छायावादी कवि सूर्यकांत निराला की प्रसिद्ध कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ केवल एक मज़दूर स्त्री की दशा ही नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि देश के मेहनतकश समाज की हालत से रूबरू कराती है.
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बंधा यौवन
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार
चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
‘मैं तोड़ती पत्थर’
कविता संग्रह: निराला संचयिता
कवि: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
प्रकाशन: वाणी प्रकाशन
Illustration: Ilayaraja@Pinterest