मदर्स डे! हालांकि कुछ लोग अब भी यह कहते मिल जाते हैं कि मदर्स डे मनाना हमारी संस्कृति नहीं, पर वे भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि हमारे देश में भी इसे मनाने का चलन पिछले कुछ सालों में बढ़ा ही है. इस दिन हमारे देश में हर धर्म और मज़हब के लोग बाज़ार के दबाव में ही सही अपनी मां को याद कर लेते हैं, उनसे फ़ोन पर बात कर लेते हैं और कुछ तो उन्हें हैप्पी मदर्स डे कह कर विश भी कर देते हैं. लेकिन जिस तरह हमारे देश के सामाजिक तानेबाने में पिछले कुछ सालों में बदलाव आया है, जिस तरह अल्पसंख्यकों, बहुसंख्यकों के मुद्दे उठाए जा रहे हैं और जिस तरह की हिंसा देखने में आई है, आख़िर यह भी तो जाना जाना चाहिए कि आख़िर एक मां ऐसे में कैसा महसूस करती है? आज से आठ मई तक हम रोज़ाना इस मामले में एक मां से बात कर के जानेंगे उनके दिल की बात. जानेंगे कि आज के परिवेश में वो अपने बच्चों को बड़ा करते हुए कैसा महसूस करती हैं? आज इस क्रम में हमने बात की अहमदाबाद की तृप्ति बॉबी सिंह मेहंदीरत्ता से.
तृप्ति अहमदाबाद में रहती हैं. वे गर्ल्स पीजी चलाती हैं और होममेकर हैं. उनके दो बेटे हैं. वे कहती हैं,‘‘पांच भाइयों की लाड़ली मैं, कब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गई मुझे पता ही नहीं चला.’’ वे मां बनने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हैं और अपने पति में बेहतरीन दोस्त देखती हैं, जिसने हर परिस्थित में उनका साथ निभाया. हमने उनसे भी वही दो सवाल पूछे, जो इस मदर्स डे पर हम सभी मांओं से पूछ रहे हैं. यहां पेश हैं उनसे किए गए सवाल और उनके जवाब.
आज के समय में जब देश का माहौल बिगड़ा हुआ है, सामाजिक संतुलन बिगड़ रहा है, बतौर एक मां आप अपने बच्चों की परवरिश को लेकर क्या सोचती हैं?
सच पूछिए तो मैं ख़ुद को और अपने बच्चों को अहमदाबाद, गुजरात में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं. लेकिन धर्म के नाम पर हिंसा, मारपीट और दंगे जैसी ख़बरें किसी भी राज्य या देश की हों दिल दहला देती ही हैं.
आख़िर धर्म क्या है? धर्म किसी भी समाज में संगठन का पर्याय होता है. मूलत: सभी धर्मों का निर्माण लोगों में एकता की भावना को बढ़ाने के लिए ही हुआ है. जिस दिन देश में धर्म के नाम पर राजनीति बंद हो जाएगी, उस दिन सही मायने में देश तरक़्क़ी की राह पर चल पड़ेगा. हमारे देश में सभी दल धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं. धर्म के नाम पर ही अधिकार बंटते हैं यहां. जब ईश्वर एक है तो ये धर्म से जुड़े युद्ध क्यों होना चाहिए भला? सच तो ये है कि कोई धर्म नहीं, बल्कि इंसान होता है बुरा या भला. यूं तो मैं डरने से ज़्यादा इस बात पर ज़ोर देना चाहती हूं, यह विश्वास रखना चाहती हूं कि सब सही होगा. काश कभी ख़ुदा और ईश्वर के नाम पर धर्म बनाने वाले मिलें तो हम उनसे मैं यही सवाल करूंगी:
क्यों बनाए हैं ऐसे धर्म जो आपस में हैं लड़ते,
आज भी समाज में इंसान, इंसानों से ही डरते
सामाजिक सौहार्द्र बना रहे इस बारे में आप अपने बच्चों से, दूसरे लोगों से और सरकार से क्या कहना चाहेंगी?
बच्चों से कहना चाहूंगी कि गांधी जी की राह पर चलें. गांधी-व्यवहार का मूल ही यही है कि यदि आप ख़ुद को बदलेंगे तो अपने आप दुनिया में बदलाव की शुरुआत हो जाएगी. यदि हम अपने विचार को बदलते हैं और उसे लागू करने का निश्चय करते हैं तो हमारे काम करने के तरीक़े में भी बदलाव आता है. इस बदलाव को बाहरी दुनिया नज़र अंदाज़ नहीं कर पाएगी और शायद हम एक नए भारत का निर्माण करने में सफल रहेंगे.
इस सांप्रदायिक झगड़े की जड़ खोजें तो यह आर्थिक ही जान पड़ता है. आम लोगों की आर्थिक हालत इतनी ख़राब है कि चंद पैसों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. मैं समाज और सरकार से ये अपील करूंगी कि इस देश में युवाओं के रोज़गार के लिए ठोस क़दम उठाए जाएं. इस समस्या का हल अर्थव्यवस्था में सुधार से ही हो सकता है. लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गार के अवसर दिए जाएं.
देश के लोगों के बीच भरोसा और भाईचारे की भावना में आई कमी से मैं अपने बच्चों और दूसरे बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित भी हूं. बच्चे देश के किसी भी हिस्से, किसी भी राज्य में हों, वहां उन्हें शांतिपूर्ण और सुरक्षित माहौल मिले मैं इस बात का आश्वासन भी चाहती हूं.
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