंदोलनों की आधारशिला रखी.