गुलज़ार साहब की त्रिवेणी, तीन लाइनों में लिखी गई मुकम्मल कविताएं हैं. तीन मिसरों में सोचने, समझने के लिए पर्याप्त सामग्री देती गुलज़ार साहब की कुछ त्रिवेणियां प्रस्तुत हैं.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रातभर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
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सारा दिन बैठा, मैं हाथ में लेकर ख़ाली कासा
रात जो गुज़री, चांद की कौड़ी डाल गई उसमें
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जाएगा
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सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कराए भी, पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर
कल का अख़बार था, बस देख लिया, रख भी दिया
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शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है ख़ुदावंद ने तुम को
तिनकों का मेरा घर है, कभी आओ तो क्या हो?
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ज़मीं भी उसकी, ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी
ख़ुदा से कहिए, कभी वो भी अपने घर आएं!
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लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूं हमेशा के लिए भी क्या बिछड़ता है कोई?
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करवट लेकर जब ये पल इस जगह से लुढ़केगा
दूसरा पल करवट लेकर इस जगह पे आएगा
करवट लेते पलों पे सदियां ज़िंदा रहती हैं
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अगला पल जीने के लिए
पिछले पल को विदा तो कर लो
कल जो गया, वो गया नहीं है
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मनों का बोझ लेकर चल रहे हो
बहुत भारी है बोझा ले के चलना
उम्मीदें कम करो, लम्बा सफ़र है
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मोर एक आसमान पर बैठा हुआ
रात भर तारे चुगता रहता है
कितने सूराख कर गया शब में
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तभी तभी मेरी थोड़ी सी आंख लगी थी
चांद ने जब खिड़की पर आकर दस्तक दी थी
क्या तुमने कल, कुछ कहला कर भेजा था?
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दो ही लोगों की जगह नज़्म में है, आ जाओ
आओ ले चलते हैं अफ़लाक घुमा लाएं तुम्हें
याद रखोगे कि शायर से मुहब्बत की थी
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तुम एक बूंद हो भटके हुए से बादल की
किसी चट्टान पे गिरने से क्या सदा होगी
समन्दर सर पटकता है यहां, किसने सुनी है?
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बारिश रुकी हुई है कल से
और घुटन भी ज़्यादा है
रो कर कब दिल हल्का हुआ है
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मालूम है याद करते हो तुम
मालूम है मुझ को भूले नहीं
हर हिचकी ख़बर दे जाती है
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आप की ख़ातिर अगर हम लूट भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!
चांद चुभ जाएगा उंगली में तो ख़ून आ जाएगा
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पौ फूटी है और किरणों से कांच बजे हैं
घर जाने का वक़्त हुआ है, पांच बजे हैं
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!
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बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे
थान पर बांधी नहीं जातीं सभी ख़्वाहिशें मुझसे
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तमाम सफ़हे किताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!
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कभी कभी बाज़ार में यूं भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था
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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं
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वह जिस सांस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दांत तले सांस काट दी उसने
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
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कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था, उन्हें ले गया, फिर नहीं लौटे
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
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इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
छाले जैसा चांद पड़ा है उंगली पर!
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बुड़ बुड़ करते लफ़्ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से
अफ़वाहों को ख़ूं पीने की आदत है
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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही ख़ूं बह निकला
नंगे पांव खेल रहा था, लड़का अपने आंगन में
बाप ने कल दारू पी के मां की बांह मरोड़ी थी!
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चांद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गुल्लों से दिनभर खेला करता था
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!
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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आंख के शीशे मेरे चुटखे हुए हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
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कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं
क्लर्क हैं दोनों, लगता है अब शादी करने वाले हैं
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कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अंधेरे में
अब फूंक भी दो, वरना ये उंगली जलाएगा!
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कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यों इस फौज़ी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है
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आओ ज़बानें बांट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है
दो अनपढ़ों की कितनी मोहब्बत है अदब से
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नाप के वक़्त भरा जाता है, रेत घड़ी में
इक तरफ़ ख़ाली हो जब फिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
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तुम्हारे होंठ बहुत ख़ुश्क ख़ुश्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे
ये तुमने होंठों पे अफ़साने रख लिए कब से?
Illustration: Pinterest