वे प्रेम कहानियां जो मुकम्मल नहीं होतीं एक अनचीन्हे से दर्द से भरी होती हैं. वे अव्यक्त सी प्रेम कहानियां, जिनमें प्रेम अव्यक्त होकर भी व्यक्त हो जाता है, दर्द से भिगोती तो हैं, लेकिन सदा के लिए ज़ेहन में अपनी जगह भी बना लेती हैं. यह कहानी आपको ऐसे ही एहसास से रूबरू करवाएगी.
पत्थर और चूना बहुत था, लेकिन अगर थोड़ी-सी जगह पर दीवार की तरह उभरकर खड़ा हो जाता, तो घर की दीवारें बन सकता था. पर बना नहीं. वह धरती पर फैल गया, सड़कों की तरह और वे दोनों तमाम उम्र उन सड़कों पर चलते रहे….
सड़कें, एक-दूसरे के पहलू से भी फटती हैं, एक-दूसरे के शरीर को चीरकर भी गुज़रती हैं, एक-दूसरे से हाथ छूड़ाकर गुम भी हो जाती हैं, और एक-दूसरे के गले से लगकर एक-दूसरे में लीन भी हो जाती थीं. वे एक-दूसरे से मिलते रहे, पर सिर्फ़ तब, जब कभी-कभार उनके पैरों के नीचे बिछी हुई सड़कें एक-दूसरे से आकर मिल जाती थीं.
घड़ी-पल के लिए शायद सड़कें भी चौंककर रुक जाती थीं, और उनके पैर भी…
और तब शायद दोनों को उस घर का ध्यान आ जाता था जो बना नहीं था…
बन सकता था, फिर क्यों नहीं बना? वे दोनों हैरान-से होकर पांवों के नीचे की ज़मीन को ऐसे देखते थे जैसे यह बात उस ज़मीन से पूछ रहे हों…
और फिर वे कितनी ही देर ज़मीन की ओर ऐसे देखने लगते मानों वे अपनी नज़र से ज़मीन में उस घर की नींवें खोद लेंगे….
और कई बार सचमुच वहां जादू का एक घर उभरकर खड़ा हो जाता और वे दोनों ऐसे सहज मन हो जाते मानों बरसों से उस घर में रह रहे हों…
यह उनकी भरपूर जवानी के दिनों की बात नहीं, अब की बात है, ठंडी उम्र की बात है, कि अ एक सरकारी मीटिंग के लिए स के शहर गई. अ को भी वक़्त ने स जितना सरकारी ओहदा दिया है, और बराबर की हैसियत के लोग जब मीटिंग से उठे, सरकारी दफ़्तर ने बाहर के शहरों से आने वालों के लिए वापसी टिकट तैयार रखे हुए थे, स ने आगे बढ़कर अ का टिकट ले लिया, और बाहर आकर अ से अपनी गाड़ी में बैठने के लिए कहा.
पूछा,’सामान कहां है?’
‘होटल में.’
स ने ड्राइवर से पहले होटल और फिर वापस घर चलने के लिए कहा.
अ ने आपत्ति नहीं की, पर तर्क के तौर पर कहा,’प्लेन में सिर्फ़ दो घंटे बाकी हैं, होटल होकर मुश्क़िल से एयरपोर्ट पहुंचूंगी.’
‘प्लेन कल भी जाएगा, परसों भी, रोज़ जाएगा.’ स ने सिर्फ़ इतना कहा, फिर रास्ते में कुछ नहीं कहा.
होटल से सूटकेस लेकर गाड़ी में रख लिया, तो एक बार अ ने फिर कहा,’वक़्त थोड़ा है, प्लेन मिस हो जाएगा.’
स ने जवाब में कहा,’घर पर मां इन्तज़ार कर ही होगी.’
अ सोचती रही कि शायद स ने मां को इस मीटिंग का दिन बताया हुआ था, पर वह समझ नहीं सकी-क्यों बताया था?
अ कभी-कभी मन से यह ‘क्यों’ पूछ लेती थी, पर जवाब का इन्तज़ार नहीं करती थी. वह जानती थी-मन के पास कोई जवाब नहीं था. वह चुप बैठी शीशे में से बाहर शहर की इमारतों के देखती रही…
कुछ देर बाद इमारतों का सिलसिला टूट गया. शहर से दूर बाहर आबादी आ गई, और पाम के बड़े-बड़े पेड़ों की कतारें शुरू हो गईं…
समुद्र शायद पास ही था, अ के सांस नमकीन-से हो गए. उसे लगा-पाम के पत्तों की तरह उसके हाथों में कम्पन आ गया था-शायद स का घर भी अब पास था…
पेड़ों-पत्तों में लिपटी हुई-सी कॉटेज के पास पहुंचकर गाड़ी खड़ी हो गई. अ भी उतरी, पर कॉटेज के भीतर जाते हुए एक पल के लिए बाहर केले के पेड़ के पास खड़ी हो गई. जी किया-अपने कांपते हुए हाथों को यहां बाहर केले के कांपते हुए पत्तों के बीच में रख दे. वह स के साथ भीतर कॉटेज में जा सकती थी, पर हाथों की वहां ज़रूरत नहीं थी-इन हाथों से न वह अब स को कुछ दे सकती थी, न स से कुछ ले सकती थी…
मां ने शायद गाड़ी की आवाज़ सुन ली थी, बाहर आ गईं. उन्होंने हमेशा की तरह माथा चूमा और कहा,‘‘आओ, बेटी.’
इस बार अ बहुत दिनों बाद मां से मिली थी, पर मां ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए-जैसे सिर पर बरसों का बोझ उतार दिया हो-और उसे भीतर ले जाकर बिठाते हुए उससे पूछा,‘क्या पियोगी, बेटी?’
स भी अब तक भीतर आ गया था, मां से कहने लगा,‘पहले चाय बनवाओ, फिर खाना.’अ ने देखा-ड्राइवर गाड़ी से सूटकेस अन्दर ला रहा था. उसने स की ओर देखा, कहा,‘बहुत थोड़ा वक़्त है, मुश्क़िल से एयरपोर्ट पहुंचूंगी.’
स ने उससे नहीं, ड्राइवर से कहा,‘कल सवेरे जाकर परसों का टिकट ले आना.’ और मां से कहा,‘तुम कहती थीं कि मेरे कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाना है, कल बुला लो.’
अ ने स की जेब की ओर देखा जिसमें उसका वापसी का टिकट पड़ा हुआ था, कहा,‘पर यह टिकट बरबाद हो जाएगा…’
मां रसोई की तरफ जाते हुए खड़ी हो गई, और अ के कन्धे पर अपना हाथ रखकर कहने लगी,‘टिकट का क्या है, बेटी! इतना कह रहा है, रुक जाओ.’
पर क्यों? अ के मन में आया, पर कहा कुछ नहीं. कुर्सी से उठकर कमरे के आगे बरामदे में जाकर खड़ी हो गई. सामने दूर तक पाम के ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे. समुद्र परे था. उसकी आवाज़ सुनाई दे रही थी. अ को लगा-सिर्फ़ आज का ‘क्यों’ नहीं, उसकी ज़िन्दगी के कितने ही ‘क्यों’ उसके मन के समुद्र के तट पर इन पाम के पेड़ों की तरह उगे हुए हैं, और उनके पत्ते अनेक वर्षों से हवा में कांप रहे हैं.
अ ने घर के मेहमान की तरह चाय पी, रात को खाना खाया, और घर का गुसलखाना पूछकर रात को सोने के समय पहनने वाले कपड़े बदले. घर में एक लम्बी बैठक थी, ड्राइंग-डाइनिंग, और दो और कमरे थे -एक स का, एक मां का. मां ने ज़िद करके अपना कमरा अ को दे दिया, और स्वयं बैठक में सो गई.
अ सोने वाले कमरे में चली गई, पर कितनी ही देर झिझकी हुई-सी खड़ी रही. सोचती रही-मैं बैठक में एक-दो रातें मुसाफिरों की तरह ही रह लेती, ठीक था, यह कमरा मां का है, मां को ही रहना चाहिए था…
सोने वाले कमरे के पलंग में, पद… में, और अलमारी में एक घरेलू-सी बू-बास होती है, अ ने इसका एक घूंट-सा भरा. पर फिर अपना सांस रोक लिया मानो अपने ही सांसों से डर रही हो…
बराबर का कमरा स का था. कोई आवाज़ नहीं थी. घड़ी पहले स ने सिर-दर्द की शिकायत की थी, नींद की गोली खाई थी, अब तक शायद सो गया था. पर बराबर वाले कमरों की भी अपनी बू-बास होती है, अ ने एक बार उसका भी घूंट पीना चाहा, पर सांस रुका रहा.
