मन बहुत चंचल होता है, इतना कि कभी-कभार तो हम ख़ुद भी नहीं समझ पाते कि आख़िर यह चाहता क्या है. वह मन, जिसकी थाह ले पाना कई बार हमारे बस की बात नहीं रह जाती, इस कविता में कवि हमें उसी मन की तासीर को बख़ूबी समझाए दे रहे हैं.
कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम
गहरे धुंधलके में खड़े कितने डरे
कांपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम
किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे
जिगर पत्थर, आंख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी
सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम
कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था
आज भिक्षा भा रही है
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट