गुलज़ार साहब की कविताएं जाने-पहचाने शब्दों को नए मायने देती हैं. आंखों के सामने नए दृश्य खींच देती हैं. वो जो शायर था चुप-सा रहता था उनकी ऐसी ही एक कविता है.
वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आंखें कानों पे रख के सुनता था
गूंगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चांद के साए
और गीली- सी नूर की बूंदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हां वही, वो अजीब-सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चांद की ठोड़ी चूमा करता था
चांद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है
Illustration: Pinterest