फिर अ का ध्यान अलमारी के पास नीचे फर्श पर पड़े हुए अपने सूटकेस की ओर गया, और उसे हंसी-सी आ गई-यह देखो मेरा सूटकेस, मुझे सारी रात मेरी मुसाफ़िरी की याद दिलाता रहेगा…
और वह सूटकेस की ओर देखते हुए थकी हुई-सी, तकिए पर सिर रखकर लेट गई…
न जाने कब नींद आ गई. सोकर जागी तो ख़ासा दिन चढ़ा हुआ था. बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी.
एक बार तो अ की आंखें झपककर रह गईं-बैठक में सामने स खड़ा था. चारखाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए. अ ने उसे कभी रात के सोने के समय के कपड़ों में नहीं देखा था. हमेशा दिन में ही देखा था-किसी सड़क पर, सड़क के किनारे, किसी कैफ़े में, होटल में, या किसी सरकारी मीटिंग में-उसकी यह पहचान नई-सी लगी. आंखों में अटक-सी गई…
अ ने भी इस समय नाइट सूट पहना हुआ था, पर अ ने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नहीं दिया था, अब ध्यान आया तो अपना-आप ही अजीब लगा-साधारण से असाधारण-सा होता हुआ…
बैठक में खड़ा हुआ स, अ को आते हुए देखकर कहने लगा,‘ये दो सोफ़े हैं, इन्हें लम्बाई के रुख़ रख लें. बीच में जगह खुली हो जाएगी.’
अ ने सोफ़ों को पकड़वाया, छोटी मेज़ों को उठाकर कुर्सियों के बीच में रखा. फिर मां ने चौके से आवाज़ दी तो अ ने चाय लाकर मेज़ पर रख दी.
चाय पीकर स ने उससे कहा,‘चलो, जिन लोगों को बुलाना है, उनके घर जाकर कह आएं और लौटते हुए कुछ फल लेते आएं.’
दोनों ने पुराने परिचित दोस्तों के घर जाकर दस्तक दी, सन्देशे दिए, रास्ते से चीज़ें ख़रीदीं, फिर वापस आकर दोपहर का खाना खाया, और फिर बैठक को फूलों से सजाने में लग गए.
दोनों ने रास्ते में साधारण-सी बातें की थीं-फल कौन-कौन-से लेने हैं? पान लेने हैं या नहीं? ड्रिंक्स के साथ के लिए कबाब कितने ले लें? फलां का घर रास्ते में पड़ता है, उसे भी बुला लें – और यह बातें वे नहीं थीं जो सात बरस बाद मिलने वाले करते हैं.
अ को सवेरे दोस्तों के घर पर पहली-दूसरी दस्तक देते समय ही सिर्फ़ थोड़ी-सी परेशानी महसूस हुई थी. वे भले ही स के दोस्त थे, पर एक लम्बे समय से अ को जानते थे, दरवाज़ा खोलने पर बाहर उसे स के साथ देखते तो हैरान-से हो कह उठते,‘आप.’
पर वे जब अकेले गाड़ी में बैठते, तो स हंस देता,‘देखा, कितना हैरान हो गया, उससे बोला भी नहीं जा रहा था.’
और फिर एक-दो बार के बाद दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधारण बातों में शामिल हो गई. स की तरह अ भी सहज मन से हंसने लगी.
शाम के समय स ने छाती में दर्द की शिकायत की. मां ने कटोर में ब्रांडी डाल दी, और अ से कहा,‘लो बेटी! यह ब्रांडी इसकी छाती पर मल दो.’
इस समय तक शायद इतना कुछ सहज हो चुका था, अ ने स की कमीज़ के ऊपर वाले बटन खोले, और हाथ से उसकी छाती पर ब्रांडी मलने लगी.
बाहर पाम के पेड़ों के पत्ते और केलों के पत्ते शायद अभी भी कांप रहे थे, पर अ के हाथ में कम्पन नहीं था. एक दोस्त समय से पहले आ गया था, अ ने ब्रांडी में भीगे हुए हाथों से उसका स्वागत करते हुए नमस्कार भी किया, और फिर कटोरी में हाथ डोबकर बाकी रहती ब्राण्डी को उसकी गर्दन पर मल दिया-कन्धों तक.
