हममें से कोई कभी नहीं चाहता कि वह ‘असंगत, अप्रासंगिक और अनुपयोगी’ कहलाए. आख़िर क्यों मनुष्य इन तीनों संभावनों के बारे में सोचकर दुखी हो जाता है? कैसे आप ख़ुद को इससे बचाए रख सकते हैं? बता रहे हैं डॉ अबरार मुल्तानी.
डिज़्नी की एक बेहतरीन एनिमेटेड फ़िल्म है ‘द क्रूड्स’. अहा! बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िल्म. एक-एक सीन जैसे मास्टर पीस. कल्पनाशीलता की पराकाष्ठा. इस फ़िल्म में एक आदिमानव परिवार है जिसका नाम है ‘द क्रूड्स’. परिवार का मुखिया है ‘क्रग’ जो कि बहुत रूढ़िवादी है, किसी भी तरह का जोखिम लेने से डरता है और अपने परिवार को भी जोखिम उठाने से रोकता है. लेकिन क्रग अपने परिवार से बहुत ज़्यादा प्रेम करता है. जोखिम उठाने से रोकने के लिए वो सभी को बुरे अंत वाली डरावनी कहानियां सुनाता है. लेकिन उसकी बड़ी बेटी ईव उसके बिल्कुल विपरीत सोचती है. वह कुछ नया करना चाहती है. एक रात वह गुफा से निकल कर बाहर चली जाती है और उसे एक लड़का मिलता है जिसका नाम है ‘गाय’. गाय एक अद्भुत मस्तिष्क का मालिक है और कई तरह की खोजें करता रहता है जिसमें आग जलाना और उसे काबू कर लेना ख़ास है. वह ईव को आगाह करता है कि दुनिया ख़त्म हो रही है तुम्हें भविष्य की तरफ़ नई दुनिया में आना चाहिए. फिर अगले ही दिन एक भयंकर जलजला आता है और क्रूड फ़ैमिली एक नई दुनिया में पहुंच जाती है. अब सब कुछ बदल जाता है. क्रग उन्हें सुरक्षा के मद्देनजर फिर से गुफा में ले जाना चाहता है लेकिन उसका परिवार नए विचारों और खोज करने वाले ‘गाय’ के साथ आगे बढ़ना चाहता है. इस पूरे प्रकरण से लेकर अंत के सीन से पहले तक क्रग अप्रासंगिक होजाने की वेदना झेलता है. हम उसके चेहरे के भाव, उसकी बोली और उसके कार्यों से ये स्पष्ट महसूस कर सकते हैं.
दुनिया आज ऐसे ही बदल रही है जैसी कि द क्रूड्स परिवार की बदली थी. हम पेपर से सीधे मोबाइल युग में कूद पड़े. धर्मों और संप्रदायों से सीधे पूंजीवाद में. गांवों, शहरों, राज्यों और देशों से सीधे एक दुनिया की तरफ़. दुनिया पूरी तरह से बदल गई है कई लोग उसके साथ बदले और कई नहीं. जो नहीं बदल रहें हैं वे समय के साथ-साथ अप्रासंगिक होते जाएंगे. इंसानों की अमर होने की चाह में सबसे दुखद पहलू यही है कि जब हम आगामी पीढ़ियों के लिए किसी काम के ही नहीं रहेंगे तो फिर जीने का मतलब क्या होगा? जीवन केवल इसका तो नाम नहीं कि बस केवल जी लिया जाए. जीवन तो अपने आप को खेल में बनाए रखने का नाम है. दर्शक के मन में हमेशा खिलाड़ी बनने का स्वप्न पलता है. लेकिन उसे यह पता हो कि वह खेल बस देख सकता है लेकिन कभी उसे खेल नहीं सकता तो वह उससे उकता जाएगा. केवल अप्रासंगिक दर्शक और श्रोता ही बने रहना वाक़ई पीड़ादायक है.
मेरे पास एक बुज़ुर्ग रोगी आए जो कि निराश थे और अब आगे जीना नहीं चाहते थे. मैंने वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि मेरे साथ वाले सभी चले गए और नई पीढ़ियों में मैं फ़िट नहीं हो रहा हूं डॉक्टर साहब. इसलिए अब मैं भी अपने साथ वालों के पास चला जाना चाहता हूं-कब्र में. अप्रासंगिक होने का दर्द आपको नेताओं के चेहरे पर सबसे ज़्यादा स्पष्ट नज़र आएगा. उनके चेहरे की दमक कश्मीरी सेब की तरह होगी जब वे पार्टी कार्यकर्ताओं से घिरे रहते हैं. जब पार्टी से उन्हें हाशिए पर डाल दिया जाता है तो उनका चेहरा लू लगे आम की तरह नीरस और रोगी हो जाता है. यह असर अप्रासंगिक होने का ही है. किसी भी काम के ना रह जाना वाक़ई बहुत पीड़ादायक होता है.
हमें इससे बचने के लिए हमेशा परिवर्तन के लिए तैयार रहना चाहिए. बदलने को स्वीकार करना चाहिए और स्वीकारना चाहिए कि संसार में जड़ लोगों के लिए कोई स्थान नहीं, कोई सम्मान नहीं. सीखना, सीखना और हमेशा सीखते रहना ही अप्रासंगिक होने से बचने का एकमात्र उपाय है.
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