धीरे-धीरे कमरा मेहमानों से भर गया. अ फ्रिज सर बरफ़ निकालती रही और सादा पानी भर-भर फ्रिज में रखती रही. बीच-बीच में रसोई की तरफ़ जाती, ठंडे कबाब फिर से गर्म करके ले आती. सिर्फ़ एक बार जब स ने अ के कान के पास होकर कहा,‘तीन-चार तो वे लोग भी आ गए हैं, जिन्हें बुलाया नहीं था. ज़रूर किसी दोस्त ने उनसे भी कहा होगा, तुम्हें देखने के लिए आ गए हैं’-तो पलभर के लिए अ की स्वाभाविकता टूटी, पर फिर जब स ने उससे कुछ ग्लास धोने के लिए कहा, तो वह उसी तरह सहज मन हो गई.
महफ़िल गर्म हुई, ठंडी हुई, और जब लगभग आधी रात के समय सब चले गए, अ को सोने वाले कमरे में जाकर अपने सूटकेस में से रात के कपड़े निकालकर पहनते हुए लगा-कि सड़कों पर बना हुआ जादू का घर अब कहीं भी नहीं था….
यह जादू का घर उसने कई बार देखा था-बनते हुए भी, मिटते हुए भी, इसलिए वह हैरान नहीं थी. सिर्फ़ थकी-थकी सी तकिए पर सिर रखकर सोचने लगी -कब की बात है… शायद पचीस बरस हो गए- नहीं तीस बरस…. जब पहली बार वे ज़िन्दगी की सड़कों पर मिले थे-अ किस सड़क से आई थी, स कौन-सी सड़क से आया या, दोनों पूछना भी भूल गए थे, और बताना भी. वे निगाह नीची किए ज़मीन में नींवें खोदते रहे, और फिर यहां जादू का एक घर बनकर खड़ा हो गया, और वे सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे.
फिर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ें दीं, वे अपनी-अपनी सड़क की ओर जाते हुए चौंककर खड़े हो गए. देखा-दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई थी. स कितनी देर उस खाई की ओर देखता रहा, जैसे अ से पूछ रहा हो कि इस खाई को तुम किस तरह से पार करोगी? अ ने कहा कुछ नहीं था, पर स के हाथ की ओर देखा था, जैसे कह रही हो-तुम हाथ पकड़कर पार करा लो, मैं महज़ब की इस खाई को पार कर जाऊंगी.
फिर स का ध्यान ऊपर की ओर गया था, अ के हाथ की ओर. अ की उंगली में हीरे की एक अंगूठी चमक रही थी. स कितनी देर तक देखता रहा, जैसे पूछ रहा हो-तुम्हारी उंगली पर यह जो क़ानून का धागा लिपटा हुआ है, मैं इसका क्या करूंगा? अ ने अपनी उंगली की ओर देखा था और धीरे से हंस पड़ी थी, जैसे कह रही हो – तुम एक बार कहो, मैं कानून का यह धागा नाखूनों से खोल लूंगी. नाखूनों से नहीं खुलेगा तो दांतों से खोल लूंगी.
पर स चुप रहा या, और अ भी चुप खड़ी रह गई थी. पर जैसे सड़कें एक ही जगह पर खड़ी हुई भी चलती रहती हैं, वे भी एक जगह पर खड़े हुए चलते रहे…
फिर एक दिन स के शहर से आने वाली सड़क अ के शहर आ गई थी, और अ ने स की आवाज़ सुनकर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया था और बाहर सड़क पर उसके पास आकर खड़ी हो गई थी. स ने धीरे से हाथ आगे करके सोए हुए बच्चे को अ से ले लिया था और अपने कन्धे से लगा लिया था. और फिर वे सारे दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे…
वे भरपूर जवानी के दिन थे-उनके लिए न धूप थी, न डर. और फिर जब चाय पीने के लिए वे एक कैफ़े में गए तो बैरे ने एक मर्द, एक औरत और एक बच्चे को देखकर एक अलग कोने की कुर्सियां पोंछ दी थीं. और कैफ़े के उस अलग कोने में एक जादू का घर बनकर खड़ा हो गया था…
और एक बार… अचानक चलती हुई रेलगाड़ी में मिलाप हो गया था. स भी था, मां भी, और स का एक दोस्त भी. अ की सीट बहुत दूर थी, पर स के दोस्त ने उससे अपनी सीट बदल ली थी और उसका सूटकेस उठाकर स के सूटकेस के पास रख दिया था. गाड़ी में दिन के समय ठंड नहीं थी, पर रात ठंडी थी. मां ने दोनों को एक कम्बल दे दिया था. आधा स के लिए आधा अ के लिए. और चलती गाड़ी में उस साझे के कम्बल के किनारे जादू के घर की दीवारें बन गई थीं…
जादू की दीवारें बनती थीं, मिटती थीं, और आखिर उनके बीच खंडहरों की-सी खामोशी का एक ढेर लग जाता था…
स को कोई बन्धन नहीं था. अ को था. पर वह तोड़ सकती थी. फिर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे…
अब तो उम्र बीत गई… अ ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा और अब के ठण्डे दिनों के बारे में भी. लगा-सब दिन, सब बरस पाम के पत्तों की तरह हवा में खड़े कांप रहे थे.
बहुत दिन हुए, एक बार अ ने बरसों की खामोशी को तोड़कर पूछा थ,‘तुम बोलते क्यों नहीं? कुछ भी नहीं कहते. कुछ तो कहो.’
पर स हंस दिया था, कहने लगा,‘यहां रोशनी बहुत है, हर जगह रोशनी होती है, मुझसे बोला नहीं जाता.’
और अ का जी किया था-वह एक बार सूरज को पकड़कर बुझा दे…
सड़कों पर सिर्फ़ दिन चढ़ते हैं. रातें तो घरों में होती हैं… पर घर कोई था नहीं, इसलिए रात भी कहीं नहीं थी-उनके पास सिर्फ़ सड़कें थीं, और सूरज था, और स सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था.
एक बार बोला था…
वह चुप-सा बैठा हुआ था जब अ ने पूछा था,‘क्या सोच रहे हो?’ तो वह बोला,‘सोच रहा हूं, लड़कियों से फ़्लर्ट करूं और तुम्हें दुखी करूं.’
पर इस तरह अ दुखी नहीं, सुखी हो जाती. इसलिए अ भी हंसने लगी थी, स भी.
और फिर एक लम्बी खामोशी…
कई बार अ के जी में आता था-हाथ आगे बढ़ाकर स को उसकी खामोशी में से बाहर ले आए, वहां तक जहां तक दिल का दर्द है. पर वह अपने हाथों को सिर्फ़ देखती रहती थी, उसने हाथों से कभी कुछ कहा नहीं था.
एक बार स ने कहा था,‘चलो चीन चलें.’
‘चीन?’
‘जाएंगे, पर आएंगे नहीं.’
‘पर चीन क्यों?’यह ‘क्यों’ भी शायद पाम के पेड़ के समान था जिसके पत्ते फिर हवा में कांपने लगे…
इस समय अ ने तकिए पर सिर रख हुआ था, पर नींद नहीं आ रही थी. स बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खाकर.
अ को न अपने जागने पर ग़ुस्सा आया, न स की नींद पर. वह सिर्फ़ यह सोच रही थी-कि वे सड़कों पर चलते हुए जब कभी मिल जाते हैं तो वहां घड़ी-पहर के लिए एक जादू का घर क्यों बनकर खड़ा हो जाता है?
अ को हंसी-सी आ गई-तपती हुई जवानी के समय तो ऐसा होता था, ठीक है, लेकिन अब क्यों होता है? आज क्यों हुआ?
यह न जाने क्या था, जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था…
बाक़ी रात न जाने कब बीत गई-अब दरवाज़े पर धीरे से खटका करता हुआ ड्राइवर कह रहा या कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है…
अ ने साड़ी पहनी, सूटकेस उठाया, स भी जागकर अपने कमरे से आ गया, और वे दोनों दरवाज़े की ओर बढ़े जो बाहर सड़क की ओर खुलता था…
ड्राइवर ने अ के हाथ से सूटकेस ले लिया था, अ को अपने हाथ और ख़ाली-ख़ाली से लगे. वह दहलीज़ के पास अटक-सी गई, फिर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोई हुई मां को खाली हाथों से प्रणाम करके बाहर आ गई…
फिर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरू हो गई, ख़त्म होने को भी आ गई, पर स भी चुप था, अ भी…
अचानक स ने कहा -’तुम कुछ कहने जा रही थीं?’
‘नहीं.’
और वह फिर चुप हो गया.
फिर अ को लगा-शायद स को भी-कि बहुत-कुछ कहने को था, बहुत-कुछ सुनने को, पर बहुत देर हो गई थी, और अब सब शब्द ज़मीन में गड़ गए थे-पाम के पेड़ बन गए थे और मन के समुद्र के पास लगे हुए उन पेड़ों के पत्ते शायद तब तक कांपते रहेंगे जब तक हवा चलती रहेगी..
एयरपोर्ट आ गया और पांवों के नीचे स के शहर की सड़क टूट गई….
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट